बात तब की है जब मैं आतंकवाद पर आधारित एक कार्यक्रम बना रही थी। दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले इस कार्यकर्म में मुझे आतंकवाद से सम्बंधित हर घटना में वो सबूत दर्शकों के सामने रखने होते थे जो ये साबित कर सकें की पड़ोसी मुल्क ही भारत में आंतकवाद को समर्थन और सहायता दे रहा है। काम मुश्किल था इसलिए हर एपिसोड के लिए खासी मशकत करनी पड़ती थी। हर आतंकवादी वारदात में मुजरिम पड़ोसी देश में बैठे अपने हुक्मरानों के साथ अपने ताल्लुकात होने के सबूत पीछे छोड़ के जाए ये ज़रूरी नही। इसलिए कई बार तथ्यों को साबित करने केलिए हमें सुरक्षा विशेषज्ञयों से भी बात की करनी पड़ती थी।
"जेहाद" के नाम पर बेकसूरों का खून बहाने वाले आतंकवादियों ने इस बार श्री नगर की एक मस्जिद को अपना निशाना बनाया था । जहाँ नमाज़ के वक्त बम्ब ब्लास्ट करके इन आतंकवादियों ने एक बार फ़िर ये साबित कर दिया था की उनका मुस्लिम अवाम, मज़हब और देश से कोई वास्ता नही है। "जेहाद" के नाम पर मज़हब को बदनाम करने वालों की पोल खोलने की एक और कोशिश मैं करना चाहती थी। इसलिए इसबार किसी सुरक्षा विशेषज्ञ की जगह एक मुस्लिम धर्म गुरु को अपने कार्यकर्म में शामिल करने का मैंने फ़ैसला किया। अपने इस फैसले को अंजाम देने केलिए मैंने दिल्ली की एक प्रमुख मस्जिद के बड़े ईमाम साहब से संपर्क किया ताकि उन्ही की ज़ुबानी अवाम तक "जेहाद" का असली मतलब पहुँच सके। और ख़ुद को मुसलमानों का खैरख्वाह कहनेवाले आतंकी दरिंदों के स्वार्थ का परदा फाश हो।
बड़े ईमाम साहब ने बखुशी मुझे और मेरी कैमरा टीम अपने घर आमंत्रित किया॥ दिल्ली के एक पुराने इलाके की तंग गलियों से होते हुए मैं और मेरी टीम तयशुदा वक्त पर बड़े ईमाम साहब के घर पहुँची। आदतन पहले मैंने उन्हें अपने कार्यकर्म और वर्तमान एपिसोड के बारे में विस्तार से बताया। उनसे बात करने के पीछे मेरा मकसद क्या है ये भी उन्हें बता दिया। इस साक्षात्कार में मेरा सबसे अहम सवाल था की क्या श्री नगर की मस्जिद पर हुए आतंकवादी हमले को "जेहाद" कहा जाएगा ??
मेरी कैमरा टीम अभी अपना कैमरा सैट कर रही थी इसलिए ईमाम साहब ने बेखौफ होके कहा कि "नही ये "जेहाद" नही है। जेहाद का मतलब होता है मज़हब की सुरक्षा, आत्म-सुरक्षा या किसी बेबस की सुरक्षा के लिए हथियार उठाना (मैं ये लेख "जेहाद" के मायने पर ववाद-विवाद करने कि मंशा से नहीं लिख रही हूँ, ये इमाम साहेब के लफ्ज़ हैं जिनको मैंने बिना किसी हेर-फेर के यहाँ लिखा है) अपनी बात जारी रखते हुए बड़े ईमाम साहब ने आगे कहा कि ख़ुदा की बंदगी करते मुसलमानों पर हमले को किसी भी सूरत में "जेहाद" का नाम नहीं दिया जा सकता। चंद मतलब परस्त लोग अपने स्वार्थ के लिए मज़हब के नाम पर ये फसाद पैदा कर रहे हैं। और मैं इसकी खिलाफत करता हूँ। (यहाँ एक बार फिर मैं याद दिलाना चाहूंगी कि ये सब बातें वो अभी कैमरा के सामने नहीं बोल रहे थे)"
उनके इस बयान से मैं संतुष्ट थी इसलिए मैंने कैमरा आन कर बड़े ईमाम साहब के सामने फिर से अपना वही सवाल दोहराया। मगर ये क्या इस बार ईमाम साहब ने मस्जिद पर हुए हमले की सिर्फ़ निंदा कि और बिना दम लिए उन्होंने अपनी बात को आगे बढाया कि "हमें ये भी देखना होगा के मस्जिद पर हमला करने वालों का मकसद क्या है, वो क्या चाहते हैं, इतने सालों से उनकी फरियाद कोई नहीं सुन रहा कहीं इसलिए तो उन्हें ये कदम नहीं उठाने पड़ रहे। कहीं हम लोग उनके साथ नाइंसाफी तो नहीं कर रहे?"
