Life is a Journey.From Kashmir to Kanyakumari,beginning till the end of another story, it is one long curve, full of Turning Points.. You never know which place, person, time, season or circumstance will affect LIFE, HEART, MIND or SOUL.. This blog is all about those Turning Points..
रविवार, 19 अप्रैल 2009
टीआरपी बढ़ रही है पर कृष्ण जी नहीं..
शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009
संविधान बदलो नेता ख़ुद बदल जायेंगे..
क्रिकेट का खेल हो रहा है तो सारा देश उसी धुन में मगन घर-बहार-दफ्तर भुलाये क्रिकेट चालीसा का पाठ करता दिखाई देगा॥ दिवाली है तो हर जगह पटाखों की आवाज़ सुनाई देगी, होली है तो अबीर-गुलाल से सजी दुकाने एक आम नज़ारा होगा, सिक्खों के किसी गुरु का जन्मदिन आया तो पानी की छबीलें हर गली, सड़क पे दिखाई देंगी..... भारत के इस विशाल वृक्ष पे ऐसी ही न जाने कितनी रस्सियाँ लटक रही हैं जिन पर मौसम के अनुसार सारा देश लटकता दिखाई देता है॥
इस लोकतान्त्रिक देश में ऐसा ही एक त्यौहार और भी है.... "चुनाव का त्यौहार" जी हाँ मेरी तरह कई लोग ब्लॉग लिख कर इस त्यौहार को मना रहे हैं, टेलीविजन चैनेल कभी नेताओं को गालियाँ दे कर इस त्यौहार कि रसम निभाते दिखाई देते हैं तो कभी कभी उन्ही का हाथ थामें आधे-आधे घंटे के कार्यक्रम बना के अपने चैनेल का स्लाट भरते दिखाई देंगे॥ कुल मिला के बात ये है कि हम लोगों में और भेड़ बकरिओं में कुछ खास अन्तर नही रह गया है॥ एक ने जो दिशा पकड़ी पूरा देश उसी दिशा की और रुख करके निकल पड़ता है॥
ये चुनाव भी आए हैं हमेशा की तरह कुछ लोग वोट देंगें और कुछ नही देंगे॥ सरकार जैसे तैसे करके बन ही जायेगी और हम लोग अपनी ज़िन्दगी में कोई नया उत्सव मानाने में व्यस्त हो जायेंगे॥
पर क्या चुनाव के वक्त ही देश, नेता और भविष्य के बारे में चर्चा कर लेने से ही हमारी देश भक्ति साबित हो जाती है?? चुनावी बिगुल बजने के साथ ही देश के बारे में बातें करना एक लेटेस्ट फैशन है॥
लेकिन क्या कभी ठंडे दिमाग से हमने सोचा की जितनी शिद्दत से हम पुराने रीति-रिवाज़ बदलने की बात करते हैं उतना ही हम अपने संविधान के लिए लापरवाह हैं॥ कभी किसी ने नही सोचा की ६० साल से भी ज़्यादा उम्र के इस बूढे को अब रिटायर कर दिया जाए और उसकी जगह एक नए संविधान की नियुक्ति की जाए॥ लेकिन ये कैसे होगा ?? देश का युवा पब कल्चर पर लगने वाली रोक पर तो अपना रोष और जोश दिखाने को तैयार है लेकिन संविधान क्यों बदला जाए इसके बारे में सोचने की फुर्सत और समझ उन्हें नही है ॥ और देश के नेता जो "अर्थी" पर लेटने के बाद ही रिटायर हों तो हों ख़ुद कुर्सी का मोह त्यागना उनके बस की बात नहीं॥ वो नेता भला उस कानून को बदलने में दिलचस्पी क्यों दिखायेंगे जो कानून उनका उल्लू सीधा करने में उनकी पुरजोर मदद करता है॥ कभी कोई नही सोचता की आज दफ्तर में चंद फाइलें चलाने वाले एक चपरासी की नौकरी के लिए भी कम से कम ग्रेजुएट होना अनिवार्य है मगर देश को चलाने वाले "नेता" अगर अनपढ़ भी है तो हमें कोई मलाल नही॥ एक ५८ साल का व्यक्ति अगर पुरी तरह तंदरुस्त है तो भी उससे नौकरी से बर्खास्त कर दिया जाता है मगर हर साल दिल, घुटने, गुद्रे यानि सिर्फ़ दिमाग को छोड़ के बाकि सबका ओप्रशन करवाने वाले नेता के रिटायर होने की कोई उमर तय नही है?? आखिर क्यों ?? हम लोग सिर्फ़ मज़हब के भेदभाव पर ही बवाल क्यों मचाते हैं जबकि सबसे बड़ा भेदभाव हमारे संविधान में किया गया है॥ एक आम इंसान के लिए अलग कानून और नेताओं के लिए अलग कानून॥ आखिर क्यों ??
