शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2013

फ़िल्म इंडस्ट्री, प्रोफ़ेशनलिज़्म और आशुतोष गोवारिकर..

फ़िल्म इंडस्ट्री में ख़ुद को "प्रोफ़ेशनलिज़्म" के इकलौते जन्मदाता माननेवाले लोगों की कमी नही है॥ इन लोगो को अपने किसी खास रवैये की वजह से यह ग़लतफ़हमी होती है या यूँही "ज़रा हटके" जुमले का इस्तेमाल करने को लालायित ये लोग अपनेआप ही अपने माथे पर "प्रोफ़ेशनलिज़्म" की पट्टी बाँध लेते हैं, ये बात आजतक मुझे समझ नही आई॥
बातों के व्यूह जाल में न फंसते हुए असली घटना की चर्चा करते हैं॥ बात तबकी है जब मैं बीबीसी केलिए एक कार्यक्रम बना रही थी॥ कार्यक्रम का नाम था "बॉलीवुड इंक", यह प्रोग्राम हिन्दी फ़िल्म इंडस्ट्री के इतिहास, वर्तमान और उसके व्यावसायिक पहलुओं पर रोशनी डालता था। इंडस्ट्री के अलग-अलग डिपार्ट्मेंट्स जैसे फ़िल्म निर्माण, निर्देशन, फ़ाइनान्स, सैट डिसाइनिंग, कास्टयुम डिसाइनिंग आदि में आए बदलाव पर भी हम इस कार्यक्रम में बात करते थे॥ फ़िल्म इंडस्ट्री से जुडा कोई कार्यक्रम हो तो ज़ाहिर सी बात है की फ़िल्म निर्माता, निर्देशक और कलाकारों से मुलाकात और उनके दृष्टिकोण से दर्शकों को रु-ब-रु करवाना कार्यक्रम का एक अहम् हिस्सा होता है॥
आगे बढ़ने से पहले एक बात ख़ास तौर पर में कहना चाहूंगी कि "बॉलीवुड" इस नाम का इस्तेमाल करने से इंडस्ट्री में कई लोगों को परहेज़ है॥ और मैं ख़ुद उसी वर्ग विशेष का ही हिस्सा हूँ॥ जिन्हें लगता है कि हर चीज़ मे अंग्रेजों की नक़ल या उनकी सोच कि गुलामी अच्छी नही॥ "हॉलीवुड की तर्ज़ पर" अपनी इंडस्ट्री का नाम "बॉलीवुड" रखना हम लोगों को शर्मनाक लगता है॥ इस मामले में अमिताभ बच्चन सबसे आगे हैं, बच्चन साहब कभी भी "बॉलीवुड" शब्द का इस्तेमाल नही करते और ना ही ऐसी किसी किताब, कार्यक्रम या प्रोजेक्ट में इंटरव्यू देते हैं जहाँ हिन्दी फ़िल्म इंडस्ट्री को बॉलीवुड कह कर संबोधित किया जाए॥
खैर वो बच्चन साहब हैं कुछ भी करने या न करने का निर्णय ले सकते हैं॥ मगर हम लोग कई दफा न चाहते हुए भी हालत या "प्रोफ़ेशनलिज़्म" की चक्की में पिस जाते हैं॥ जिसका सबसे जीवंत उदाहरण है की मैं ख़ुद "बॉलीवुड" नाम के इस्तेमाल से परहेज़ करती हूँ मगर मैं इस कार्यक्रम का एक अहम् हिस्सा थी॥
इस कार्यक्रम के दौरान कई नामी-गिरामी फिल्मी हस्तियों से मिलने और उनके विचार जानने का मौका मुझे मिला॥ फ़िल्म निर्माण के विभिन्न पहलुओं के बारे में कई बारीकियाँ भी जानने और समझने को मिली॥
