मंगलवार, 30 मार्च 2010

फिल्मों का बदलता स्वरुप यानि बदलते भारत की तस्वीर..

अंग्रेजी में एक कहावत है “चैज इज़ द ओनली कांस्टेंट यानि "परिवर्तन संसार का नियम है" और ये बात बदलते भारत पर इस वक़्त बिलकुल सटीक बैठती है । राजनीती में बाबा रामदेव जी का पदार्पण, स्वास्थ्य जगत में अचानक होमियोपथी, आयुर्वेदि चिकित्सा पद्दति को बढावा देने की सरकारी मुहीम, और फिल्मों में तो ये परिवर्तन इतनी तेज़ी से आ रहा है कि एक से दुसरे शुक्रवार के बीच रिलीज़ होने वाली फिल्मे मानो सदियों का फासला तय कर लेती हैं।


जैसे पकी पकाई फ़िल्मी जोड़ियों को लेकर फिल्में बनाने की जगह नयी जोड़ियों को फिट किया जा रहा है अतिथि तुम कब जाओगे में अजय देवगन और कोंकना सेन शर्मा या इश्किया में विद्या बालन और अरशद वारसी की जोड़ी इस परिक्षण का जीता जगता उदाहरण है॥ मनोरंजन के नाम पर फूहड़ता और घिसी पिटी कहानियो का दौर भी अब लगभग अपनी आखिरी सांसे ले रहा है। यही वजह है कि कॉमेडी देखने वाले दर्शकों को भी जबरन ठूँसी हुई कॉमेडी की जगह एक स्तरीय कॉमेडी देखने को मिल रही है। हालाँकि अभी भी अधिकतर फिल्म निर्माता निर्देशक रंगीनियत के चश्मे से चीजों को देखने के लालच को तिलांजल इनही दे पाए हैं लेकिन निर्माता-निर्देशको कि एक नयी पौध सिग्नल पर रहने वाले उन भिखमंगों या फिर दो पहिये कि गाड़ी से चार पहिये कि गाड़ी तक ज़िन्दगी को धकेलने कि कोशिश करनेवाली मध्यम वर्गीय परिवार की कहानी (आने वाली फिल्म दो दुनी चार) को भी बेख़ौफ़ परोसने कि हिम्मत कर रहे हैं । प्यार की कसमें खा-खाकर अपनी जान तक देने वाले आशिकों की फिल्मों से हटके वर्तमान फिल्में हसीन वादों और सपनों से भी आगे जमीनी हकीकत से रू-ब-रू कराती हैं, जहाँ जिंदगी इतनी आसान नहीं होती । लेकिन इस बदलती सोच का सारा श्रेय सिर्फ निर्माता या निर्देशको को देना उचित नहीं होगा । इस बदलते परिवेष की ज़िम्मेदारी काफी हद तक आज के युवा वर्ग को भी जाती है । पहले फिल्मों में जहाँ आलीशान बंगले और बड़ी बड़ी गाड़ियाँ हुआ करती थी वही आज कि फिल्में तंग गलियों में सिसकती ज़िन्दगी कि सच्चाई से दर्शकों को रु-बी-रु करवा रही हैं। आज का दर्शक मायाजाल से निकल कर तंग गलियों के सफर का भी खुले दिल से स्वागत करता है। तारे ज़मी पर, ३ इडिअट्स , कुर्बान, थैन्क्यू माँ जैसी फिल्मो का आगमन बदलती सोच और समाज का सन्देश देती हैं। आज कि फिल्मो और निर्देशको में सामाजिक सच दिखाने का माद्दा है। ये बदलती सोच ही बदलते वक़्त और भारत की ज़रूरत है।


लेकिन सिर्फ फिल्में ही नहीं बल्कि शिक्षा, व्यवसाय और तकनीक को भी बदलते दौर के साथ खुद को तेज़ी से बदलना होगा तभी भारत को विश्व गुरु कहलाने का गौरव हासिल होगा।

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