Life is a Journey.From Kashmir to Kanyakumari,beginning till the end of another story, it is one long curve, full of Turning Points.. You never know which place, person, time, season or circumstance will affect LIFE, HEART, MIND or SOUL.. This blog is all about those Turning Points..
शनिवार, 10 जुलाई 2010
काँटों भरा ताज "ताज-ए-कश्मीर"..
"कश्मीर वचार" का ये नया पोस्ट कश्मीर घाटी के कल और आज के विश्लेषण पर ही आधारित है।
http://kashmir-timemachine.blogspot.com/2010/07/omar-honest-politician.html
शुक्रवार, 28 मई 2010
कारगिल युद्ध : इतिहास बदलना होगा
ब्रिगेडियर देवेंद्र सिंह ने बटालिक सेक्टर से सबसे पहली बार पाकिस्तानी घुसपैठ होने की आशंका व्यक्त की थी लेकिन लेफ्टिनेंट जनरल किशन पाल ने न सिर्फ उनकी चेतावनी को अनदेखा किया बल्कि लेफ्टिनेंट सौरभ कालिया और उनके साथियों के गुमशुदा होने कि बात भी सरकार से छुपाये रखी। इस कलयुगी रक्षक (जनरल किशन पाल) के झूट के कब्रिस्तान में कई ऐसे सच दफ़न है जिन्हें सुन कर न सिर्फ सर शर्म से झुक जाता है बल्कि दिल करता है कि ऐसे लोगों को कड़ी से कड़ी सजा दे कर न सिर्फ सेना और देश के सामने बल्कि पुरे विशव के सामने एक मिस्साल कायम की जानी चाहिए।
जनरल किशन पाल के झूठ की और कई दस्तानो के कच्चे चिट्ठे निचे दिये लिंक में पढ कर आप खुद ही अंदाज़ा लगाईये कि इस इंसाने के साथ क्या सलूक किया जाये??
http://kashmir-timemachine.blogspot.com/2010/05/gen-pal-should-his-head-not-hang-in_27.html
बुधवार, 12 मई 2010
“हॉउस फुल एंड बदमाश कम्पनी इज ए हिट” और जहाँ तक हम सभी जानते हैं इन फिल्मों के हिट होने में इनके हीरो -हिरोइन के इश्क की झूठी अफवाहों का कोई योगदान नहीं । दोनों ही फिल्मों में ज़रूरत के हिसाब से सटीक और कसावदार स्टोरी, डायलाग, निर्देशन और अभिनय के कमाल ने दर्शकों के दिल में कुछ ऐसा धमाल मचाया कि दोनों फिल्मों ने इस साल की सुपर-डुपर हिट फिल्मों की श्रेणी में अपना स्थान सुनिश्चित कर लिया।क्या इन फिल्मों की सफलता “लव स्टोरी २०५०”, “किस्मत कनेक्शन” जैसी फ्लॉप फिल्मों के निर्माता-निर्देशकों को सफल फिल्मों के रास्ते का सही दिशा ज्ञान दे पायेगी?? कुछ फ़िल्मकार फिल्म की रिलीज़ से पहले हीरो-हिरोइन के इश्क़ के चर्चों को hi फिल्म की सफलता मज़बूत करनेवाला एक कलपुर्जा मानते हैं.. लेकिन ये तो संभव है कि हीरो हिरोएँ के इश्क के चर्चे किसी अख़बार या पत्रिका कि साल्स बाधा दे पर करोड़ों कि लगत से बनानेवाली फिल्मों को दर्शक यूँ ही सुपर हित होता
आम जनता की जिंदगी में कोई रस नहीं है। इसीलिए वह इस तरह की अफवाहों में रुचि लेती है।
