शनिवार, 10 जुलाई 2010

काँटों भरा ताज "ताज-ए-कश्मीर"..

राजनीती में यूँ तो हर कुर्सी का ताज काँटों भरा होता है लेकिन भारत के बाकी राज्यों के ताज में चुभने वाले कांटें उनमें लगे फूलों का हिस्सा होते हैं - जबकि जम्मू और कश्मीर के ताज में सिर्फ और सिर्फ काँटों कि चुभन का ही एहसास है क्योंकि इस ताज के चमन में फूल खिलना कई साल पहले ही बंद हो चुका है। जम्मू कश्मीर के युवा मुख्य-मंत्री उमर अब्ब्दुल्ला अपनी ताज पोशी के वक़्त इन काँटों को चुन के बाग़-ए -कश्मीर में रोज़गार, उन्नति, तरक्की के फूल खिलाने का सपना लेकर आये थे। लेकिन वहां की जनता और उमर अब्ब्दुल्ला आये दिन कश्मीरी अवाम के सुकून, विकास और कारोबार के दुश्मनों की चालों का शिकार हो रहे हैं। यहाँ तक की कुछ लोग ज़मीनी सच्चाई का विश्लेषण किये बिना उमर को अब तक का सबसे असफल शासक करार दे चुके हैं। शायद इन लोगों को डर है की कहीं उमर की आँखों में बसे सपने किसी दिन सच न हो जायें । ऐसे में मासूम लोगों की लाशों पर अपने राजनितिक मंसूबों की रोटियां सकने वालों की दुकानदारी बंद होने की नौबत भी आ सकती है।
"कश्मीर वचार" का ये नया पोस्ट कश्मीर घाटी के कल और आज के विश्लेषण पर ही आधारित है।

http://kashmir-timemachine.blogspot.com/2010/07/omar-honest-politician.html

शुक्रवार, 28 मई 2010

कारगिल युद्ध : इतिहास बदलना होगा

रिटायर्ड ब्रिगेडियर देवेंद्र सिंह को मिले इन्साफ से ये जाहिर हो गया है कि १९९९ में पाकिस्तान के साथ हुए कारगिल युध्ह का इतिहास फिर से लिखना पड़ेगा क्योंकि पूर्व लेफ्टिनेंट जनरल किशन पाल ने अपनी वर्दी पर चंद मेडल टांगने की मंशा से पुरे देश को भ्रम में रखा।
ब्रिगेडियर देवेंद्र सिंह ने बटालिक सेक्टर से सबसे पहली बार पाकिस्तानी घुसपैठ होने की आशंका व्यक्त की थी लेकिन लेफ्टिनेंट जनरल किशन पाल ने न सिर्फ उनकी चेतावनी को अनदेखा किया बल्कि लेफ्टिनेंट सौरभ कालिया और उनके साथियों के गुमशुदा होने कि बात भी सरकार से छुपाये रखी। इस कलयुगी रक्षक (जनरल किशन पाल) के झूट के कब्रिस्तान में कई ऐसे सच दफ़न है जिन्हें सुन कर न सिर्फ सर शर्म से झुक जाता है बल्कि दिल करता है कि ऐसे लोगों को कड़ी से कड़ी सजा दे कर न सिर्फ सेना और देश के सामने बल्कि पुरे विशव के सामने एक मिस्साल कायम की जानी चाहिए।
जनरल किशन पाल के झूठ की और कई दस्तानो के कच्चे चिट्ठे निचे दिये लिंक में पढ कर आप खुद ही अंदाज़ा लगाईये कि इस इंसाने के साथ क्या सलूक किया जाये??

http://kashmir-timemachine.blogspot.com/2010/05/gen-pal-should-his-head-not-hang-in_27.html

बुधवार, 12 मई 2010


“हॉउस फुल एंड बदमाश कम्पनी इज ए हिट” और जहाँ तक हम सभी जानते हैं इन फिल्मों के हिट होने में इनके हीरो -हिरोइन के इश्क की झूठी अफवाहों का कोई योगदान नहीं । दोनों ही फिल्मों में ज़रूरत के हिसाब से सटीक और कसावदार स्टोरी, डायलाग, निर्देशन और अभिनय के कमाल ने दर्शकों के दिल में कुछ ऐसा धमाल मचाया कि दोनों फिल्मों ने इस साल की सुपर-डुपर हिट फिल्मों की श्रेणी में अपना स्थान सुनिश्चित कर लिया।क्या इन फिल्मों की सफलता “लव स्टोरी २०५०”, “किस्मत कनेक्शन” जैसी फ्लॉप फिल्मों के निर्माता-निर्देशकों को सफल फिल्मों के रास्ते का सही दिशा ज्ञान दे पायेगी?? कुछ फ़िल्मकार फिल्म की रिलीज़ से पहले हीरो-हिरोइन के इश्क़ के चर्चों को hi फिल्म की सफलता मज़बूत करनेवाला एक कलपुर्जा मानते हैं.. लेकिन ये तो संभव है कि हीरो हिरोएँ के इश्क के चर्चे किसी अख़बार या पत्रिका कि साल्स बाधा दे पर करोड़ों कि लगत से बनानेवाली फिल्मों को दर्शक यूँ ही सुपर हित होता
आम जनता की जिंदगी में कोई रस नहीं है। इसीलिए वह इस तरह की अफवाहों में रुचि लेती है।
यह बीमारी हमारे यहाँ विदेशों से आई है। वहाँ भी जब कोई फिल्म बन रही होती है, तभी से प्रचार विभाग के कल्पनाकार अफवाहें उड़ाने लगते हैं। इन अफवाहों का पैटर्न यही होता है कि फलाँ हीरो, फलाँ हीरोइन के साथ अमुक जगह पर देखा गया और ज़रूर इनके बीच कुछ पक रहा है। इन अफवाहों का आधार होता है कि अमुक फिल्म में दोनों काम कर रहे हैं और वहीं सेट पर दोनों की दोस्ती हुई। आप गौर करेंगे तो पाएँगे कि फिल्म पत्रिकाओं के मुताबिक जब भी कोई हीरो, किसी हीरोइन के साथ कोई फिल्म कर रहा था, उस दौरान दोनों के बीच इश्क भी पनप रहा था। हरमन बावेजा और प्रियंका चोपड़ा को लेकर भी यही कहा गया था। shahid kapoor और प्रियंका को लेकर भी यही कहा गया। सो, प्रचार के लिए इससे सस्ता कुछ हो ही नहीं सकता। अगर किसी पत्रिका या अखबार में फिल्म का विज्ञापन देना हो तो सेंटीमीटर के हिसाब से जगह खरीदनी पड़ती है, मगर इस तरह मुफ्त में ही करोड़ों का प्रचार हो जाता है। इन अफवाहों को फैलाने के लिए एजेंसियाँ हैं और ये एजेंसियाँ उन पत्रकारों को उपकृत करती हैं, जो ऐसी अफवाहें छापते हैं या उन्हें छपवाने की व्यवस्था करते हैं।असल बात तो यह है कि "काइट्स" के सेट पर प्यार नहीं, झगड़ा चलता रहता है। वह भी निर्माता निर्देशक के बीच। हमेशा सेट पर रहने वाले फिल्म के निर्माता राकेश रोशन फिल्म के निर्देशक अनुराग बसु को सुझाव और सलाहें देते रहते हैं। पिछले दिनों फिल्म से दो गीत भी निकाल दिए। दोनों के बीच खटपट चलती ही रहती है। बसु अपने मन का काम करने के लिए आज़ादी चाहते हैं, जो राकेश रोशन देते नहीं हैं। बहरहाल, फिल्म के पोस्टर जारी हो गए हैं और पोस्टर बेहद आकर्षक हैं। देखना है "काइट" आसमान देखती है या उड़ते ही कटकर ज़मीन पर गिरती है।