उनकी इस टिपण्णी को सुनके मैं और मेरा कैमरामन एक दुसरे कि तरफ़ हैरत से देखने लगे क्योंकि अभी चंद लम्हे पहले जब कैमरा आन नहीं था तब हमलोगों ने आतंकवाद के खिलाफ ईमाम साहब के सुरों का आरोह ख़ुद सुना था और अब कैमरा आन होते ही वही सुर अवरोह कि गति पकड़ रहे थे।
मैं परेशान थी कि आखिर ईमाम साहब किसका समर्थन कर रहे हैं?? आए दिन हो रहे हमलों में मारे जा रहे बेकसूर लोगों को बचाने का या जेहाद के नाम पर उन बेकसूरों के खून से होली खेलने वाले आतंकवादियों का? वो तो किसी को भी ग़लत नहीं कह रहे। खैर ईमाम साहब की बात ख़तम होते ही मैंने कैमरा बंद करवा कर उन्हें याद दिलाया की कैमरा आन होने से पहले उन्होंने आतंकवाद की खिलाफत के लिए कुछ और ब्यान दिया था। इस पर ईमाम साहब फिर से अपनी पुराणी टिपण्णी पर वापिस आ गए और मुझे लगा की शायद उन्हें मेरा सवाल समझने में गलती हूई होगी इसलिए कैमरा आन करके मैंने एक बार फिर उन्हें अपनी बात जनता के सामने कहने का मौका दिया। मगर इस बार फिर उनका जवाब राजनितिक गलियारों की प्रदूषित हवा का शिकार हो रहा था। और ईमाम साहब "ये भी ठीक और वो भी ठीक" के तीरों से मेरे सवालों के तरकश को ही भेदने की कोशिश कर रहे थे। इस तरह करीब आधा दर्जन से ज़्यादा बार ईमाम साहब ने शब्दों का हेरफेर करके ये साबित कर दिया की उनके दो सुर हैं एक की तान वो कैमरे के पीछे छेड़ते थे और दुसरे की कैमरे के आगे। मतलब साफ था की राजनीति या सियासत के मामले में सिर्फ़ संसद के गलियारों में शिरकत करने वालों को ही महारथ हासिल नहीं होती।
बहरहाल बड़े ईमाम साहब की कोइ भी टिका-टिपण्णी मेरे काम की नही थी। क्योंकि मुझे किसी राजनीतिज्ञ की नही ब्लकि एक धर्म गुरु के बयान की ज़रूरत थी जो "जेहाद" के नाम पर गुमराह होते नौजवान क़दमों को "जेहाद" का असली मायने बतायें, जो कौम पर लग रहे दाग़ को धोने में पहल कर एक मिसाल कायम करें।
मैंने और मेरी टीम ने आदर के साथ बड़े ईमाम साहब का शुक्रिया अदा किया और उनसे इजाज़त मांगी। जाते-जाते उन्होंने मुझसे पूछा "मोहतरमा मुझे उम्मीद है कि आप मेरे जवाब से संतुष्ट होंगी और देश के नौजवानों को सही दिशा दिखाने की आपकी मुहीम में मेरा भी योगदान रहेगा।"
मैंने बस हाँ में सर हिलाया जबकि मेरी कैमरा टीम जानती थी की इस वक्त मैं ईमाम साहब के शुक्रिया और मशवरे के बारे में नही बल्कि अपने अगले कदम के बारे में सोच रही हूँ। क्योंकि लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ यानि पत्रकारिता में किसी भी कीमत पर सच्चाई को अवाम के सामने पेश करने का जूनून हमें परेशानियों का सामना करने की ताकत देता है।