यह बीमारी हमारे यहाँ विदेशों से आई है। वहाँ भी जब कोई फिल्म बन रही होती है, तभी से प्रचार विभाग के कल्पनाकार अफवाहें उड़ाने लगते हैं। इन अफवाहों का पैटर्न यही होता है कि फलाँ हीरो, फलाँ हीरोइन के साथ अमुक जगह पर देखा गया और ज़रूर इनके बीच कुछ पक रहा है। इन अफवाहों का आधार होता है कि अमुक फिल्म में दोनों काम कर रहे हैं और वहीं सेट पर दोनों की दोस्ती हुई। आप गौर करेंगे तो पाएँगे कि फिल्म पत्रिकाओं के मुताबिक जब भी कोई हीरो, किसी हीरोइन के साथ कोई फिल्म कर रहा था, उस दौरान दोनों के बीच इश्क भी पनप रहा था। हरमन बावेजा और प्रियंका चोपड़ा को लेकर भी यही कहा गया था। shahid kapoor और प्रियंका को लेकर भी यही कहा गया। सो, प्रचार के लिए इससे सस्ता कुछ हो ही नहीं सकता। अगर किसी पत्रिका या अखबार में फिल्म का विज्ञापन देना हो तो सेंटीमीटर के हिसाब से जगह खरीदनी पड़ती है, मगर इस तरह मुफ्त में ही करोड़ों का प्रचार हो जाता है। इन अफवाहों को फैलाने के लिए एजेंसियाँ हैं और ये एजेंसियाँ उन पत्रकारों को उपकृत करती हैं, जो ऐसी अफवाहें छापते हैं या उन्हें छपवाने की व्यवस्था करते हैं।असल बात तो यह है कि "काइट्स" के सेट पर प्यार नहीं, झगड़ा चलता रहता है। वह भी निर्माता व निर्देशक के बीच। हमेशा सेट पर रहने वाले फिल्म के निर्माता राकेश रोशन फिल्म के निर्देशक अनुराग बसु को सुझाव और सलाहें देते रहते हैं। पिछले दिनों फिल्म से दो गीत भी निकाल दिए। दोनों के बीच खटपट चलती ही रहती है। बसु अपने मन का काम करने के लिए आज़ादी चाहते हैं, जो राकेश रोशन देते नहीं हैं। बहरहाल, फिल्म के पोस्टर जारी हो गए हैं और पोस्टर बेहद आकर्षक हैं। देखना है "काइट" आसमान देखती है या उड़ते ही कटकर ज़मीन पर आ गिरती है।
क्या इन फिल्मों कि सफलता “लोव स्टोरी २०५०”, “किस्मत कनेक्शन” जैसी फ्लॉप फिल्मों के निर्माता-निर्देशकों को सफल फिल्मों के रस्ते का दिशा ज्ञान दे पायेगी?? कुछ फ़िल्मकार फिल्म कि रिलीज़ से पहले हीरो-हिरोएँ के इश्क के चर्चों को फिल्म कि सफलता को मज़बूत करनेवाला एक कलपुर्जा मानते हैं.. लेकिन ये तो संभव है कि हीरो हिरोएँ के इश्क के चर्चे किसी अख़बार या पत्रिका कि साल्स बाधा दे पर करोड़ों कि लगत से बनानेवाली फिल्मों को दर्शक यूँ ही सुपर हित होता
आम जनता की जिंदगी में कोई रस नहीं है। इसीलिए वह इस तरह की अफवाहों में रुचि लेती है।