हॉउस फुल एंड बदमाश कम्पनी इज हिटऔर जहाँ तक हम सभी जानते हैं इन फिल्मों को हिट करने में इन दोनों फिल्मों केलिए नायक और नायिका के इश्क कि अफवाहों नहीं उड़ानी पड़ी. दोनों ही फिल्मों में ज़रूरत के हिसाब से सटीक और कसावदार कहानी, सम्वाद, निर्देशन और अभिनय के कमाल ने दर्शकों के दिल में कुछ ऐसा धमाल मचाया कि ये फिल्में इस साल कि सुपर-डुपर हित फिल्मों कि श्रेणी में अपना स्थान सुनिश्चित कर चुकी हैं.
क्या इन फिल्मों कि सफलतालोव स्टोरी २०५०”, “किस्मत कनेक्शनजैसी फ्लॉप फिल्मों के निर्माता-निर्देशकों को सफल फिल्मों के रस्ते का दिशा ज्ञान दे पायेगी?? कुछ फ़िल्मकार फिल्म कि रिलीज़ से पहले हीरो-हिरोएँ के इश्क के चर्चों को फिल्म कि सफलता को मज़बूत करनेवाला एक कलपुर्जा मानते हैं.. लेकिन ये तो संभव है कि हीरो हिरोएँ के इश्क के चर्चे किसी अख़बार या पत्रिका कि साल्स बाधा दे पर करोड़ों कि लगत से बनानेवाली फिल्मों को दर्शक यूँ ही सुपर हित होता
आम जनता की जिंदगी में कोई रस नहीं है। इसीलिए वह इस तरह की अफवाहों में रुचि लेती है।
यह बीमारी हमारे यहाँ विदेशों से आई है। वहाँ भी जब कोई फिल्म बन रही होती है, तभी से प्रचार विभाग के कल्पनाकार अफवाहें उड़ाने लगते हैं। इन अफवाहों का पैटर्न यही होता है कि फलाँ हीरो, फलाँ हीरोइन के साथ अमुक जगह पर देखा गया और ज़रूर इनके बीच कुछ पक रहा है। इन अफवाहों का आधार होता है कि अमुक फिल्म में दोनों काम कर रहे हैं और वहीं सेट पर दोनों की दोस्ती हुई। आप गौर करेंगे तो पाएँगे कि फिल्म पत्रिकाओं के मुताबिक जब भी कोई हीरो, किसी हीरोइन के साथ कोई फिल्म कर रहा था, उस दौरान दोनों के बीच इश्क भी पनप रहा था। हरमन बावेजा और प्रियंका चोपड़ा को लेकर भी यही कहा गया था। shahid kapoor और प्रियंका को लेकर भी यही कहा गया। सो, प्रचार के लिए इससे सस्ता कुछ हो ही नहीं सकता। अगर किसी पत्रिका या अखबार में फिल्म का विज्ञापन देना हो तो सेंटीमीटर के हिसाब से जगह खरीदनी पड़ती है, मगर इस तरह मुफ्त में ही करोड़ों का प्रचार हो जाता है। इन अफवाहों को फैलाने के लिए एजेंसियाँ हैं और ये एजेंसियाँ उन पत्रकारों को उपकृत करती हैं, जो ऐसी अफवाहें छापते हैं या उन्हें छपवाने की व्यवस्था करते हैं।असल बात तो यह है कि "काइट्स" के सेट पर प्यार नहीं, झगड़ा चलता रहता है। वह भी निर्माता व निर्देशक के बीच। हमेशा सेट पर रहने वाले फिल्म के निर्माता राकेश रोशन फिल्म के निर्देशक अनुराग बसु को सुझाव और सलाहें देते रहते हैं। पिछले दिनों फिल्म से दो गीत भी निकाल दिए। दोनों के बीच खटपट चलती ही रहती है। बसु अपने मन का काम करने के लिए आज़ादी चाहते हैं, जो राकेश रोशन देते नहीं हैं। बहरहाल, फिल्म के पोस्टर जारी हो गए हैं और पोस्टर बेहद आकर्षक हैं। देखना है "काइट" आसमान देखती है या उड़ते ही कटकर ज़मीन पर आ गिरती है।

शनिवार, 8 मई 2010

तेरे पास कौन सी माँ है भाई - "मदरइंडिया" की नर्गिस या "शूटआउट" की अमृता सिंह??