मगर इस सब के दौरान एक ऐसी घटना घटित हुयी जिसने इस चमकते आसमान के पीछे के अंधेरे से एक बार फ़िर मेरा परिचय करवाया॥ फ़िल्म निर्देशन के क्षेत्र में आए बदलाव के बारे में किसी सफल और मशहूर निर्देशक का इंटरव्यू मुझे करना था॥ गोवारिकर साहब को मैंने फ़ोन पर अपने कार्यक्रम के बारे में बताया और उनसे इंटरव्यू का टाइम निर्धारित किया॥
समय पर हम लोग आशुतोष के दफ्तर पहुँच गए और कैमरा टीम ने अपना काम शुरू कर दिया॥ समय का सदुपयोग करने के लिहाज़ से मैं और मेरे कार्यक्रम की निर्देशिका हम दोनों आशुतोष को अपने कार्यक्रम के बारे में विस्तार से बताने में व्यस्त हो गए॥
सब कुछ ठीक ठाक था॥ और कैमरा सैट होते ही आशुतोष ने माइक लगाया और अपनी जगह पर विराजमान हुए॥ कि अचानक उन्हें ख्याल आया की इस कार्यक्रम का नाम तो "बॉलीवुड इंक" है॥ और वो कैसे किसी ऐसे कार्यक्रम का हिस्सा बन सकते हैं जिसमें हिन्दी फ़िल्म इंडस्ट्री को "बॉलीवुड" कह कर संबोधित किया जा रहा हो??
बस फ़िर क्या था आशुतोष ने हमसे कुछ पल की इजाज़त मांगी और उसके बाद हमें अपने निर्णय से अवगत करवाया की वो इस कार्यक्रम में हिस्सा नही लेंगे॥ या तो कार्यक्रम का नाम बदला जाए और या उन्हें इसमें बोलने के लिए मजबूर न किया जाए॥ ऐसे में आधा दर्जन लोगों की टीम कैमरा, लाइट और बाकी साजो-सम्मान के साथ वहां आशुतोष के दफ्तर में खड़ी ख़ुद को आला दर्जे का बेवकूफ महसूस कर रही थी॥ इस परिस्थिति का सामना करना मेरे लिए सबसे ज़्यादा कठिन था क्योंकि मैंने ही आशुतोष से बात करके उन्हें अपने कार्यक्रम और उसके विषय के बारे में अवगत करवाया था॥ काफी कोशिश की गई आशुतोष को यह समझाने की कि इस यूँ आखिरी मौके पे उनका इनकार हमारे लिये कई मुसीबतें खड़ी कर देगा॥ मगर फ़िल्म इंडस्ट्री में "प्रोफ़ेशनलिज़्म" का ढोल पीटने वालों में अग्रणीय आसुतोष अपने इरादों से टस से मस नही हुए॥ मगर जैसा कि हमारी इंडस्ट्री में एक प्रसिद्द कहावत है कि "द शो मस्ट गो ऑन".. और वो शो भी बना बस फर्क सिर्फ़ इतना था कि कुछ बड़ी मुश्किलों का सामना करने के बाद उस कार्यक्रम में आशुतोष कि जगह परिणीता फ़िल्म के निर्देशक प्रदीप सरकार ने फ़िल्म निर्माण के विभिन्न पहलुओं पर रोशनी डाली। और दर्शकों को मनोरंजक तरीके से कुछ ज्ञानवर्धक बातें बताने की हमारी कोशिश पुरी तरह कामयाब रही॥

कवियों की "लक्ष्मी आराधना"..