यह बीमारी हमारे यहाँ विदेशों से आई है। वहाँ भी जब कोई फिल्म बन रही होती है, तभी से प्रचार विभाग के कल्पनाकार अफवाहें उड़ाने लगते हैं। इन अफवाहों का पैटर्न यही होता है कि फलाँ हीरो, फलाँ हीरोइन के साथ अमुक जगह पर देखा गया और ज़रूर इनके बीच कुछ पक रहा है। इन अफवाहों का आधार होता है कि अमुक फिल्म में दोनों काम कर रहे हैं और वहीं सेट पर दोनों की दोस्ती हुई। आप गौर करेंगे तो पाएँगे कि फिल्म पत्रिकाओं के मुताबिक जब भी कोई हीरो, किसी हीरोइन के साथ कोई फिल्म कर रहा था, उस दौरान दोनों के बीच इश्क भी पनप रहा था। हरमन बावेजा और प्रियंका चोपड़ा को लेकर भी यही कहा गया था। shahid kapoor और प्रियंका को लेकर भी यही कहा गया। सो, प्रचार के लिए इससे सस्ता कुछ हो ही नहीं सकता। अगर किसी पत्रिका या अखबार में फिल्म का विज्ञापन देना हो तो सेंटीमीटर के हिसाब से जगह खरीदनी पड़ती है, मगर इस तरह मुफ्त में ही करोड़ों का प्रचार हो जाता है। इन अफवाहों को फैलाने के लिए एजेंसियाँ हैं और ये एजेंसियाँ उन पत्रकारों को उपकृत करती हैं, जो ऐसी अफवाहें छापते हैं या उन्हें छपवाने की व्यवस्था करते हैं।असल बात तो यह है कि "काइट्स" के सेट पर प्यार नहीं, झगड़ा चलता रहता है। वह भी निर्माता व निर्देशक के बीच। हमेशा सेट पर रहने वाले फिल्म के निर्माता राकेश रोशन फिल्म के निर्देशक अनुराग बसु को सुझाव और सलाहें देते रहते हैं। पिछले दिनों फिल्म से दो गीत भी निकाल दिए। दोनों के बीच खटपट चलती ही रहती है। बसु अपने मन का काम करने के लिए आज़ादी चाहते हैं, जो राकेश रोशन देते नहीं हैं। बहरहाल, फिल्म के पोस्टर जारी हो गए हैं और पोस्टर बेहद आकर्षक हैं। देखना है "काइट" आसमान देखती है या उड़ते ही कटकर ज़मीन पर आ गिरती है।
शनिवार, 8 मई 2010
तेरे पास कौन सी माँ है भाई - "मदरइंडिया" की नर्गिस या "शूटआउट" की अमृता सिंह??
भाई, मेरे पास “माँ” है!!
शुक्रवार, 7 मई 2010
२६/११ - कुछ फैसले अभी बाकी हैं..
२६/११ का काला अतीत इतिहास के पन्नो में दर्ज हो चुका है। ६/०४ का दिन उसी काले अतीत को रचने वाले के भविष्य का फैसला करने केलिए इतिहास में सुनहरे अक्षरों से लिखा जा चुका है। कसाब जोकि सरहद पार से भेजा गया पार्सल था उसकी मौत तो निश्चित हो चुकी है लेकिन सरहद के भीतर बैठे उन नकाबपोशों का क्या जो इस देश की नीव को दीमक बनके खोखला कर रहे हैं?? उनकेलिए न तो कोई केस दर्ज हुआ, न ही हमें उनके गुनाहों की खबर है इसलिए उनकी सजा मुक़र्रर होने का इंतज़ार हमें हो ये सवाल ही पैदा नहीं होता।
२६/११ के दौरान शहीद हुए हमारे जांबाज़ सिपाहियों की शहादत केलिए क्या सिर्फ कसाब ही ज़िम्मेदार है?? उस काली रात के अँधेरे में और भी बहुत कुछ ऐसा घटित हुआ जिससे हम सब बेखबर हैं?? इस ब्लॉग लिंक को पढ़ कर शायद काफी सवालों के जवाब हमारे सामने खुद-बी-खुद बेपर्दा हो जायेंगे।
http://kashmir-timemachine.blogspot.com/2010/05/kasab-and-mumbai-police.html
सोमवार, 3 मई 2010
खेल ब्रेकिंग न्यूज़ का..
http://kashmir-timemachine.blogspot.com/2010/05/tv-news.html
शुक्रवार, 2 अप्रैल 2010
आई पी एल से टक्कर तौबा तौबा..