..
आज मेरे पास है बंगला है, गाड़ी है, बैंक बैलेंस है, तेरे पास क्या है भाई?? हंई??
भाई, मेरे पास “माँ” है!!
फिल्म "दीवार" केलिए ये संवाद लिखते वक़्त शायद खुद जावेद अख्तर ने भी इनकी गहराई, असर और लोकप्रियता का अनुमान नहीं लगाया होगा।आज अगर कभी ये डायलाग सुनो तो पूछने का मन करता है कि “कौन सी वाली माँ है तेरे पास” ??
फिल्म "मदर इंडिया" की “नर्गिस” जिसने शादी के बाद पति के घर कदम रखते ही भविष्य के सुनहरे सपने बुनने की जगह मुसीबतों और दुखों के पहाड़ काटने शुरू कर दिये, जिसने गाँव की किसी लड़की की इज्ज़त बचाने की खातिर अपने ही हाथों अपने जवान बेटे की जान ले ली।
या फिर फिल्म "दीवार" की माँ “निरूपा रॉय”?? जिसके दो बेटों में से एक धोखे और गैर कानूनी ढंग से कमाई काली दौलत के दम पर ऐशो आराम की ज़िन्दगी जीना पसंद करता है और दूसरा तंगहाली मगर इमानदारी के रास्ते पर चलकर खुद को धन्य समझता है और वो माँ भी अपने दूसरे बेटे के साथ फटे हाल ज़िन्दगी गुज़ारना ज़यादा पसंद करती है।
या फिर हो सकता है कि ये माँ “मैंने प्यार किया” फिल्म की रीमा लागू हो जो पैसे और सामाजिक रुतबे को एहमियत देने वाले अपने पति के असूलों के खिलाफ अपने बेटे का साथ देती है, वो "माँ" जोकि सामाजिक प्रतिष्ठा से ज्यादा पारिवारिक मूल्यों को इम्पोर्टेंस देते हुए एक मध्यम वर्गीय परिवार की लड़की को अपनी बहु के रूप में इसलिए स्वीकार करती है क्योंकि वो उसके बेटे की पसंद है। ये माँ न सिर्फ अपने बेटे को उसी के पिता के खिलाफ जाके "सही" का साथ देने की हिमाकत करती है बल्कि उसे उस मध्यम वर्गीय परिवार की लड़की के स्वाभिमानी पिता द्वारा तय कसौटी पर खरा उतरने केलिए भी प्रेरित करती है। इस माँ को अपने बेटे की जीत पर भरोसा है इसलिए वो अपने खानदानी कंगन बेटे को देते हुए कहती है कि जाके ये कंगन मेरी बहु को दे देना।
ये माँ “दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे” की फरीदा जलाल भी तो हो सकती है। जो अपने पति के खिलाफ खुले आम बगावत तो नहीं कर सकती इसलिए अपनी बेटी से कहती है कि खानदान के मान-सम्मान केलिए उसे अपनी खुशियों की बलि देने कोई ज़रूरत नहीं, उसकी बेटी को हक है अपनी पसंद के लड़के केसाथ ज़िन्दगी जीने का। ये माँ अपनी ही बेटी को शादी का मंडप छोड़ के अपने प्रेमी के साथ भाग जाने को कहती है।
या ये माँ लीक से बिलकुल हटके फिल्म “शूटआउट एट लोखंडवाला” की अमृता सिंह हैं। जो अपने बेटे को ऊँगली पकड़ के जिस रास्ते पर चलना सिखाती है वो रास्ता जुर्म और गुनाह की गलियों से होते हुए फांसी के फंदे पर जाके ख़तम होता है। जो अपने उसी ही बेटे के हाथ में कलम की जगह बन्दूक पकडाती है और जब भी वो किसी बेगुनाह का खून करके घर वापिस आता है तो हर माँ की तरह वो भी अपने हाथों से हर वो चीज़ बनाती है जो उसके बेटे को खाने में पसंद है।
हिंदी फिल्म इतिहास के परदे पर समय-समय पर अवतरित होने वाली "माँ" ये विभिन्न अवतार हैं। ये वो माएं है जिनकी प्रसिद्धि और लोकप्रियता के आगे कई नामी-गिरामी हिरोइनो के लटके-झटके भरे किरदार भी पानी भरते नज़र आते हैं। हिंदी फिल्मों के सौ साला इतिहास में भारतीय दर्शकों ने हर किस्म की माँ के दर्शन किये। "माँ" इस एक शब्द की चादर ओढनेवाली अभिनेत्री का चरित्र, रूप, हालत और बोली जो भी dइकहाई जाये मगर उसके दिल में अपने बच्चे के लिए प्यार का असीम सागर कभी सूखा नहीं दिखाया जाता। और बच्चा भी हर हाल में अपनी माँ की कही बात को पत्थर की लकीर समझता है। फिल्म "मदर इंडिया" की नर्गिस से लेकर लेकर "शूट आउट एट लोखंडवाला" की अमृता सिंह द्वारा अभिनीत माँ के हर किरदार की उम्मीदों पर उसके बेटे/बेटी को खरा उतरना ही पड़ता है। फिल्मों में औरत कि छवि में फर्श से अर्श तक का बदलाव भले ही आया हो लेकिन वो औरत जैसे ही “माँ” बनती है तो उसकी छवि हिमालय जैसी झक सफेद और गंगा की माफिक पवित्र हो जाती है।
पश्चिमी फिल्मों से से कई तरह की गन्दगी से हमरी देसी फिल्में बुसी तरह प्रभावित और क्षतिग्रस्त हुयी। फिर भी अगर किसी प्रयोगात्मक कहानी का वास्ता देते हुए कोई कोई निर्माता-निर्देशक अपनी किसी फिल्म में हीरो की अधेड़/विधवा माँ को अपने प्रेमी से इश्क लड़ाते हुए दिखाने की जुर्रत कर भी ले तो हमारा दर्शक वर्ग इतनी कडवी गोली निगलने को अभी तैयार दिखाई नहीं देता। फिल्मी माँओं में बदलाव तो आया है, पर इतना नहीं कि निरूपा राय की जगह मल्लिका शेरावत या मलायका अरोड़ा ले ले।
वर्तमान फिल्मों में माँ का निरूपा राय वाला रूप तो खैर अब नहीं रहा। लेकिन फिल्मी माँओं को इतना ही आधुनिक दिखाया जाता है कि वह अपन बेटा-बेटी यानि नायक-नायिका की आधुनिकता को हंसी-ख़ुशी बर्दाश्त कर लें। मदार्स दे के अवसर पर फ़िल्मी भगवानो से येही प्रार्थना है की वो आनेवाले समय में कहानी की मांग के नाम पर कम से कम "माँ" के पावन रूप को तो ज़यादा पतित न दिखाएं।

शुक्रवार, 7 मई 2010

२६/११ - कुछ फैसले अभी बाकी हैं..

२६/११ का काला अतीत इतिहास के पन्नो में दर्ज हो चुका है। ६/०४ का दिन उसी काले अतीत को रचने वाले के भविष्य का फैसला करने केलिए इतिहास में सुनहरे अक्षरों से लिखा जा चुका है। कसाब जोकि सरहद पार से भेजा गया पार्सल था उसकी मौत तो निश्चित हो चुकी है लेकिन सरहद के भीतर बैठे उन नकाबपोशों का क्या जो इस देश की नीव को दीमक बनके खोखला कर रहे हैं?? उनकेलिए न तो कोई केस दर्ज हुआ, न ही हमें उनके गुनाहों की खबर है इसलिए उनकी सजा मुक़र्रर होने का इंतज़ार हमें हो ये सवाल ही पैदा नहीं होता।
२६/११ के दौरान शहीद हुए हमारे जांबाज़ सिपाहियों की शहादत केलिए क्या सिर्फ कसाब ही ज़िम्मेदार है?? उस काली रात के अँधेरे में और भी बहुत कुछ ऐसा घटित हुआ जिससे हम सब बेखबर हैं?? इस ब्लॉग लिंक को पढ़ कर शायद काफी सवालों के जवाब हमारे सामने खुद-बी-खुद बेपर्दा हो जायेंगे।

http://kashmir-timemachine.blogspot.com/2010/05/kasab-and-mumbai-police.html

सोमवार, 3 मई 2010

खेल ब्रेकिंग न्यूज़ का..

एक दौर था जब स्वर्गीय एस पी सिंह द्वारा संचालित कार्यक्रम "आजतक" आजकल के डेली सोप कि तरह ही लोगों कि ज़िन्दगी का हिस्सा था। उस आधे घंटे के कार्यक्रम कि ख़बरों में एक जोश, एक सच्चाई, एक निर्भयता का एहसास होता था। वो एक एस पी सिंह और एक "आजतक" मिल कर आधे घंटे तक १०० करोड़ लोगों कि नब्ज़ थाम लेते थे। जबकि आज सकड़ों टी वी पत्रकार और बीसियों आधे घंटे के न्यूज़ कार्यक्रम मिल कर भी दर्शकों का तिल भर भी विश्वास नहीं जीत पाते। कहने को हर आधे घंटे बाद चिल्ला चिल्ला कर ब्रेकिंग न्यूज़ का एलान किया जाता है पर क्या हकीकत में ब्रेकिंग न्यूज़ के नाम पर दिखाई जाने वाली हर खबर ही असली खबर होती है?? क्या है ब्रेकिंग न्यूज़ का खेल। इसका अंदाज़ा आप यहाँ नीचे दिये गए ब्लॉग लिंक को पड़ कर आप लगा सकते हैं.

http://kashmir-timemachine.blogspot.com/2010/05/tv-news.html

शुक्रवार, 2 अप्रैल 2010

आई पी एल से टक्कर तौबा तौबा..