टेलीविजन केलिए काम करते हुए कई बार अजीबोगरीब किस्से देखने को मिलते हैं। जो हैरान भी करते हैं और कभी कभी परेशान भी। ऐसा ही हैरान-परेशान करने वाला एक वाक्या मुझे देखने को मिला जब मैं एक रियैलिटी शो के लिए काम कर रही थी। इस शो पर खेलने वाले के सामने जीत का लक्ष्य था पूरे १ करोड़ रुपये जिसे पाने केलिए दिमाग की नही किस्मत और तुक्के की ज़रूरत पड़ती थी। यानि कोई सवाल जवाब नही बस कुछ डिब्बे ये ध्यान में रखते हुए खोलो की १ करोड़ वाला डिब्बा किसी हाल में भी न खुलने पाए।
इस शो के आडिशन में हम लोग आम जनता को ही खेल के लिए आमंत्रित करते थे मगर सप्ताह के १ दिन एक स्पेशल एपिसोड में एक खास वर्ग या समुदाय को खेलने के लिए बुलाया जाता था। जैसे ऑटो रिक्शा चालक, काम वाली बाई, सिख समुदाय के लोग आदि। हर एपिसोड में हमें २० से ऊपर लोगों की ज़रूरत पड़ती थी जिनमें से सिर्फ़ एक को खेलने का मौका मिलता था । ज़ाहिर सी बात है की इतने लोग एक परिवार के हो नही सकते और ये हमारे नियमों के खिलाफ भी था। तो ऐसे में उस पुरे समुदाय या ग्रुप में से जिस एक खुशकिस्मत को खेलने का मौका मिल जाता था उसको छोड़ बाकि सबके चेहरे बुझ जाते थे। ऐसे में दमदार एपिसोड की उम्मीद करना पानी के दिए जलाने से भी मुश्किल काम था।
खैर रियलिटी शो है तो हम लोग ज़्यादा कुछ कर भी नही सकते । मगर मुझे याद है की बैसाखी स्पेशल एपिसोड में जब हमने सिख समुदाय के लोगों को मुंबई के विभिन्न इलाकों से चुना तो खेल से पहले उन्होंने एक निर्णय लिया की जो भी हो खेल की भावना को जीवित रखेंगे और चुनिन्दा खिलाड़ी चाहे एक रूपया जीते यां एक करोड़ उसे वो सब आपस में बाँट लेंगे। उनके इस निर्णय का नतीजा चमत्कारिक निकला और वो बैसाखी स्पेशल एपिसोड सचमुच "पंजाबियों" के व्यक्तित्व के अनुसार ही जोश, एकता और भाई चारे की भावना से भरपूर था। उस खेल का अंत भी बहुत रोमांचक था क्योंकि उन लोगों के जोश और एकता से हम सभी टीम मेंबर बहुत प्रभावित थे ऐसे में हम सभी दिल से दुआ कर रहे थे की वो लोग ज़्यादा से ज़्यादा रकम जीतें और आपस में बांटे। मगर किस्मत का खेल था और हम लोग सिर्फ़ कार्यकर्म का संचालन कर सकते थे किस्मत का नही। इसलिए उस खेल के अंत में दो डिब्बे बचे एक वो जिसमें मात्र हज़ार रुपये थे और दुसरे में पच्चीस लाख। पर सिखों की एकता को किस्मत ने भी सलाम किया और वो लोग पुरे २५ लाख जीत का जश्न मानते हुए घर गए।
उसके बाद उनके इस निर्णय ने कई और समुदाय और वर्ग के लोगों को ऐसा ही करने केलिए प्रेरित किया और हमें कई बेहतरीन एपिसोड मिले।
खैर अब असली मुद्दे की बात पर आते हैं । अबकी बार होली स्पेशल एपिसोड में हम लोगों ने हास्य कवियों को आमंत्रित करने का फैसला किया। होली का मौका है हर एक कवि अपना डिब्बा खोलने से पहले हास्य व्यंग की अपनी एक कविता पढेगा और किस्मत का खेल कुछ खट्टा और कुछ मीठा हो जाएगा।