बुधवार, 31 मार्च 2010
दिल मिला है कहाँ कहाँ तन्हा : मीना कुमारी
1 अगस्त 1932 को इस दुनिया में एक ऐसे ही सितारे ने जन्म लिया जो पैदा, हुई तो उसकी रोशनी किसी ने न देखी। खुर्शीद और मधु इन दो बेटियों के बाद पैदा हुए इस सितारे को एक बोझ समझ कर यतीम आश्रम में पहुंचा दिया गया। फिर जाने क्या सोच के उस बोझ को उसके माता पिता उस यतीम खाने से वापिस घर ले आये। महज़ 7 साल के बाद उस बोझ को उसके औरत होने के गुनाह की सज़ा सुनाई गयी और वो सज़ा थी कि वो बोझ अब अकेले सारे परिवार का बोझ उठाये।
ये सितारा जिसे इसके अपनों ने एक बोझ समझा इसका नाम था महजबीं बानो उर्फ़ मीना कुमारी । महज़ 7 साल कि उम्र में महज़बीं ने पहली बार कमरे का सामना किया था। मुंबई के अँधेरी स्थित प्रकाश स्टूडियो में निर्देशक विजय भट्ट के लाइट्स, कैमरा, एक्शन बोलने के बाद जब दृश्य पूरा हुआ तो मानो नन्ही महज़बीं के रूप में परिवार को सोने का अंडा देने वाली मुर्गी हासिल हो गयी| बचपन के गलियारों में स्कूल जाने की ख्वाहिश रखने वाली महजबीं एक स्टूडियो से दुसरे स्टूडियो का सफ़र तय करते करते ही महजबीं से मीना कुमारी बन गई।
"मीना कुमारी" वो रोशन सितारा जिसकी अपने ही मन के चिराग तले हमेशा अँधेरा रहा। मीना का बचपन अपनी पूरी उम्र जीने से पहले ही खत्म हो गया। जवानी आई लेकिन परिवार की आर्थिक जरूरतों को पूरा करने कि ज़िम्मेदारी के कारण मीना के सपने कभी उसकी जिम्मेदारियों की लक्ष्मण रेखा पार न कर सके। माँ-बाप को उसके होने की ख़ुशी तब तक नहीं हुई जब तक फिल्म इंडस्ट्री की नजर उस कोहेनूर हीरे पर नहीं पड़ी और वह परिवार की रूठी तक़दीर को मानाने का जरिया नहीं बन गई। इस सचाई को मीना भली भांति जानती थी यही वजह थी के आँसू, दर्द और अकेलेपन से मीना कुमारी की दोस्ती किशोरावस्था में ही हो गयी थी।
कच्ची उम्र में गम और अकेलेपन से दोस्ती इंसान को अक्सर गलत निर्णय लेने पर मजबूर कर देती है। अभिनय, भावनाओं और शायरी की अच्छी खासी समझ रखने वाली मीना ने भी एक गलत निर्णय लिया और अपने से १५ साल बड़े एक विवाहित पुरुष "कमाल अमरोही" जो तीन बच्चों के पिता भी थे उनसे छिपकर शादी कर ली। मगर दर्द और तन्हाई उसके सच्चे दोस्त थे उन्होंने किसी भी सूरत में उसका साथ नहीं छोड़ा। प्यार, परिवार की आस लिए कमाल की ज़िन्दगी में दाखिल हुई मीना कुमारी के अरमान बस चंद घडी के मेहमान साबित हुए। कमाल अमरोही ज्यादातर बाहर रहते, मगर मीना के पल-पल की खबर रखी जाती । मीना के साथ प्यार के दो बोल बोलने वाला कोई न था।