यूँ तो हर साल फरवरी और मार्च महीना फिल्म निर्माताओं की परेशानी का सबब होते हैं। क्योंकि इन महीनो में बच्चो को परीक्षाओं के चलते बोक्स आफिस पर नई फिल्मों का आगमन शुभ नहीं माना जाता। इस समय फिल्म निर्माताओं के साथ साथ सिनेमा घरों की खिड़कियाँ भी दर्शकों के आने कि बाट जोहती रहती हैं। मगर इस बार फिल्मों के लिए ये मनहूस मौसम और भी लम्बा हो गया है क्योंकि आईपीएल मैचों के चलते अप्रैल महीने में भी भी सिनेमाघरों की गोदभराई में सिर्फ कम बजट की फिल्में या डब्ड फिल्में ही पड़ेंगी। इन छोटे बजट की फिल्मों के निर्माता अपनी फिल्में इस वक़्त इसलिए रिलीज़ कर रहे हैं क्योंकि इन दिनों किसी बड़ी फिल्म से उनकी फिल्मों की टक्कर नहीं होगी और साथ ही उन्हें कम दाम में बड़े सिनेमाघर भी मिल रहे हैं। लेकिन सिनेमा हाल में फिल्म लगने से क्या होगा अगर उनकी मुह दिखाई करने वाले दर्शक ही टिकेट खिड़की से नदारद रहे तो।हाल ही में प्रदर्शित लव, सेक्स और धोखा को छोड़ कर बाकी रिलीज़ हुई सभी फिल्मों का हश्र डरावना रहा। फिल्म ‘हम तुम और गोस्ट" जिसकी कहानी अरशद वारसी ने खुद लिखी थी उसे देखने गोस्ट दर्शकों की बिरादरी गयी हो तो कह नहीं सकते मगर हम-तुम यानि आम पब्लिक ने अरशद और दिया केलिए सिनेमाघरों की तरफ जाने की ज़हमत उठाने की बजाये घर बैठ के आईपीएल मैच देखना ज़यादा पसंद किया। यही हाल फिल्म ‘प्रेम का गेम’, ‘माय फ्रेंड गणेशा ३’, और कुछ अन्य डब्ड फिल्मों का भी हुआ। आईपीएल मैचों के चलते ये फ़िल्में अपनी लागत तक न निकल सकी।काफी अरसे बाद श्याम बेनेगल ने अपने चाहनेवालों को एक नई फिल्म ‘वेल डन अब्बा’ का तोहफा दिया। उनकी इस फिल्म से सभी को उम्मीद थी कि दर्शक और फिल्म फैनेंसर इस फिल्म कि रिलीस के बाद वैल डन श्याम बेनेगल ज़रूर कहेंगे लेकिन इस फिल्म कि झोली में सिर्फ फिल्म समीक्षकों की तारीफ ही आई। क्योंकि यह फिल्म भी दर्शकों की भीड़ देखने को तरस रही है।विक्रम भट्ट की ‘शापित’ ने दर्शकों का मनोरंजन कम और खाली सिनेमाघर के सन्नाटे कि वजह से उन्हें डराया ज्यादा। इस फिल्म के फ्लाप होने का विक्रम को तो जो नुक्सान हुआ उससे वो किसी और फिल्म में पूरा कर सकते हैं लेकिन आदित्य नारायण जिन्होंने अभिनय की दुनिया में इस फिल्म के जरिये ही शुरुआत की थी उनकेलिए ज़रूर हमारे दिल में हमदर्दी है । फिल्म ‘लाहौर’ ने भी किसी तरह एक सप्ताह ही टिकेट खिड़की पर पानी माँगा । जबकि ‘इडियट बॉक्स’ को तो कई सिनेमाघरों से दो-तीन शो के बाद ही उतार दिया। वजह? घर में लगे इडिअट बाक्स पर आ रहे आई पी एल मैच की बेड़ियाँ।फिल्मों में शत्रुघन सिन्हा के सुपुत्र लव सिन्हा की डेब्यू फिल्म "सदियाँ " और एक अदद हिट फिल्म को तरसते बिवेक ओबेराय की ‘प्रिंस’ के आलावा "तुम मिलो तो सही", "द ग्रेट इंडियन बटरफ्लाय" और अपर्णा सेन की ‘द जापानीज़ वाइफ’ भी आईपीएल की परवाह किये बगैर सिनेमा घरों में तक दर्शकों को खिंच लाने का सपना लिए अप्रैल में ही रिलीज़ होने जा रही हैं।फिल्म ‘सदियाँ’ के प्रोमो में लव सिन्हा से ज़यादा हेमा और रेखा कि जोड़ी को प्रमोट किया जा रहा है। अधिकतर पकी उम्र के लोग ही रेख-हेमा कि जोड़ी को देखने में दिलचस्पी दिखायेंगे। और ऐसे लोगों को मल्टीप्लेक्स टिकटों के रेट सुनके ही पसीना निकलने लगता है। ‘प्रिंस’ एक थ्रिलर मूवी है लेकिन आईपीएल मैचों के थ्रिल से अकेले विवेक ओबेरॉय टक्कर ज़रा छोटा मुह बड़ी बात लगती है। इस फिल्म से अगर विवेक के करियर में उछाल नहीं आया तो हो सकता है कि आगे कोई उन्हें सोलो हीरो लेकर फिल्म बनाने की हिमाकत न करे। अपर्णा सेन की ‘द जापानीज़ वाइफ’ ‍ में राहुल बोस और राइमा सेन लीड रोल में हैं। कला फिल्म के दर्शक जिन्होंने श्याम बेनेगल की उमीदों पर पानी फेर दिया वो हो सकता है कि अपर्णा सेन को खुश कर दें । फिल्म ‘जाने कहाँ से आई है’ में रितेश और जैकलीन फर्नांडिस की जोड़ी है ये फिल्म शायद शायद कुछ हद तक दर्शकों को सिनेमाघरों तक लेन में कामयाब हो जाये।और अब बात करते हैं राम गोपाल वर्मा के दुस्साहस की। रामगोपाल वर्मा की पहली ‘फूँक’ कि मार तो ही दर्शक भूले नहीं हैं ऐसे में आईपीएल के मौसम में रामू की दूसरी फूंक दर्शकों को कहीं पहले से भी ज्यादा दूर न कर दे। फिल्म ‘मुस्कुरा के देख जरा’, ‘मूसा’ और ‘अपार्टमेंट’ फिल्मों से आप कितनी उम्मीद लगा सकते हैं ये बताने की शायद ज़रूरत नहीं।फिल्मों के इस बाज़ार में शिक्षा प्रणाली कि खामियों को उजागर करती फिल्म ‘पाठशाला’ में शाहिद कपूर, आयशा टाकिया और नाना पाटेकर के साथ करीब आधा दर्ज़न नन्हे स्टार कलाकारों की फ़ौज शायद बच्चों को लुभा जाये और तब टिकेट खिड़की कि सुनी गोद एक बार फिर भर जाये।दरअसल आईपीएल एक महबूबा की तरह है जोकि साल में एक ही बार ही "डेट" पर आती है जबकि हर शुक्रवार रिलीज़ होने वाली फिल्में एक पत्नी कि तरह हैं। जोकि अगर सिनेमाघर में नहीं तो डी वी डी पर देख कर भी फिल्म लुत्फ़ उठाया जा सकता है। इसलिए आई पी एल से टक्कर तौबा तौबा।