शूटिंग के रोज़ मुंबई, दिल्ली के कई नामी-गिरामी कवियों के हास्य व्यंग से हमारा स्टूडियो चहक रहा था। सभी को खेल के नियम बताये गए और पहले के कुछ एक एपिसोड भी दिखाए गए । मगर जनाब १ करोड़ का खेल था तो ज़ाहिर सी बात है की उस दिन सभी कवि महाशय घर से निकलते वक्त माँ सरस्वती की नही बल्कि माँ लक्ष्मी को ढोक देके और मन्नत मांग कर घर से निकले होंगे। खेल के नियम सब ने समझे मगर सवाल वही की खेलने का मौका सिर्फ़ एक को मिलेगा?? तो बाकि लोग क्या सिर्फ़ डिब्बे खोलने के लिए इस कार्यक्रम में अपनी मुहं दिखाई करेंगे?? तभी किसी ने उस बैसाखी स्पेशल एपिसोड का ज़िक्र किया की क्यों न उन्ही की तरह यहाँ भी जीत की रकम को बराबर बाँट लिया जाए?? मगर इस बात ने जैसे वातावरण में घुले हास्य-व्यंग के अबीर-गुलाल में मानों मिटटी और कंकर मिलाने जैसा काम किया। आदरणीय कविओं की उस बरात में सबसे बुजुर्ग कवि महाशय ने अपने माथे पर एक करोड़ से भी ज़यादा त्योरियां चढाते हुए कहा की मैं चाहे एक रुपया जीतूँ या एक करोड़ पर अपनी जीत की रकम में किसी को एक कौडी भी नहीं दूंगा। बस फिर क्या था एक करोड़ की दुल्हन को हर बाराती अपने साथ ले जाने के सपने देखने लगा और हास्य व्यंग के उस माहौल में घुली मिश्री की जगह जलन और स्वार्थ की मिर्ची ने ले ली।
फिर जो हुआ उसका अनुमान आप सभी लगा सकते हैं बाराती चाहे २० से ज़्यादा थे मगर दूल्हा तो एक ही बन सकता था। ज़िन्दगी में पहली बार मैंने माँ लक्ष्मी का ये चमत्कार देखा जिन्होंने कवियों को भी बनियागिरी सिखा दी।

जब बड़े ईमाम साहब ने की छोटी बात..

बात तब की है जब मैं आतंकवाद पर आधारित एक कार्यक्रम बना रही थी। दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले इस कार्यकर्म में मुझे आतंकवाद से सम्बंधित हर घटना में वो सबूत दर्शकों के सामने रखने होते थे जो ये साबित कर सकें की पड़ोसी मुल्क ही भारत में आंतकवाद को समर्थन और सहायता दे रहा है। काम मुश्किल था इसलिए हर एपिसोड के लिए खासी मशकत करनी पड़ती थी। हर आतंकवादी वारदात में मुजरिम पड़ोसी देश में बैठे अपने हुक्मरानों के साथ अपने ताल्लुकात होने के सबूत पीछे छोड़ के जाए ये ज़रूरी नही। इसलिए कई बार तथ्यों को साबित करने केलिए हमें सुरक्षा विशेषज्ञयों से भी बात की करनी पड़ती थी।
"जेहाद" के नाम पर बेकसूरों का खून बहाने वाले आतंकवादियों ने इस बार श्री नगर की एक मस्जिद को अपना निशाना बनाया था । जहाँ नमाज़ के वक्त बम्ब ब्लास्ट करके इन आतंकवादियों ने एक बार फ़िर ये साबित कर दिया था की उनका मुस्लिम अवाम, मज़हब और देश से कोई वास्ता नही है। "जेहाद" के नाम पर मज़हब को बदनाम करने वालों की पोल खोलने की एक और कोशिश मैं करना चाहती थी। इसलिए इसबार किसी सुरक्षा विशेषज्ञ की जगह एक मुस्लिम धर्म गुरु को अपने कार्यकर्म में शामिल करने का मैंने फ़ैसला किया। अपने इस फैसले को अंजाम देने केलिए मैंने दिल्ली की एक प्रमुख मस्जिद के बड़े ईमाम साहब से संपर्क किया ताकि उन्ही की ज़ुबानी अवाम तक "जेहाद" का असली मतलब पहुँच सके। और ख़ुद को मुसलमानों का खैरख्वाह कहनेवाले आतंकी दरिंदों के स्वार्थ का परदा फाश हो।
बड़े ईमाम साहब ने बखुशी मुझे और मेरी कैमरा टीम अपने घर आमंत्रित किया॥ दिल्ली के एक पुराने इलाके की तंग गलियों से होते हुए मैं और मेरी टीम तयशुदा वक्त पर बड़े ईमाम साहब के घर पहुँची। आदतन पहले मैंने उन्हें अपने कार्यकर्म और वर्तमान एपिसोड के बारे में विस्तार से बताया। उनसे बात करने के पीछे मेरा मकसद क्या है ये भी उन्हें बता दिया। इस साक्षात्कार में मेरा सबसे अहम सवाल था की क्या श्री नगर की मस्जिद पर हुए आतंकवादी हमले को "जेहाद" कहा जाएगा ??