उन तमाम पलों की गवाह सिर्फ एक नौकरानी थी, जिसने करोड़ों दर्शकों के दिल की मल्लिका और अपने दौर की सबसे नामी अदाकारा को बंद दरवाजों के पीछे घुटते-तड़पते देखा था।
अपने ३० साल लम्बे फ़िल्मी जीवन में मीना कुमारी ने लगभग ९० से अधिक फिल्में की। जहाँ एक ओर आज़ाद, चिराग कहाँ रोशनी कहाँ, मैं चुप रहूंगी, आरती, दिल एक मंदिर, फूल और पत्थर और दिल अपना और प्रीत परायी फिल्मों की सफलता ने मीना का नाम अपने वक़्त की बेहतरीन अदाकाराओं में शामिल कर दिया। वहीँ दूसरी तरफ बैजू बावरा, परिणीता, काजल फिल्मों में मीना के लाजवाब अभिनय ने उनकी झोली फिल्म फेअर अवार्ड से भर दी। और गुरुदत्त निर्मित साहिब, बीवी और गुलाम मीना के कैरिअर में मील का पत्थर मानी जाती है लेकिन इस फिल्म ने मीना को प्रशंसा और फिल्म फेअर अवार्ड्स के आशीर्वाद के साथ साथ शराब के नशे का श्राप भी दिया ।
मीना कुमारी ने आज़ाद, मिस मैरी और शरारत जैसी हास्य प्रधान फिल्में भी कि लेकिन उनके द्वारा निभाए गए ग़मगीन और संजीदा किरदारों ने उन्हें "ट्रेजिडी क्वीन" के नाम से मशहूर कर दिया।
जो भी हो शराब ने मीना को मानसिक और शारीरिक दोनों तरह से कमज़ोर कर दिया। उनकी बेदाग खूबसूरती समय से पहले ढलने लगी। उनकी आखिरी फिल्मों में "दुश्मन" और "मेरे अपने" में मीना कुमारी ने एक ढलती उम्र की औरत का किरदार निभाया और प्रशंसा हासिल की।
ज़िन्दगी और मौत की देहलीज़ पर खड़ी मीना की आखिरी फिल्म "पाकीज़ा" थी। जिसे पूरा होने में १४ सालों से भी ज्यादा वक़्त लगा। कहते हैं कि इस फिल्म निर्माण के दौरान ही मीना और कमाल अमरोही में तलाक हुआ था। तलाक कि चुभन को मीना ने अपने ही अंदाज़ से कुछ यूँ बयां किया था .......
तलाक तो दे रहे हो नज़रे कहर के साथ, जवानी भी लौटा दो मेरी मेहर केसाथ
इधर फिल्म "पाकीज़ा" ने सिनेमा हाल की देहलीज़ पर कदम रखा और उधर मौत ने मीना कुमारी की देहलीज़ पार की। मीना को करीब से जानने वालों का कहना है कि आखिरी वक़्त करोड़ों दिलों की इस मल्लिका के पास सिवाय आंसुओ, टूटे सपनो और अधूरी ख्वाहिशों के कुछ भी न था। मेह्ज़बिं की ज़िन्दगी का फसना मीना कुमारी ने अपनी कलम से कुछ इस तरह बयां किया ॥चाँद तन्हा है, आसमां तन्हा,
दिल मिला है कहाँ कहाँ तन्हा
बुझ गई आस, छुप गया तारा,
थर-थराता रहा धुआ तन्हा
ज़िन्दगी क्या इसी को कहते है
जिस्म तन्हा है, और जां तन्हा
हमसफ़र कोई ग़र मिले भी कहीं
दोनों चलते रहे यहाँ तन्हा
जलती बुझती सी रौशनी के परे,
सिमटा-सिमटा सा एक मकां तन्हा
राह देखा करेगा सदियों तक
छोड़ जायेंगें ये जहाँ तन्हा....
मंगलवार, 30 मार्च 2010
फिल्मों का बदलता स्वरुप यानि बदलते भारत की तस्वीर..
