गुरुवार, 25 अगस्त 2016

अपने बच्चों को जहन्नुम क्यों भेजना चाहते हैं कश्मीर के अलगाववादी?

कश्मीर एक बार फिर जल रहा है मगर देखा जाये तो धरती का ये स्वर्ग सन 47 से ही जल रहा है फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि इस बार आतंकी बुरहान वानी की मौत के बाद कश्मीर धधकने लगा है| हालाँकि कुछ कश्मीरी ऐसे हैं जो इन अलगाववादी नेताओं के एक इशारे पर सड़कों पर उतर आते हैं लेकिन अधिकतर कश्मीरी इन अलगाववादी नेताओं द्वारा जारी कैलेंडर को मानने के लिये मज़बूर हैं|

ये अलगाववादी नेता कश्मीरी जनता (अधिकतर बेरोज़गार युवा जो अच्छे-बुरे को समझने के मामले में अभी अनुभवहीन है) को बेवकूफ़ बनाने के लिये कहते हैं कि हम आज़ादी की लड़ाई लड़ रहे हैं, इसमें मारे जाने वालों को जन्नत नसीब होगी. और बदकिस्मती से इन मतलबपरस्त नेताओं के कहने में आकार कश्मीरी आवाम शहर बंद कर देते हैपत्थर बरसाने लगता है जबकि तस्वीर का दूसरा पहलु यह है कि इन अलगाववादियों के अपने बच्चे और नाते-रिश्तेदार कोई भी कश्मीर में नहीं विदेशों में रहते हैं और वो भी तमाम सुख-सुविधाओं के साथ| इनमें से कुछ एक के परिवार मलेशियाब्रिटेन, कनाडा और अमेरिका में हैं तो कुछ के बच्चे दिल्लीमुम्बई या बेंगलुरु में रहकर या तो ऊँची तालीम हासिल कर रहे हैं या फिर किसी अच्छी नौकरी में सेटल्ड हैंअगर कश्मीर आ खून-ख़राबा आज़ादी की लड़ाई है तो ये अलगाववादी अपने बच्चों को इस नेक काम में आगे क्यों नहीं खड़ा करते| ये बात तो पक्की है कि शिक्षा, नौकरी यहाँ तक कि बस या ट्रेन में ये अलगाववादी नेता किसी ज़रूरतमन्द कश्मीरी को अपनी सीट नहीं देंगे फिर जन्नत की बुकिंग करते समय ये अपनों के लिये वहाँ पहले रिज़र्ववेशन क्यों नहीं करवाते, दूसरों के बच्चों को बन्दूक उठाने के लिये क्यों उकसाते हैं?
जैसे ही अलगाववादी नेताओं के बच्चे होश सँभालते हैं तू ये लोग उन्हें कश्मीर से बाहर भेज देते हैं| न तो कभी इनके बच्चे किसी प्रदर्शन में शामिल होते दिखाई देते हैं और न ही पथराव करने वालों की भीड़ का हिस्सा बनते हैं और न ही इनके आतंक के रास्ते पर चलने की शिक्षा दी जाती है| वर्ष 20082010 के दंगों में भी कुछ ऐसा ही मंज़र देखने में आया था और इस बार भी इन अलगाववादी नेताओं के बच्चे-रिश्तेदार अख़बार में छप रही तस्वीरों और सुर्ख़ियों से नदारद हैं| कई बार तो ऐसा भी देखने में आया है कि इन नेताओं के बच्चे उस दौरान कश्मीर में आए लेकिन उन्हें फ़ौरन वापस भेज दिया गया| अब सवाल  ये उठता है कि आखिर अपने बच्चों को इस जिहाद में शामिल क्यों नहीं करते ये मतलबपरस्ततो क्या अपने बच्चों को जहन्नुम भेजना चाहते हैं ये अलगाववादी? इन सवालों के जवाब कश्मीरी अवाम को ही ढूंढने होंगे वरना कश्मीर ऊपर की जन्नत का तो पता नहीं लेकिन धरती की जन्नत "कश्मीर" के नाम पर सरे ऐश-ओ-आराम और सुख ये अलगाववादी और इनके बच्चे भोगते रहेंगे और कश्मीर की अवाम को मिलेगी तो सिर्फ़ ग़रीबी, भुखमरी और एक खोखला और झूठा आश्वासन कि मरने के बाद ख़ुदा तुम्हारे बच्चों को जन्नत अता फरमाएंगे

गुरुवार, 18 अगस्त 2016

ओल्ड-बोल्ड and ब्यूटीफुल...