मेरी कैमरा टीम अभी अपना कैमरा सैट कर रही थी इसलिए ईमाम साहब ने बेखौफ होके कहा कि "नही ये "जेहाद" नही है। जेहाद का मतलब होता है मज़हब की सुरक्षा, आत्म-सुरक्षा या किसी बेबस की सुरक्षा के लिए हथियार उठाना (मैं ये लेख "जेहाद" के मायने पर ववाद-विवाद करने कि मंशा से नहीं लिख रही हूँ, ये इमाम साहेब के लफ्ज़ हैं जिनको मैंने बिना किसी हेर-फेर के यहाँ लिखा है) अपनी बात जारी रखते हुए बड़े ईमाम साहब ने आगे कहा कि ख़ुदा की बंदगी करते मुसलमानों पर हमले को किसी भी सूरत में "जेहाद" का नाम नहीं दिया जा सकता। चंद मतलब परस्त लोग अपने स्वार्थ के लिए मज़हब के नाम पर ये फसाद पैदा कर रहे हैं। और मैं इसकी खिलाफत करता हूँ। (यहाँ एक बार फिर मैं याद दिलाना चाहूंगी कि ये सब बातें वो अभी कैमरा के सामने नहीं बोल रहे थे)"
उनके इस बयान से मैं संतुष्ट थी इसलिए मैंने कैमरा आन कर बड़े ईमाम साहब के सामने फिर से अपना वही सवाल दोहराया। मगर ये क्या इस बार ईमाम साहब ने मस्जिद पर हुए हमले की सिर्फ़ निंदा कि और बिना दम लिए उन्होंने अपनी बात को आगे बढाया कि "हमें ये भी देखना होगा के मस्जिद पर हमला करने वालों का मकसद क्या है, वो क्या चाहते हैं, इतने सालों से उनकी फरियाद कोई नहीं सुन रहा कहीं इसलिए तो उन्हें ये कदम नहीं उठाने पड़ रहे। कहीं हम लोग उनके साथ नाइंसाफी तो नहीं कर रहे?"
उनकी इस टिपण्णी को सुनके मैं और मेरा कैमरामन एक दुसरे कि तरफ़ हैरत से देखने लगे क्योंकि अभी चंद लम्हे पहले जब कैमरा आन नहीं था तब हमलोगों ने आतंकवाद के खिलाफ ईमाम साहब के सुरों का आरोह ख़ुद सुना था और अब कैमरा आन होते ही वही सुर अवरोह कि गति पकड़ रहे थे।

मैं परेशान थी कि आखिर ईमाम साहब किसका समर्थन कर रहे हैं?? आए दिन हो रहे हमलों में मारे जा रहे बेकसूर लोगों को बचाने का या जेहाद के नाम पर उन बेकसूरों के खून से होली खेलने वाले आतंकवादियों का? वो तो किसी को भी ग़लत नहीं कह रहे। खैर ईमाम साहब की बात ख़तम होते ही मैंने कैमरा बंद करवा कर उन्हें याद दिलाया की कैमरा आन होने से पहले उन्होंने आतंकवाद की खिलाफत के लिए कुछ और ब्यान दिया था। इस पर ईमाम साहब फिर से अपनी पुराणी टिपण्णी पर वापिस आ गए और मुझे लगा की शायद उन्हें मेरा सवाल समझने में गलती हूई होगी इसलिए कैमरा आन करके मैंने एक बार फिर उन्हें अपनी बात जनता के सामने कहने का मौका दिया। मगर इस बार फिर उनका जवाब राजनितिक गलियारों की प्रदूषित हवा का शिकार हो रहा था। और ईमाम साहब "ये भी ठीक और वो भी ठीक" के तीरों से मेरे सवालों के तरकश को ही भेदने की कोशिश कर रहे थे। इस तरह करीब आधा दर्जन से ज़्यादा बार ईमाम साहब ने शब्दों का हेरफेर करके ये साबित कर दिया की उनके दो सुर हैं एक की तान वो कैमरे के पीछे छेड़ते थे और दुसरे की कैमरे के आगे। मतलब साफ था की राजनीति या सियासत के मामले में सिर्फ़ संसद के गलियारों में शिरकत करने वालों को ही महारथ हासिल नहीं होती।