अंग्रेजी में एक कहावत है “चैज इज़ द ओनली कांस्टेंट यानि "परिवर्तन संसार का नियम है" और ये बात बदलते भारत पर इस वक़्त बिलकुल सटीक बैठती है । राजनीती में बाबा रामदेव जी का पदार्पण, स्वास्थ्य जगत में अचानक होमियोपथी, आयुर्वेदि चिकित्सा पद्दति को बढावा देने की सरकारी मुहीम, और फिल्मों में तो ये परिवर्तन इतनी तेज़ी से आ रहा है कि एक से दुसरे शुक्रवार के बीच रिलीज़ होने वाली फिल्मे मानो सदियों का फासला तय कर लेती हैं।
जैसे पकी पकाई फ़िल्मी जोड़ियों को लेकर फिल्में बनाने की जगह नयी जोड़ियों को फिट किया जा रहा है अतिथि तुम कब जाओगे में अजय देवगन और कोंकना सेन शर्मा या इश्किया में विद्या बालन और अरशद वारसी की जोड़ी इस परिक्षण का जीता जगता उदाहरण है॥ मनोरंजन के नाम पर फूहड़ता और घिसी पिटी कहानियो का दौर भी अब लगभग अपनी आखिरी सांसे ले रहा है। यही वजह है कि कॉमेडी देखने वाले दर्शकों को भी जबरन ठूँसी हुई कॉमेडी की जगह एक स्तरीय कॉमेडी देखने को मिल रही है। हालाँकि अभी भी अधिकतर फिल्म निर्माता निर्देशक रंगीनियत के चश्मे से चीजों को देखने के लालच को तिलांजल इनही दे पाए हैं लेकिन निर्माता-निर्देशको कि एक नयी पौध सिग्नल पर रहने वाले उन भिखमंगों या फिर दो पहिये कि गाड़ी से चार पहिये कि गाड़ी तक ज़िन्दगी को धकेलने कि कोशिश करनेवाली मध्यम वर्गीय परिवार की कहानी (आने वाली फिल्म दो दुनी चार) को भी बेख़ौफ़ परोसने कि हिम्मत कर रहे हैं । प्यार की कसमें खा-खाकर अपनी जान तक देने वाले आशिकों की फिल्मों से हटके वर्तमान फिल्में हसीन वादों और सपनों से भी आगे जमीनी हकीकत से रू-ब-रू कराती हैं, जहाँ जिंदगी इतनी आसान नहीं होती । लेकिन इस बदलती सोच का सारा श्रेय सिर्फ निर्माता या निर्देशको को देना उचित नहीं होगा । इस बदलते परिवेष की ज़िम्मेदारी काफी हद तक आज के युवा वर्ग को भी जाती है । पहले फिल्मों में जहाँ आलीशान बंगले और बड़ी बड़ी गाड़ियाँ हुआ करती थी वही आज कि फिल्में तंग गलियों में सिसकती ज़िन्दगी कि सच्चाई से दर्शकों को रु-बी-रु करवा रही हैं। आज का दर्शक मायाजाल से निकल कर तंग गलियों के सफर का भी खुले दिल से स्वागत करता है। तारे ज़मी पर, ३ इडिअट्स , कुर्बान, थैन्क्यू माँ जैसी फिल्मो का आगमन बदलती सोच और समाज का सन्देश देती हैं। आज कि फिल्मो और निर्देशको में सामाजिक सच दिखाने का माद्दा है। ये बदलती सोच ही बदलते वक़्त और भारत की ज़रूरत है।
लेकिन सिर्फ फिल्में ही नहीं बल्कि शिक्षा, व्यवसाय और तकनीक को भी बदलते दौर के साथ खुद को तेज़ी से बदलना होगा तभी भारत को विश्व गुरु कहलाने का गौरव हासिल होगा।
सोमवार, 29 मार्च 2010
फ़िल्मी सितारे : उनकी आस्था और विश्वास..