बुधवार, 31 मार्च 2010

दिल मिला है कहाँ कहाँ तन्हा : मीना कुमारी

कहते हैं कि कोई भी इंसान मुजरिम या गुनेहगार पैदा नहीं होता। वक़्त और हालत उससे गुनेहगार बना देते हैं। लेकिन औरत की ज़िन्दगी का सच इसके बिलकुल विपरीत है क्योंकि औरत को हालत या वक़्त गुनेहगार बनाये या न बनाये लेकिन औरत का होना ही अपनेआप में एक बड़ा गुनाह बन जाता है जिसकी सज़ा कई बार उसे बचपन के पालने से लेकर मौत की आगोश में समां जाने तक भुगतनी पड़ती है। औरत किसी भी देश-काल-वर्ग का हिस्सा क्यों न हो उसका जीवन कहीं भी आसान नहीं होता। वो इस धरा खंड के किसी भी हिस्से में रहती हो दुनिया उसकी परीक्षा कहीं भी, कभी भी ले सकती है फिर वो औरत मिथिला की धरती से जन्मी भगवती सीता हो या फिर फ़िल्मी दुनिया के आकाश पे चमकता कोई रोशन सितारा।
1 अगस्त 1932 को इस दुनिया में एक ऐसे ही सितारे ने जन्म लिया जो पैदा, हुई तो उसकी रोशनी किसी ने न देखी। खुर्शीद और मधु इन दो बेटियों के बाद पैदा हुए इस सितारे को एक बोझ समझ कर यतीम आश्रम में पहुंचा दिया गया। फिर जाने क्या सोच के उस बोझ को उसके माता पिता उस यतीम खाने से वापिस घर ले आये। महज़ 7 साल के बाद उस बोझ को उसके औरत होने के गुनाह की सज़ा सुनाई गयी और वो सज़ा थी कि वो बोझ अब अकेले सारे परिवार का बोझ उठाये।
ये सितारा जिसे इसके अपनों ने एक बोझ समझा इसका नाम था महजबीं बानो उर्फ़ मीना कुमारी । महज़ 7 साल कि उम्र में महज़बीं ने पहली बार कमरे का सामना किया था। मुंबई के अँधेरी स्थित प्रकाश स्‍टूडियो में निर्देशक विजय भट्ट के लाइट्स, कैमरा, एक्‍शन बोलने के बाद जब दृश्‍य पूरा हुआ तो मानो नन्ही महज़बीं के रूप में परिवार को सोने का अंडा देने वाली मुर्गी हासिल हो गयी|  बचपन के गलियारों में स्कूल जाने की ख्वाहिश रखने वाली महजबीं एक स्टूडियो से दुसरे स्टूडियो का सफ़र तय करते करते ही महजबीं से मीना कुमारी बन गई।
"मीना कुमारी" वो रोशन सितारा जिसकी अपने ही मन के चिराग तले हमेशा अँधेरा रहा। मीना का बचपन अपनी पूरी उम्र जीने से पहले ही खत्‍म हो गया। जवानी आई लेकिन परिवार की आर्थिक जरूरतों को पूरा करने कि ज़िम्मेदारी के कारण मीना के सपने कभी उसकी जिम्मेदारियों की लक्ष्मण रेखा पार न कर सके। माँ-बाप को उसके होने की ख़ुशी तब तक नहीं हुई जब तक फिल्‍म इंडस्‍ट्री की नजर उस कोहेनूर हीरे पर नहीं पड़ी और वह परिवार की रूठी तक़दीर को मानाने का जरिया नहीं बन गई। इस सचाई को मीना भली भांति जानती थी यही वजह थी के आँसू, दर्द और अकेलेपन से मीना कुमारी की दोस्ती किशोरावस्था में ही हो गयी थी।
कच्ची उम्र में गम और अकेलेपन से दोस्ती इंसान को अक्सर गलत निर्णय लेने पर मजबूर कर देती है। अभिनय, भावनाओं और शायरी की अच्छी खासी समझ रखने वाली मीना ने भी एक गलत निर्णय लिया और अपने से १५ साल बड़े एक विवाहित पुरुष "कमाल अमरोही" जो तीन बच्चों के पिता भी थे उनसे छिपकर शादी कर ली। मगर दर्द और तन्हाई उसके सच्चे दोस्त थे उन्होंने किसी भी सूरत में उसका साथ नहीं छोड़ा। प्यार, परिवार की आस लिए कमाल की ज़िन्दगी में दाखिल हुई मीना कुमारी के अरमान बस चंद घडी के मेहमान साबित हुए। कमाल अमरोही ज्‍यादातर बाहर रहते, मगर मीना के पल-पल की खबर रखी जाती । मीना के साथ प्यार के दो बोल बोलने वाला कोई न था।
उन तमाम पलों की गवाह सिर्फ एक नौकरानी थी, जिसने करोड़ों दर्शकों के दिल की मल्लिका और अपने दौर की सबसे नामी अदाकारा को बंद दरवाजों के पीछे घुटते-तड़पते देखा था।
अपने ३० साल लम्बे फ़िल्मी जीवन में मीना कुमारी ने लगभग ९० से अधिक फिल्में की। जहाँ एक ओर आज़ाद, चिराग कहाँ रोशनी कहाँ, मैं चुप रहूंगी, आरती, दिल एक मंदिर, फूल और पत्थर और दिल अपना और प्रीत परायी फिल्मों की सफलता ने मीना का नाम अपने वक़्त की बेहतरीन अदाकाराओं में शामिल कर दिया। वहीँ दूसरी तरफ बैजू बावरा, परिणीता, काजल फिल्मों में मीना के लाजवाब अभिनय ने उनकी झोली फिल्म फेअर अवार्ड से भर दी। और गुरुदत्त निर्मित साहिब, बीवी और गुलाम मीना के कैरिअर में मील का पत्थर मानी जाती है लेकिन इस फिल्म ने मीना को प्रशंसा और फिल्म फेअर अवार्ड्स के आशीर्वाद के साथ साथ शराब के नशे का श्राप भी दिया ।
मीना कुमारी ने आज़ाद, मिस मैरी और शरारत जैसी हास्य प्रधान फिल्में भी कि लेकिन उनके द्वारा निभाए गए ग़मगीन और संजीदा किरदारों ने उन्हें "ट्रेजिडी क्वीन" के नाम से मशहूर कर दिया।
जो भी हो शराब ने मीना को मानसिक और शारीरिक दोनों तरह से कमज़ोर कर दिया। उनकी बेदाग खूबसूरती समय से पहले ढलने लगी। उनकी आखिरी फिल्मों में "दुश्मन" और "मेरे अपने" में मीना कुमारी ने एक ढलती उम्र की औरत का किरदार निभाया और प्रशंसा हासिल की।
ज़िन्दगी और मौत की देहलीज़ पर खड़ी मीना की आखिरी फिल्म "पाकीज़ा" थी। जिसे पूरा होने में १४ सालों से भी ज्यादा वक़्त लगा। कहते हैं कि इस फिल्म निर्माण के दौरान ही मीना और कमाल अमरोही में तलाक हुआ था। तलाक कि चुभन को मीना ने अपने ही अंदाज़ से कुछ यूँ बयां किया था .......
तलाक तो दे रहे हो नज़रे कहर के साथ, जवानी भी लौटा दो मेरी मेहर केसाथ
इधर फिल्म "पाकीज़ा" ने सिनेमा हाल की देहलीज़ पर कदम रखा और उधर मौत ने मीना कुमारी की देहलीज़ पार की। मीना को करीब से जानने वालों का कहना है कि आखिरी वक़्त करोड़ों दिलों की इस मल्लिका के पास सिवाय आंसुओ, टूटे सपनो और अधूरी ख्वाहिशों के कुछ भी न था। मेह्ज़बिं की ज़िन्दगी का फसना मीना कुमारी ने अपनी कलम से कुछ इस तरह बयां किया ॥
चाँद तन्हा है, आसमां तन्हा,
दिल मिला है कहाँ कहाँ तन्हा
बुझ गई आस, छुप गया तारा,
थर-थराता रहा धुआ तन्हा
ज़िन्दगी क्या इसी को कहते है
जिस्म तन्हा है, और जां तन्हा
हमसफ़र कोई ग़र मिले भी कहीं
दोनों चलते रहे यहाँ तन्हा
जलती बुझती सी रौशनी के परे,
सिमटा-सिमटा सा एक मकां तन्हा
राह देखा करेगा सदियों तक
छोड़ जायेंगें ये जहाँ तन्हा....