हिंदी फिल्मों में सबसे बोल्ड एंड ब्यूटीफुल हिरोइन्स की अगर लिस्ट बनायीं जाये तो उस लिस्ट में आप सबसे पहले किसका नाम लिखेंगे? सन्नी लिओनी को अगर एक तरफ रख कर सोचें तो "डर्टी पिक्चर" की खुबसूरत विद्या बालन का या फिर बोंगशैल बिपाशा बासु का या हो सकता है कि आप इस लिस्ट की शुरुआत हरियाणवी बाला मल्लिका शेरावत के नाम से करें. लेकिन फिल्मों के इतिहासकरों को अगर ये लिस्ट बनानी पड़े तो वो इस लिस्ट की शुरुआत हिंदी फिल्मों की सबसे पहली बोल्डबेबाकबिंदास हीरोइन देविका रानी के नामसे करेंगे. नोबल पुरस्कार से सम्मानित कविश्री रविन्द्रनाथ टैगोर की भतीजी देविका अपने युग से कहीं आगे की सोच रखने वाली एक्टर थीं. हिंदी फिल्मों की पहली स्वप्न सुंदरी और ड्रैगन लेडी कहलाने वाली देविका ने 1933 में बनी फिल्म कर्मा” में कीसिंग” सीन देकर जैसे ज़माने की नीव हिला के रख दी थीये वो दौर था जिस जब भारत की महिलायें घर की चारदीवारी के भीतर भी घूंघट में मुँह छुपाये रहती थीं.पद्मश्री और दादा साहेब फाल्के अवार्डधारी देविका और उनके पति हिमांशु राय के बीच फिल्माए गए इस चार मिनट लंबे किसिंग सीन को आज भी इन्डियन फिल्म हिस्ट्री में सबसे लंबे कीसिंग सीन का दर्जा हासिल है।


देविका की देखा-देखी ट्रेजेडी-क्वीनमीनाकुमारी ने भी फिल्म फुटपाथमें उस ज़माने के हिसाब से काफी बोल्ड सीन दिए, उसके बाद फिल्म आवारामें नर्गिस, "दिल्ली का ठग" में नूतनफिल्म "अपराध" में मुमताज़ और "एन इवेनिंग इन पेरिस" में शर्मीला टैगोर ने टू-पीस बिकनी की मशाल जला के ना जाने कितने महिला मुक्ति मोर्चे वालों की नींद हराम कर दी थी. ये उस दौर की नारियों का दुस्साहस था जब फिल्मों में हीरोइन का काम किसी डेली सोप्स की फीमेल प्रोटेगोनिसट की तरह ६ गज़ लंबी साड़ी के पल्लू से आंसू पोंछने से ज़्यादा कुछ नहीं होता था.
लेकिन आज रील और रियल लाइफ दोनों जगह हालत बदल चुके हैं. आज जबकि रियल लाइफ में भी लड़कियों का फिज़िकल एक्स्पोज़रस्टेटस सिम्बल या मोर्डनिज्म का सीनोंनीम बन चुका है तो ऐसे में फ़िल्मी अप्सराओं का कम कपड़ों में दिखाई देने पर ना तो किसी महिला मुक्ति मोर्चे के पेट में दर्द होता है और ना ही फिल्म क्रिटिक ही अब इस बात पर कोई खास तवज्जो देते हैं. लेकिन इन बदले हालत में नई पौध की हीरोइनो के सामने सबसे बड़ी चुनौती है रातों रात लोकप्रिय बनाने का कोई खासा-म्-खास फोर्मुला ढूंडना. क्योंकि अगर लोकप्रियता हासिल करने के सपने को महज़ एक्टिंग और टेलेंट के भरोसे छोड़ा गाया तो एक ना एक दिन खुद को यही समझाना पड़ेगा कि बालिके ना नौ मन तेल होगा और ना राधा नाचेगी”.