फिर भी कलियुग में एक चीज़ नहीं बदली वो है उस मालिक या ईश्वर के दरबार में हाजिरी लगाने वालों कि आस्था और विश्वास । उसके दरबार में लगने वाली लाइनों को ज़रूर वी.आई.पी या साधारण जनता के आधार पर बाँट दिया जाता है लेकिन उसके सामने खड़े होने के बाद कोई सेलेब्रिटी हो या आम इंसान दोनों के हाथ एक ही अंदाज़ में जुड़ते हैं, दोनों की ही प्रार्थना तब तक स्वीकार नहीं होती जबतक उसकी आत्मा की आवाज़ उसमें न शामिल हो॥
मायानगरी में रहने वाले सितारों के नाम से चाहे जितने मंदिर और चालीसों की रचना कर दी जाये लेकिन फ़िल्मी फलक पर चमकने वाले ये सितारे भी उस परमेश्वर के दरबार में एक साधारण इंसान की तरह ही अपने और अपनों के दुःख को सुख में बदलने की गुज़ारिश करते हैं। और ये गुज़ारिश करने केलिए इस सितारों को अपना वी आई.पी.स्टेटस भूल कर भगवान की शरण जाना पड़ता है।
समय-समय पर हुई मुलाकातों के दौरान मुझे ये पता चला की इस दुनिया के रंगीन सितारे अपनी इस चकाचौंध कर देने वाली रोशनी, प्रसिद्धि और दौलत का श्रेय उस दुनिया की किस शक्ति देते हैं??
दुर्गा माँ के परम भक्तों में अक्षय काजोल, सुष्मिता, बिपाशा नवरात्रों में देवी के दरबार में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाना नहीं भूलते। यहाँ तक कि खिलाडी अक्षय तो ज़्यादातर नमस्ते, हाय, हेलो की जगह "जय माता दी" कहना ही पसंद करते हैं।
सुष्मिता सेन जब भी कोलकाता जाती हैं तो दखिनेश्वर और कालीघाट के मंदिर जाना नहीं भूलती । अफवाहों के करीब और मीडिया से दूर रहने वाली रानी मुखर्जी ईश्वर को अपने सबसे करीब मानती हैं और जब भी मौका मिले ये मुंबई के सिद्धिविनायक मंदिर और गोरेगाँव स्थित काली मंदिर जाती हैं।
विवेक ओबरॉय और विद्या बालन की सफलता, अभिनय में तो कोई समानता नहीं लेकिन इनकी धार्मिक आस्था और विश्वास ज़रूर एक सामान हैं क्योकि दोनों को ही शिर्डी के साँईंबाबा में अटूट श्रद्धा है। तिरुपति बाला जी और श्री सिद्धिविनायक बच्चन परिवार की आस्था का केंद्र हैं। ड्रीम गर्ल हेमा मालिनी और उनकी दोनों बेटियां की आस्था श्री कृष्ण चरणों में समर्पित है। संजय दत्त ने चाहे पत्नी कितनी भी बदली हों लेकिन माँ भगवती के प्रति उनकी आस्था औरश्रद्धा कभी नहीं बदली।
तुषार कपूर अपने भक्तिभाव को जग जाहिर करने में ज्यादा विश्वास नहीं करते बस घर में अगर हवन-पूजा हो तो उसमें हाजिरी लगा के वो ईश्वर के दरबार में अपनी इच्छाओं की लिस्ट पेश कर देते हैं। लेकिन ऐसा नहीं है के उन्हें भगवन में विश्वास नहीं बस वो अपने और भगवन के इस रिश्ते को अपनी बहन एकता की तरह जग जाहिर नहीं करते।
तो कुल मिला के नतीजा ये है के इस दुनिया के सितारे भी हमारी ही तरह सूख-दुःख की आंधियों से परेशां होते हैं। उन्हें भी एक आम इंसान की तरह मुश्किल की घडी में एक अदृश्य शक्ति की ज़रूरत महसूस होती है। लोगों कि दीवानगी चाहे इन्हें फलक के सितारे से ज़यादा रोशन और ताकतवर समझके इनकी पूजा, आराधना करना शुरू कर दे लेकिन सच येही है कि आखिर हैं तो ये भी इंसान ही।
मंगलवार, 5 जनवरी 2010
है कोई इनका वारिस ??