बहरहाल बड़े ईमाम साहब की कोइ भी टिका-टिपण्णी मेरे काम की नही थी। क्योंकि मुझे किसी राजनीतिज्ञ की नही ब्लकि एक धर्म गुरु के बयान की ज़रूरत थी जो "जेहाद" के नाम पर गुमराह होते नौजवान क़दमों को "जेहाद" का असली मायने बतायें, जो कौम पर लग रहे दाग़ को धोने में पहल कर एक मिसाल कायम करें।
मैंने और मेरी टीम ने आदर के साथ बड़े ईमाम साहब का शुक्रिया अदा किया और उनसे इजाज़त मांगी। जाते-जाते उन्होंने मुझसे पूछा "मोहतरमा मुझे उम्मीद है कि आप मेरे जवाब से संतुष्ट होंगी और देश के नौजवानों को सही दिशा दिखाने की आपकी मुहीम में मेरा भी योगदान रहेगा।"
मैंने बस हाँ में सर हिलाया जबकि मेरी कैमरा टीम जानती थी की इस वक्त मैं ईमाम साहब के शुक्रिया और मशवरे के बारे में नही बल्कि अपने अगले कदम के बारे में सोच रही हूँ। क्योंकि लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ यानि पत्रकारिता में किसी भी कीमत पर सच्चाई को अवाम के सामने पेश करने का जूनून हमें परेशानियों का सामना करने की ताकत देता है।
मैंने उसी वक्त दिल्ली की एक और बड़ी मस्जिद के ईमाम साहब से बात की और उनसे बिना वक्त जाया किए उसी समय मिलने कि इजाज़त मांगी। उनसे मिल कर मैंने उन्हें श्री नगर की मस्जिद में हुए हमले के बारे में उनकी आवाज़ अवाम तक पहुँचाने कि गुजारिश की ताकि "जेहाद" के नाम पर पथभ्रष्ट होते युवायों का मार्गदर्शन हो सके। मेरी बात सुन कर ईमाम साहब मुस्कराए, कुछ पल की चुप्पी के बाद उन्होंने कहा कि आप जो सच मुझसे सुनना चाहती हैं वो अगर मेरी जुबान से निकला तो मेरे साथ-साथ मेरे खानदान के लहू के कतरों तक को भी सुखा दिया दिया जाएगा। मगर मज़हब पर लग रहे इस दाग को अगर मेरे लहू के कतरे धो सकते हैं तो मैं इसे अल्लाह कि असली इबादत समझूंगा। उनके इस जज्बे को हम लोगों ने मन ही मन सलाम किया और ईमाम साहब ने कैमरा आन होते ही अपने शब्दों का मान रखा और आप सभी को ये जान के खुशी होगी की उनकी किसी भी टिपण्णी में राजनीती की दुर्गन्ध नहीं आ रही थी।

उनके साथ हुई बात-चित के बाद मेरे दिमाग में मोहम्मद इकबाल की रची ये पंक्तियाँ गूंज रही थी
"मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना हिन्दी हैं हम वतन हैं हिंदुस्तान हमारा"..