मंगलवार, 30 मार्च 2010

फिल्मों का बदलता स्वरुप यानि बदलते भारत की तस्वीर..

अंग्रेजी में एक कहावत है “चैज इज़ द ओनली कांस्टेंट यानि "परिवर्तन संसार का नियम है" और ये बात बदलते भारत पर इस वक़्त बिलकुल सटीक बैठती है । राजनीती में बाबा रामदेव जी का पदार्पण, स्वास्थ्य जगत में अचानक होमियोपथी, आयुर्वेदि चिकित्सा पद्दति को बढावा देने की सरकारी मुहीम, और फिल्मों में तो ये परिवर्तन इतनी तेज़ी से आ रहा है कि एक से दुसरे शुक्रवार के बीच रिलीज़ होने वाली फिल्मे मानो सदियों का फासला तय कर लेती हैं।


जैसे पकी पकाई फ़िल्मी जोड़ियों को लेकर फिल्में बनाने की जगह नयी जोड़ियों को फिट किया जा रहा है अतिथि तुम कब जाओगे में अजय देवगन और कोंकना सेन शर्मा या इश्किया में विद्या बालन और अरशद वारसी की जोड़ी इस परिक्षण का जीता जगता उदाहरण है॥ मनोरंजन के नाम पर फूहड़ता और घिसी पिटी कहानियो का दौर भी अब लगभग अपनी आखिरी सांसे ले रहा है। यही वजह है कि कॉमेडी देखने वाले दर्शकों को भी जबरन ठूँसी हुई कॉमेडी की जगह एक स्तरीय कॉमेडी देखने को मिल रही है। हालाँकि अभी भी अधिकतर फिल्म निर्माता निर्देशक रंगीनियत के चश्मे से चीजों को देखने के लालच को तिलांजल इनही दे पाए हैं लेकिन निर्माता-निर्देशको कि एक नयी पौध सिग्नल पर रहने वाले उन भिखमंगों या फिर दो पहिये कि गाड़ी से चार पहिये कि गाड़ी तक ज़िन्दगी को धकेलने कि कोशिश करनेवाली मध्यम वर्गीय परिवार की कहानी (आने वाली फिल्म दो दुनी चार) को भी बेख़ौफ़ परोसने कि हिम्मत कर रहे हैं । प्यार की कसमें खा-खाकर अपनी जान तक देने वाले आशिकों की फिल्मों से हटके वर्तमान फिल्में हसीन वादों और सपनों से भी आगे जमीनी हकीकत से रू-ब-रू कराती हैं, जहाँ जिंदगी इतनी आसान नहीं होती । लेकिन इस बदलती सोच का सारा श्रेय सिर्फ निर्माता या निर्देशको को देना उचित नहीं होगा । इस बदलते परिवेष की ज़िम्मेदारी काफी हद तक आज के युवा वर्ग को भी जाती है । पहले फिल्मों में जहाँ आलीशान बंगले और बड़ी बड़ी गाड़ियाँ हुआ करती थी वही आज कि फिल्में तंग गलियों में सिसकती ज़िन्दगी कि सच्चाई से दर्शकों को रु-बी-रु करवा रही हैं। आज का दर्शक मायाजाल से निकल कर तंग गलियों के सफर का भी खुले दिल से स्वागत करता है। तारे ज़मी पर, ३ इडिअट्स , कुर्बान, थैन्क्यू माँ जैसी फिल्मो का आगमन बदलती सोच और समाज का सन्देश देती हैं। आज कि फिल्मो और निर्देशको में सामाजिक सच दिखाने का माद्दा है। ये बदलती सोच ही बदलते वक़्त और भारत की ज़रूरत है।


लेकिन सिर्फ फिल्में ही नहीं बल्कि शिक्षा, व्यवसाय और तकनीक को भी बदलते दौर के साथ खुद को तेज़ी से बदलना होगा तभी भारत को विश्व गुरु कहलाने का गौरव हासिल होगा।

सोमवार, 29 मार्च 2010

फ़िल्मी सितारे : उनकी आस्था और विश्वास..

कलियुग में भगवान होने कि परिभाषा बदल गयी है। राजा होने के मायने बदल चुके हैं। आज भगवान वो है जिसके भाषण से राशन मिले न मिले लेकिन सोसाइटी में सत्संगी होने कि इमेज से ही लोग खुद को धन्य समझते हैं। राजा होने का अर्थ सही मायने में सरकारी गाड़ियों का काफिला, जनता कि भलाई के नाम पर मिली रकम से स्विस बैंक का भला करने से ज़यादा कुछ नहीं।
फिर भी कलियुग में एक चीज़ नहीं बदली वो है उस मालिक या ईश्वर के दरबार में हाजिरी लगाने वालों कि आस्था और विश्वास । उसके दरबार में लगने वाली लाइनों को ज़रूर वी.आई.पी या साधारण जनता के आधार पर बाँट दिया जाता है लेकिन उसके सामने खड़े होने के बाद कोई सेलेब्रिटी हो या आम इंसान दोनों के हाथ एक ही अंदाज़ में जुड़ते हैं, दोनों की ही प्रार्थना तब तक स्वीकार नहीं होती जबतक उसकी आत्मा की आवाज़ उसमें न शामिल हो॥
मायानगरी में रहने वाले सितारों के नाम से चाहे जितने मंदिर और चालीसों की रचना कर दी जाये लेकिन फ़िल्मी फलक पर चमकने वाले ये सितारे भी उस परमेश्वर के दरबार में एक साधारण इंसान की तरह ही अपने और अपनों के दुःख को सुख में बदलने की गुज़ारिश करते हैं। और ये गुज़ारिश करने केलिए इस सितारों को अपना वी आई.पी.स्टेटस भूल कर भगवान की शरण जाना पड़ता है।
समय-समय पर हुई मुलाकातों के दौरान मुझे ये पता चला की इस दुनिया के रंगीन सितारे अपनी इस चकाचौंध कर देने वाली रोशनी, प्रसिद्धि और दौलत का श्रेय उस दुनिया की किस शक्ति देते हैं??
दुर्गा माँ के परम भक्तों में अक्षय काजोल, सुष्मिता, बिपाशा नवरात्रों में देवी के दरबार में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाना नहीं भूलते। यहाँ तक कि खिलाडी अक्षय तो ज़्यादातर नमस्ते, हाय, हेलो की जगह "जय माता दी" कहना ही पसंद करते हैं।
सुष्मिता सेन जब भी कोलकाता जाती हैं तो दखिनेश्वर और कालीघाट के मंदिर जाना नहीं भूलती । अफवाहों के करीब और मीडिया से दूर रहने वाली रानी मुखर्जी ईश्वर को अपने सबसे करीब मानती हैं और जब भी मौका मिले ये मुंबई के सिद्धिविनायक मंदिर और गोरेगाँव स्थित काली मंदिर जाती हैं।
विवेक ओबरॉय और विद्या बालन की सफलता, अभिनय में तो कोई समानता नहीं लेकिन इनकी धार्मिक आस्था और विश्वास ज़रूर एक सामान हैं क्योकि दोनों को ही शिर्डी के साँईंबाबा में अटूट श्रद्धा है। तिरुपति बाला जी और श्री सिद्धिविनायक बच्चन परिवार की आस्था का केंद्र हैं। ड्रीम गर्ल हेमा मालिनी और उनकी दोनों बेटियां की आस्था श्री कृष्ण चरणों में समर्पित है। संजय दत्त ने चाहे पत्नी कितनी भी बदली हों लेकिन माँ भगवती के प्रति उनकी आस्था औरश्रद्धा कभी नहीं बदली।
तुषार कपूर अपने भक्तिभाव को जग जाहिर करने में ज्यादा विश्वास नहीं करते बस घर में अगर हवन-पूजा हो तो उसमें हाजिरी लगा के वो ईश्वर के दरबार में अपनी इच्छाओं की लिस्ट पेश कर देते हैं। लेकिन ऐसा नहीं है के उन्हें भगवन में विश्वास नहीं बस वो अपने और भगवन के इस रिश्ते को अपनी बहन एकता की तरह जग जाहिर नहीं करते।
तो कुल मिला के नतीजा ये है के इस दुनिया के सितारे भी हमारी ही तरह सूख-दुःख की आंधियों से परेशां होते हैं। उन्हें भी एक आम इंसान की तरह मुश्किल की घडी में एक अदृश्य शक्ति की ज़रूरत महसूस होती है। लोगों कि दीवानगी चाहे इन्हें फलक के सितारे से ज़यादा रोशन और ताकतवर समझके इनकी पूजा, आराधना करना शुरू कर दे लेकिन सच येही है कि आखिर हैं तो ये भी इंसान ही।