मैंने उसी वक्त दिल्ली की एक और बड़ी मस्जिद के ईमाम साहब से बात की और उनसे बिना वक्त जाया किए उसी समय मिलने कि इजाज़त मांगी। उनसे मिल कर मैंने उन्हें श्री नगर की मस्जिद में हुए हमले के बारे में उनकी आवाज़ अवाम तक पहुँचाने कि गुजारिश की ताकि "जेहाद" के नाम पर पथभ्रष्ट होते युवायों का मार्गदर्शन हो सके। मेरी बात सुन कर ईमाम साहब मुस्कराए, कुछ पल की चुप्पी के बाद उन्होंने कहा कि आप जो सच मुझसे सुनना चाहती हैं वो अगर मेरी जुबान से निकला तो मेरे साथ-साथ मेरे खानदान के लहू के कतरों तक को भी सुखा दिया दिया जाएगा। मगर मज़हब पर लग रहे इस दाग को अगर मेरे लहू के कतरे धो सकते हैं तो मैं इसे अल्लाह कि असली इबादत समझूंगा। उनके इस जज्बे को हम लोगों ने मन ही मन सलाम किया और ईमाम साहब ने कैमरा आन होते ही अपने शब्दों का मान रखा और आप सभी को ये जान के खुशी होगी की उनकी किसी भी टिपण्णी में राजनीती की दुर्गन्ध नहीं आ रही थी।
उनके साथ हुई बात-चित के बाद मेरे दिमाग में मोहम्मद इकबाल की रची ये पंक्तियाँ गूंज रही थी
"मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना हिन्दी हैं हम वतन हैं हिंदुस्तान हमारा"..
"जेहाद" के नाम पर बेकसूरों का खून बहाने वाले आतंकवादियों ने इस बार श्री नगर की एक मस्जिद को अपना निशाना बनाया था । जहाँ नमाज़ के वक्त बम्ब ब्लास्ट करके इन आतंकवादियों ने एक बार फ़िर ये साबित कर दिया था की उनका मुस्लिम अवाम, मज़हब और देश से कोई वास्ता नही है। "जेहाद" के नाम पर मज़हब को बदनाम करने वालों की पोल खोलने की एक और कोशिश मैं करना चाहती थी। इसलिए इसबार किसी सुरक्षा विशेषज्ञ की जगह एक मुस्लिम धर्म गुरु को अपने कार्यकर्म में शामिल करने का मैंने फ़ैसला किया। अपने इस फैसले को अंजाम देने केलिए मैंने दिल्ली की एक प्रमुख मस्जिद के बड़े ईमाम साहब से संपर्क किया ताकि उन्ही की ज़ुबानी अवाम तक "जेहाद" का असली मतलब पहुँच सके। और ख़ुद को मुसलमानों का खैरख्वाह कहनेवाले आतंकी दरिंदों के स्वार्थ का परदा फाश हो।
बड़े ईमाम साहब ने बखुशी मुझे और मेरी कैमरा टीम अपने घर आमंत्रित किया॥ दिल्ली के एक पुराने इलाके की तंग गलियों से होते हुए मैं और मेरी टीम तयशुदा वक्त पर बड़े ईमाम साहब के घर पहुँची। आदतन पहले मैंने उन्हें अपने कार्यकर्म और वर्तमान एपिसोड के बारे में विस्तार से बताया। उनसे बात करने के पीछे मेरा मकसद क्या है ये भी उन्हें बता दिया। इस साक्षात्कार में मेरा सबसे अहम सवाल था की क्या श्री नगर की मस्जिद पर हुए आतंकवादी हमले को "जेहाद" कहा जाएगा ??