तो लेडीज़ फर्स्ट के नियम कि अवहेलना न करते हुए शुरुआत करते हैं ५०, ६० और ७० के दशक में हिन्दी फ़िल्म के दर्शकों को अपना नाम "चिन चिन चुंग" बता कर सबका मन मोहने वाली हेलन रिचर्ड्सन से॥ जिन्हें हम सब सिर्फ़ हेलन के
नाम से ही जानते हैं॥ यूँ तो हिन्दी फिल्मों में हेलन का नाम बतोर खलनायिका, सह-अभिनेत्री और मुख्य अभिनेत्री यानि हर रूप में हम देखते आए हैं मगर हेलन को आज भी हिन्दी फिल्मों की सबसे ज़्यादा मशहूर आइटम ग
हेलन के बाद र्ल के रूप में ही याद किया जाता है॥ क्योंकि करीब ३०० फिल्मों में अपनी बेहतरीन अदाकारी का जादू चलने वाली हेलन ने ६५ से भी ज़्यादा फिल्मों में सिर्फ़ और सिर्फ़ आइटम सोंग के लिए ही अपनी मुह दिखाई की थी॥
मुझे याद आ रही है मुंबई पुलिस की॥ ६० व् ७० के दशक में अगर किसी हिन्दी फ़िल्म में पुलिस ऑफिसर का किरदार निभाने कि बात आती तो उसके लिए स्क्रीन टेस्ट या या ज़्यादा सोच-विचार करने कि शायद ही नोबत आती होगी क्योंकि इस भूमिका को बार -बार निभाते हुए जगदीश राज इस कदर टाइप हो चुके थे कि शायद उन्होंने भी किसी फ़िल्म का ऑफर आने पर ये पूछना छोड़ दिया होगा की फ़िल्म में उनका किरदार क्या है?? यही वजह है कि करीब २३६ फिल्मों में से १४४ बार जगदीश राज सिर्फ़ पुलिस इंसपेक्टर कि भूमिका में ही दिखाई दिए॥ जोकि अपने आप में एक विश्व रिकॉर्ड है॥
और अब बात करते हैं पंजाब दे पुत्तर रुस्तम-ऐ-हिंद दारा सिंह की॥ दारा सिंह जिनका नाम सुनते ही फ़िल्म और टेलीविजन पर उनके द्वारा साकार पवन पुत्र हनुमान का किरदार अपनेआप ज़हन में घूमने है॥ और शायद ये कहना ग़लत नही होगा कि दारा सिंह का नाम अब फिल्मी हनुमान जी के किरदार का प्रयाय्वाची बन चुका है॥ हालाँकि उनकी इस पदवी पर उनके सुपुत्र विदु ने कुछ वर्षों पहले अपनी
दावेदारी साबित करने कि कोशिश कि थी मगर पिता की लोकप्रियता के सामने बेटे की छवि का कद्द बोना साबित हुआ॥ दारा सिंह ने अबतक तक़रीबन १२० से भी ज़्यादा फिल्मों में अपनी अदाकारी का योगदान दिया है पर उनका सबसे बड़ा योगदान रहा धार्मिक हिन्दी फिल्मों में निभाई उनकी अलग-अलग भूमिकाएं॥ गौरतलब है कि अपने अब तक के अभिनय सफर में वह ५ बार बजरंगबली, 4 बार भीम, ३ बार भगवन शिव और एक बार भीम पुत्र घटोत्कच का किरदार निभा चुके हैं॥ मगर आज भी बजरंगबली के फिल्मी अवतार का नाम आते ही दारा सिंह ही हनुमान रूप दिखाई देने लगते हैं॥
ये जीतनी भी खाली पोस्ट के बारे में मैंने आपको जानकारी दी है इनके शहंशाहों ने वर्षों पहले ही अपने सिंघासन को खाली कर नई पीढी को उस पर विराजने का निमंत्रण दे दिया॥ मगर आज इतने सालों के बाद भी उस सिंघासन पर बैठना तो दूर कोई उस पायदान की पहली सीडी पर भी पाँव नही रख सका है॥ जो भी हो मुझे नही लगता इन खाली पड़े सिंघासनों को कभी कोई वारिस मिलेगा॥