मंगलवार, 5 जनवरी 2010

है कोई इनका वारिस ??

चारों तरफ़ मंदी की मार का शोर है॥ हर कोई परेशान है कि आखिर नौकरियां गई कहाँ॥ मगर मुझे ये सोच के ताज्जुब हो रहा है कि हिन्दी फ़िल्म इंडस्ट्री में आज भी कई पोस्ट सालों से खाली हैं जिनका कोई भी उम्मीदवार नहीं हैं॥ सोच के देखिये कि हर दूसरी फ़िल्म में पुलिस इंसपेक्टर का किरदार निभाने वाले कलाकार की कुरसी जोकि जगदीश राज के निधन के बाद खाली हो गई थी क्या आजतक उसका कोई दावेदार हमारी इंडस्ट्री में पैदा हुआ?? डांसिंग क्वीन हेलन के बाद आज कौन है जो "मोनिका ओ माय डार्लिंग" कि धुन पर बेपरवाह थिरक सके?? और अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा को जीता कर विश्व इतिहास रचेयता का श्रेय पाने वाले महावीर बजरंगबली कि भूमिका को अपने ही एक अलग शाही पंजाबी अंदाज़ में निभाने वाले दारा सिंह की पदवी का भी कोई वारिस दूर-दूर तक दिखाई नही देता॥ खैर जिन लोगों के नाम मैंने लिए उनसे आप सभी परिचित हो ये ज़रूरी नही है॥ तो चलिए इन सभी को ज़रा करीब से जानने कि कोशिश करते हैं हो सकता है मेरी इस कोशिश के बाद कोई इस और ध्यान दे और शायद इनकी जगह लेने का सपना किसी के मन में जागने लगे॥

तो लेडीज़ फर्स्ट के नियम कि अवहेलना न करते हुए शुरुआत करते हैं ५०, ६० और ७० के दशक में हिन्दी फ़िल्म के दर्शकों को अपना नाम "चिन चिन चुंग" बता कर सबका मन मोहने वाली हेलन रिचर्ड्सन से॥ जिन्हें हम सब सिर्फ़ हेलन के

नाम से ही जानते हैं॥ यूँ तो हिन्दी फिल्मों में हेलन का नाम बतोर खलनायिका, सह-अभिनेत्री और मुख्य अभिनेत्री यानि हर रूप में हम देखते आए हैं मगर हेलन को आज भी हिन्दी फिल्मों की सबसे ज़्यादा मशहूर आइटम ग


हेलन के बाद
र्ल के रूप में ही याद किया जाता है॥ क्योंकि करीब ३०० फिल्मों में अपनी बेहतरीन अदाकारी का जादू चलने वाली हेलन ने ६५ से भी ज़्यादा फिल्मों में सिर्फ़ और सिर्फ़ आइटम सोंग के लिए ही अपनी मुह दिखाई की थी॥

मुझे याद आ रही है मुंबई पुलिस की॥ ६० व् ७० के दशक में अगर किसी हिन्दी फ़िल्म में पुलिस ऑफिसर का किरदार निभाने कि बात आती तो उसके लिए स्क्रीन टेस्ट या या ज़्यादा सोच-विचार करने कि शायद ही नोबत आती होगी क्योंकि इस भूमिका को बार -बार निभाते हुए जगदीश राज इस कदर टाइप हो चुके थे कि शायद उन्होंने भी किसी फ़िल्म का ऑफर आने पर ये पूछना छोड़ दिया होगा की फ़िल्म में उनका किरदार क्या है?? यही वजह है कि करीब २३६ फिल्मों में से १४४ बार जगदीश राज सिर्फ़ पुलिस इंसपेक्टर कि भूमिका में ही दिखाई दिए॥ जोकि अपने आप में एक विश्व रिकॉर्ड है॥

और अब बात करते हैं पंजाब दे पुत्तर रुस्तम-ऐ-हिंद दारा सिंह की॥ दारा सिंह जिनका नाम सुनते ही फ़िल्म और टेलीविजन पर उनके द्वारा साकार पवन पुत्र हनुमान का किरदार अपनेआप ज़हन में घूमने है॥ और शायद ये कहना ग़लत नही होगा कि दारा सिंह का नाम अब फिल्मी हनुमान जी के किरदार का प्रयाय्वाची बन चुका है॥ हालाँकि उनकी इस पदवी पर उनके सुपुत्र विदु ने कुछ वर्षों पहले अपनी

दावेदारी साबित करने कि कोशिश कि थी मगर पिता की लोकप्रियता के सामने बेटे की छवि का कद्द बोना साबित हुआ॥ दारा सिंह ने अबतक तक़रीबन १२० से भी ज़्यादा फिल्मों में अपनी अदाकारी का योगदान दिया है पर उनका सबसे बड़ा योगदान रहा धार्मिक हिन्दी फिल्मों में निभाई उनकी अलग-अलग भूमिकाएं॥ गौरतलब है कि अपने अब तक के अभिनय सफर में वह ५ बार बजरंगबली, 4 बार भीम, ३ बार भगवन शिव और एक बार भीम पुत्र घटोत्कच का किरदार निभा चुके हैं॥ मगर आज भी बजरंगबली के फिल्मी अवतार का नाम आते ही दारा सिंह ही हनुमान रूप दिखाई देने लगते हैं॥

ये जीतनी भी खाली पोस्ट के बारे में मैंने आपको जानकारी दी है इनके शहंशाहों ने वर्षों पहले ही अपने सिंघासन को खाली कर नई पीढी को उस पर विराजने का निमंत्रण दे दिया॥ मगर आज इतने सालों के बाद भी उस सिंघासन पर बैठना तो दूर कोई उस पायदान की पहली सीडी पर भी पाँव नही रख सका है॥ जो भी हो मुझे नही लगता इन खाली पड़े सिंघासनों को कभी कोई वारिस मिलेगा॥

शुक्रवार, 1 जनवरी 2010

मायावती का ब्राहमण प्रेम..