किसी भी नौकरी के लिए आवेदन भरते वक्त हमसे पूछा जाता है की आपका कोई पुलिस रिकॉर्ड तो नही॥ मगर एक नेता केलिए ऐसा कोई सवाल उसके करियर में बाधा नही डालता॥
धरम के नाम पर भारत को एक करने का दावा करने वाले नेता क्या इस भेद-भाव को मिटाने की कोशिश कभी करेंगे?? या हम लोग जो "सेक्युलर" समाज और सरकार चुनने की बात करते हैं, पुराने रीति-रिवाजों से छुटकारा पाने की वकालत करते हैं पर क्या हम कभी इस भेद-भाव को मिटाने के लिए कोई ठोस कदम उठाएंगे??
भीड़ में भी "तन्हा"..
पल पल बड़ते कदम, कुछ तेज़ तेज़ कुछ मधम मधम
वो चीख वो अंदाज़, क्या मौत इसी को कहते हैं ??
आसमानों में टिमटिमाते दिये जैसे तारे,
जो इस तूफान में कुछ धुंधले हो रहे हैं
ये बरफ सी ठंडी आह, मासूम बियाबान रात,
क्या मौत इसी को कहते हैं ??
याद है ज़िन्दगी भी है और तन्हाईं भी..
सिसकती हिचकियां भी हैं और सहमती रात भी
कभी आगोश में लेती हुयी माँ की पुकार को
और कभी धुंधली होती हुयी बच्चे की पुचकार को
क्या मौत इसी को कहते हैं ??
वक्त में बेपनाह लडाई में, जब शाम का आंचल खिसक कर गिर गया
उस बाप की लाचारी भरी मुस्कान को
जो सोचता था शायद रोके न सही हँसके मना लूँगा भगवान को
समझ में तुझे न आया "ज़िन्दगी" तू हवा है और तुझे बहना है
तेरी पशो पैनी पे भी ये आंसू रुकते नही
माँ का आँचल भरता नही
बाप की उदासी कम होती नही
बच्चे का दिल अब चिडिया जैसा चहकता नही
क्या मौत इसी को कहते हैं ??
जो अब आके भी मुझे नही आती..
शनिवार, 11 अप्रैल 2009
जनता "राग" नेताओं केलिए..
देखिये उम्मीद पे दुनिया कायम है॥ तो ये पहला गीत है फ़िल्म "नवरंग" जिसके रचेयता थे "श्री भरत व्यास" और दूसरा गीत है फ़िल्म "रोटी कपड़ा और मकान" से इस गीत के चमत्कारिक बोल रचे थे "वर्मा मल्लिक" ने॥ और इतिहास गवाह है की इस गीत ने उस वक्त की मौजूदा सरकार की नींद उदा दी थी॥
गीतकार : भरत व्यास
शेर शायरी कविराजा न काम आयेगी, कविता की पोथी को दीमक खा जायेगी
भाव चढ़ रहे, अनाज हो रहा महंगा, दिन दिन भूखे मरोगे रात कटेगी तारे गिन गिन
इसीलिये कहता हूँ भैय्या ये सब छोडो, धन्धे की कुछ बात करो कुछ पैसे जोड़ो............
अरे छोड़ो कलम, चलाओ मत कविता की चाकी, घर की रोकड़ देखो कितने पैसे बाकी
अरे कितना घर में घी है, कितना गरम मसाला, कितना पापड़, बड़ि, मंगोरी मिर्च मसाला
कितना तेल लूण, मिर्ची, हल्दी और धनिया, कविराजा चुपके से तुम बन जाओ बनिया
अरे पैसे पर रच काव्य, अरे पैसे, अरे पैसे पर रच काव्य, भूख पर गीत बनाओ,
गेहूँ पर हो ग़ज़ल, धान के शेर सुनाओ
लौण-मिर्च पर चौपाई, चावल पर दोहे, सुगल कोयले पर कविता लिखो तो सोहे
कम भाड़े की, अरे कम भाड़े की खोली पर लिखो क़व्वाली, झन झन करती कहो रुबाई पैसे वाली
शब्दों का जंजाल बड़ा लफ़ड़ा होता है, कवि सम्मेलन दोस्त बड़ा झगड़ा होता है
मुशायरों के शेरों पर रगड़ा होता है, पैसे वाला शेर बड़ा तगड़ा होता है
इसीलिये कहता हूँ मत इस से सर फोड़ो, धन्धे की कुछ बात करो कुछ पैसे जोड़ो......
उसने कहा चाहता है क्या, मैंने कहा चाहत तेरी, मैंने कहा समझा नहीं, उसने कहा क़िस्मत तेरी
एक हमें आँख की लड़ाई मार गई, दूसरी तो यार की जुदाई मार गई तीसरी हमेशा की तन्हाई मार गई,
चौथी ये खुदा की खुदाई मार गई, बाकी कुछ बचा तो मंहगाई मार गई, मंहगाई मार गई...
तबीयत ठीक थी और दिल भी बेक़रार ना था, ये तब की बात है जब किसी से प्यार ना था
जब से प्रीत सपनों में समाई मार गई, मन के मीठे दर्द की गहराई मार गई
नैनों से नैनों की सगाई मार गई, सोच सोच में जो सोच आई मार गई
बाकी कुछ बचा तो मंहगाई मार गई, मंहगाई मार गई........