मेरी कैमरा टीम अभी अपना कैमरा सैट कर रही थी इसलिए ईमाम साहब ने बेखौफ होके कहा कि "नही ये "जेहाद" नही है। जेहाद का मतलब होता है मज़हब की सुरक्षा, आत्म-सुरक्षा या किसी बेबस की सुरक्षा के लिए हथियार उठाना (मैं ये लेख "जेहाद" के मायने पर ववाद-विवाद करने कि मंशा से नहीं लिख रही हूँ, ये इमाम साहेब के लफ्ज़ हैं जिनको मैंने बिना किसी हेर-फेर के यहाँ लिखा है) अपनी बात जारी रखते हुए बड़े ईमाम साहब ने आगे कहा कि ख़ुदा की बंदगी करते मुसलमानों पर हमले को किसी भी सूरत में "जेहाद" का नाम नहीं दिया जा सकता। चंद मतलब परस्त लोग अपने स्वार्थ के लिए मज़हब के नाम पर ये फसाद पैदा कर रहे हैं। और मैं इसकी खिलाफत करता हूँ। (यहाँ एक बार फिर मैं याद दिलाना चाहूंगी कि ये सब बातें वो अभी कैमरा के सामने नहीं बोल रहे थे)"
उनके इस बयान से मैं संतुष्ट थी इसलिए मैंने कैमरा आन कर बड़े ईमाम साहब के सामने फिर से अपना वही सवाल दोहराया। मगर ये क्या इस बार ईमाम साहब ने मस्जिद पर हुए हमले की सिर्फ़ निंदा कि और बिना दम लिए उन्होंने अपनी बात को आगे बढाया कि "हमें ये भी देखना होगा के मस्जिद पर हमला करने वालों का मकसद क्या है, वो क्या चाहते हैं, इतने सालों से उनकी फरियाद कोई नहीं सुन रहा कहीं इसलिए तो उन्हें ये कदम नहीं उठाने पड़ रहे। कहीं हम लोग उनके साथ नाइंसाफी तो नहीं कर रहे?"
उनकी इस टिपण्णी को सुनके मैं और मेरा कैमरामन एक दुसरे कि तरफ़ हैरत से देखने लगे क्योंकि अभी चंद लम्हे पहले जब कैमरा आन नहीं था तब हमलोगों ने आतंकवाद के खिलाफ ईमाम साहब के सुरों का आरोह ख़ुद सुना था और अब कैमरा आन होते ही वही सुर अवरोह कि गति पकड़ रहे थे।
मैं परेशान थी कि आखिर ईमाम साहब किसका समर्थन कर रहे हैं?? आए दिन हो रहे हमलों में मारे जा रहे बेकसूर लोगों को बचाने का या जेहाद के नाम पर उन बेकसूरों के खून से होली खेलने वाले आतंकवादियों का? वो तो किसी को भी ग़लत नहीं कह रहे। खैर ईमाम साहब की बात ख़तम होते ही मैंने कैमरा बंद करवा कर उन्हें याद दिलाया की कैमरा आन होने से पहले उन्होंने आतंकवाद की खिलाफत के लिए कुछ और ब्यान दिया था। इस पर ईमाम साहब फिर से अपनी पुराणी टिपण्णी पर वापिस आ गए और मुझे लगा की शायद उन्हें मेरा सवाल समझने में गलती हूई होगी इसलिए कैमरा आन करके मैंने एक बार फिर उन्हें अपनी बात जनता के सामने कहने का मौका दिया। मगर इस बार फिर उनका जवाब राजनितिक गलियारों की प्रदूषित हवा का शिकार हो रहा था। और ईमाम साहब "ये भी ठीक और वो भी ठीक" के तीरों से मेरे सवालों के तरकश को ही भेदने की कोशिश कर रहे थे। इस तरह करीब आधा दर्जन से ज़्यादा बार ईमाम साहब ने शब्दों का हेरफेर करके ये साबित कर दिया की उनके दो सुर हैं एक की तान वो कैमरे के पीछे छेड़ते थे और दुसरे की कैमरे के आगे। मतलब साफ था की राजनीति या सियासत के मामले में सिर्फ़ संसद के गलियारों में शिरकत करने वालों को ही महारथ हासिल नहीं होती।
बहरहाल बड़े ईमाम साहब की कोइ भी टिका-टिपण्णी मेरे काम की नही थी। क्योंकि मुझे किसी राजनीतिज्ञ की नही ब्लकि एक धर्म गुरु के बयान की ज़रूरत थी जो "जेहाद" के नाम पर गुमराह होते नौजवान क़दमों को "जेहाद" का असली मायने बतायें, जो कौम पर लग रहे दाग़ को धोने में पहल कर एक मिसाल कायम करें।