बात तब की है जब मुझे मीडिया में कदम रखे कुछ महीने ही हुए थे॥ मौका मिला सुश्री मायावती से नई दिल्ली स्थित उनके सरकारी आवास पर उनसे रु-ब-रु होने का॥

खुदको दलित और गरीबों की मसीहा कहने वाली, ५० करोड़ से ज़्यादा की सम्पति की मालकिन, पेशे से एक अध्यापिका रह चुकी बहुजन समाजवादी पार्टी की अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश की वर्तमान मुख्यमंत्री मायावती ने निर्धारित समय से महज़ १५ मिनट की देरी से आगमन किया॥ मगर माया का परिवर्तित रूप देखकर मैं चौंक गई॥ क्योंकि अभी कल तक तो उनके शातिर दिमाग के पीछे एक घोड़े की पूंछ हुआ करती थी (माफ़ कीजिये अंग्रेज़ी में "पोनी टेल" कहते हैं तो उसका हिन्दी अनुवाद घोडे कि पूंछ ही मुझे समझ आया) ॥ मगर उस दिन मैदान साफ़ था और पूंछ नदारद थी॥ पूछने पर पता चला की मैडम अपनी बहनजी वाली छवि से छुटकारा पाना चाहती थीं॥

माया की ये मंशा जान कर मेरे मन में एक ही विचार आया कि "दिल बहलाने को ग़ालिब ख्याल अच्छा" है॥ हमारी बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ या ब्राह्मन समाज और ऋषि मन्नू से माया को अपना कोई पुराना बैर याद आया ये बात आजतक मेरी समझ में नहीआई ॥ मेरे हर सवाल के जवाब में सिर्फ़ और सिर्फ़ ब्राहमणों और मन्नू वादी विचारों के परखचे उडाये जा रहे थे॥ जीतनी सभ्य गालियाँ मेरे शब्कोष में उस समय थीं उन् सबकी सरहद के उस पार माया बहुत ऊँचे दर्जे की गालियों का उपयोग कर रही थी॥ और ये उस इंटरव्यू का हश्र था जोकि महिला सशक्तिकरण के विषय पर माया के विचार जानने के उद्देश्य से लिया जा रहा था॥ मतलब कि राजनीति या किसी विवाद में उलझाने का न तो मेरा विचार था और न ही मैंने ऐसा कोई सवाल माया से पूछा॥ पर माया कि जुबान कैंची की चाल और सांप के ज़हर दोनों को पछाड़ रही थी॥ मेरा सवाल चाहे माया की शिक्षा के बारे में हो या उसकी परवरिश, माता-पिता और नाते-रिश्तेदारों के बारे में मेरे हर सवाल कि चक्की में माया सिर्फ़ ब्राहमणों और मन्नू महाराज को ही पीसने पर आमादा थी॥ उस वक्त मुझे लगा की शायद मन्नू महाराज ने जलमगन हो रही पृथ्वी के जीवों को बचाने के लिए ईश्वर द्वारा भेजी गई नाव में माया को बैठाने से इनकार कर दिया होगा॥ वरना इतनी दुश्मनी तो १७ बार पृथ्वीराज चौहान से शिकस्त खाने वाले मोहम्मद गोरि ने भी पृथ्वी राज चौहान से नहीं की होगी और न ही अंग्रेजों का नाम सुन के सवतंत्रता सेनानियों का लहू इस कदर खौलता होगा जिस तरह माया की धमनियों में बहता लहू प्रलय मचाने पर उतारू था॥ बस गुस्से के मारे तांडव करना बाकि रह गया था॥

जैसे तैसे कर मैंने मन ही मन राम का नाम लेते हुए वो इंटरव्यू पुरा किया॥ और माया से चलने की इजाज़त मांगी॥ तब शायद मैडम को ख्याल आया कि इस इंटरव्यू के पब्लिश होने की तारीख जानने के लिए उन्हें मेरा नाम और टेलीफोन नंबर लिख्वाके रख लेना चाहिए॥ इसलिए मुझसे मेरा नाम एक बार फिर पूछा गया॥ पहली बार परिचय देते वक्त मैंने अपने नाम के साथ उपनाम यानि सर नेम का इस्तेमाल नही किया था वरना ये इंटरव्यू इतना मज़ेदार न रहता॥ मगर इस बार मैंने माया के सामने उसके दिमाग के आँगन में घुस कर बम्ब ब्लास्ट किया और अपना नाम अपने सर नेम के साथ बताया॥ जिसे सुन कर माया सन्न रह गई॥ उसकी समझ में आ चुका था की मैं एक ब्राह्मन परिवार से हूँ॥ और ऊपर से एक पत्रकार जिसने अभी अभी मायावाणी से प्रसारित कार्यक्रम "ब्राहमणों की ऐसी तैसी" का सीधा प्रसारण न सिर्फ़ सुना बल्कि देखा भी ॥ पत्रकार और ब्राह्मन ये कॉम्बिनेशन माया को हज़म नही हो रहा था क्योंकि उसके चेहरे की हवाइयां चारों तरफ़ उड़ान भरती साफ़ दिखाई दे रही थी॥

अचानक माया ने अपनी माया दिखाई ख़ुद को संभाला और न चाहते हुए भी अपनी कुर्सी को कुछ पल के छोड़ वो खड़ी हुईं और मुझे गले से लगाते हुए बोली बड़ा अच्छा लगा आपसे महिला सशक्तिकरण के मुद्दे पर बात करके॥ महिला समाज को आप जैसी जुझारू युवाओं की इस समय ज़रूरत है तभी महिलाओं का उद्दार होगा॥ और आप बिना चाय नाश्ता किए कैसे जा सकती हैं?? चलिए आपके बहाने मैं भी कुछ खा लुंगी॥ वरना समाज सेवा में कहाँ वक्त मिलता है कुछ खाने-पिने का..
अब माया ने अपनी जुबान के टेप रिकार्डर का टेप बदला और उसमें ब्राह्मन प्रेम के भजन बजाने शुरू किए॥ अरे मुझे पैदा ज़रूर एक दलित माँ ने किया है मगर मैं पली बड़ी एक ब्राह्मन परिवार में थी ॥ दिल्ली के इन्द्रपुरी इलाके में जहाँ हम रहते थे वहां हमारे ज्यादातर पड़ोसी ब्राह्मन ही थे॥ और सबसे अच्छे पड़ोसी जो की एक उच्च दर्जे के ब्राह्मन थे उन्ही के यहाँ मेरा ज़यादा वक्त गुज़रता था॥ ज़िन्दगी में पढ़ लिख कर कुछ बनने के लिए उस ब्राह्मन परिवार ने ही मुझे प्रेरित किया॥ और ऐसे ही न जाने कितने और ब्राहमण प्रेम के किस्से मैंने माया की उसी ज़ुबान से सुने जो कुछ क्षण पहले ब्राहमणों को इस धरती का बोझ, कलंक जैसे शब्दों का हार पहना चुकी थी॥
जो भी हो माया ने अपने नाम को सार्थक कर दिखाया और मैं ये सोच रही थी की हमने अपने देश और समाज के कर्णधारों का नाम पहले लीडर रखा फ़िर राजनेता, अब सिर्फ़ नेता के नाम से उन्हें संबोधित करते हैं पर अब उन्हें एक नए नाम की ज़रूरत है "गिरगिट"॥