मैंने और मेरी टीम ने आदर के साथ बड़े ईमाम साहब का शुक्रिया अदा किया और उनसे इजाज़त मांगी। जाते-जाते उन्होंने मुझसे पूछा "मोहतरमा मुझे उम्मीद है कि आप मेरे जवाब से संतुष्ट होंगी और देश के नौजवानों को सही दिशा दिखाने की आपकी मुहीम में मेरा भी योगदान रहेगा।"
मैंने बस हाँ में सर हिलाया जबकि मेरी कैमरा टीम जानती थी की इस वक्त मैं ईमाम साहब के शुक्रिया और मशवरे के बारे में नही बल्कि अपने अगले कदम के बारे में सोच रही हूँ। क्योंकि लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ यानि पत्रकारिता में किसी भी कीमत पर सच्चाई को अवाम के सामने पेश करने का जूनून हमें परेशानियों का सामना करने की ताकत देता है।
मैंने उसी वक्त दिल्ली की एक और बड़ी मस्जिद के ईमाम साहब से बात की और उनसे बिना वक्त जाया किए उसी समय मिलने कि इजाज़त मांगी। उनसे मिल कर मैंने उन्हें श्री नगर की मस्जिद में हुए हमले के बारे में उनकी आवाज़ अवाम तक पहुँचाने कि गुजारिश की ताकि "जेहाद" के नाम पर पथभ्रष्ट होते युवायों का मार्गदर्शन हो सके। मेरी बात सुन कर ईमाम साहब मुस्कराए, कुछ पल की चुप्पी के बाद उन्होंने कहा कि आप जो सच मुझसे सुनना चाहती हैं वो अगर मेरी जुबान से निकला तो मेरे साथ-साथ मेरे खानदान के लहू के कतरों तक को भी सुखा दिया दिया जाएगा। मगर मज़हब पर लग रहे इस दाग को अगर मेरे लहू के कतरे धो सकते हैं तो मैं इसे अल्लाह कि असली इबादत समझूंगा। उनके इस जज्बे को हम लोगों ने मन ही मन सलाम किया और ईमाम साहब ने कैमरा आन होते ही अपने शब्दों का मान रखा और आप सभी को ये जान के खुशी होगी की उनकी किसी भी टिपण्णी में राजनीती की दुर्गन्ध नहीं आ रही थी।
उनके साथ हुई बात-चित के बाद मेरे दिमाग में मोहम्मद इकबाल की रची ये पंक्तियाँ गूंज रही थी
"मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना हिन्दी हैं हम वतन हैं हिंदुस्तान हमारा"..
मैडम,ऐसे ही इमामों ने भारत का बेड़ा गर्क कर रखा हैं। इन्हें धर्म और मजहब से कोई वास्ता नहीं हैं। यह तो बस मजहब के गर्म तावे पर अपनी गंदी राजनीति की रोटी सेक रहे हैं। और इसमे इनका साथ देते हैं तथाकथित धर्मनिरपेक्ष नेतागण,मानवधिकार संघठन और मीडिया का एक भाग्। मुझे नहीं लगता पवित्र कुरान में कहीं यह लिखा होगा कि जिहाद के नाम पर निर्दोषों की खून से होली खेलो। यह सब इन पापीयों ने अपने दुकान चलाने के लिये आडम्बर फ़ैला रखा हैं। इस्लाम को अगर सबसे ज्यादा किसी से खतरा हैं तो इन जैसे इमामों से।
जवाब देंहटाएंधमॆ और राजनीति का सच यही है ।
जवाब देंहटाएंhttp://www.ashokvichar.blogspot.com
dharm ke naam par kitna khoon baha hai ye kisi se chhupa nahi ...chahe wo koi bhi dharm ho
जवाब देंहटाएंमेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
कुछ ईमामो का तो कोई ईमान ही नहीं है
जवाब देंहटाएंThis kind of people is available in every religion.
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