दिल की लगी दिल को जब लगाई मार गई, दिल ने की जो प्यार तो दुहाई मार गई
दिल की बात दुनिया को बताई मार गई, दिल की बात दिल में जो छुपाई मार गई,
बाकी कुछ बचा तो मंहगाई मार गई, मंहगाई मार गई..........
पहले मुट्ठी विच पैसे लेकर, पहले मुट्ठी में पैसे लेकर थैला भर शक्कर लाते थे
अब थैले में पैसे जाते हैं मुट्ठी में शक्कर आती है
हाय मंहगाई, मंहगाई, मंहगाई .... दुहाई है, दुहाई है, दुहाई है, दुहाई... मंहगाई मंहगाई मंहगाई मंहगाई
तू कहाँ से आई, तुझे क्यों मौत ना आई, हाय मंहगाई मंहगाई मंहगाई
शक्कर में ये आटे की मिलाई मार गई, पौडर वाले दुद्ध दी मलाई मार गई
राशन वाली लैन दी लम्बाई मार गई, जनता जो चीखी चिल्लाई मार गई, बाकी कुछ बचा तो मंहगाई मार गई, मंहगाई मार गई...
गरीब को तो बच्चों की पढ़ाई मार गई, बेटी की शादी और सगाई मार गई
किसी को तो रोटी की कमाई मार गई, कपड़े की किसी को सिलाई मार गई
किसी को मकान की बनवाई मार गई,
मंगलवार, 7 अप्रैल 2009
प्रजातंत्र, चुनाव और जूता..
सच में अगर यह कल की घटित घटना है भी तो इस दुर्घटना से ज़्यादा कल आम दिनों की तरह ही हर टीवी चैनल आने वाले चुनावों के प्रति ही समर्पित दिखाई दिया॥ अरे हाँ कुछ एक चैनल तो राजनेताओं की तिजोरियों का लेखा-जोखा दर्शकों के सामने पेश कर समझ रहे थे कि लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहलाने का उनका उत्तरदायित्व पूरा हुआ॥ इतना कर देने से जनजागृति की मशाल जल उठेगी और आने वाले चुनावों में कोई चमत्कार होगा॥ और शायद दूर किसी अन्य लोक से कोई नई सरकार ज़मीं पर उतर आएगी॥ जो बोट द्वारा मुंबई में घुसपैठ कर आतंक का नंगा नाच खेलने वालों और पड़ोसी देश में बैठे उनके आकाओं के खिलाफ आखरी और निर्णायक कदम उठाएगी॥
क्या हर बार नेताओं की जमा पूंजी का ब्यौरा जनता को देने से और "एक्जिट पोल" पर आधारित कुछ एक समय गवाओं कार्यक्रम प्रसारित करने से हमारा लोकतंत्र को एक सही दिशा और सरकार मिल जायेगी??
क्या मीडिया का ये फ़र्ज़ नही के वो चुनाव से पहले हर नेता की "टेरीटरी" में जायें और वहां की जनता से पूछे कि क्या पाँच साल पहले उनसे किए गए वादे पुरे हुए हैं?? पिछले पाँच सालों में इलाके के नेता ने कितनी बार अपना चेहरा जनता को दिखाया है?? किस नेता के इलाके में उन्नति हुई और कहाँ की जनता के दामन में आज भी सिवाए आक्रोश के और कुछ नही है?? संसद में किस नेता की हाज़री कितनी रही??
क्या फरक पड़ता है सरकार चाहे भाजपा की हो या कांग्रेस की?? देश में भिखारिओं का बिसिनेस और उनकी संख्या बढाती रहेगी, सरकारी स्कूलों के नाम पे चलने वाली बिना पहिये की बैलगाडी की हालत बद से बदतर होती रहेगी, अल्प संख्यकों के नाम पर होने वाली राजनीति में दो चार नए मुद्दे जुड़ते रहेंगे, पेट्रोल का दाम बढ़ता रहेगा और रुपये की कीमत डॉलर के मुकाबले कम होती रहेगी, आतंकवाद और कश्मीर के मुद्दे तो हर सरकार की पाली हुई रखैल पहले भी थे तब भी रहेंगे॥ इसके बिना किसी भी राजनितिक दल का न तो पकिस्तान में गुज़ारा है ना ही भारत में॥ क़र्ज़ और महंगाई के मारे किसान खुदकुशी करते रहेंगे॥ ८४ के दंगो में ६००० से ज़्यादा नरसंहार करवाने वालों को २४ साल बाद चुनाव से ठीक पहले क्लीन चिट मिलती रहेगी और "जरनैल सिंह" जैसे पत्रकार ख़ुद अपने ही समाज का देश की सरकार के हाथों चिर हरण होता देख एक-आधा जूता किसी गृह मंत्री पे फेंके अपनी बेबसी का इज़हार करते रहेंगे और हम ब्लॉग लिखने वाले अपने कंप्यूटर बैठ कर अपने दिल और दिमाग में उठते तूफान को ऐसे ही किसी पोस्ट में लिख कर फिर अगले विषय के बारे में सोचते रहेंगे॥ और प्रजातंत्र चुनाव और जूतों का खेल यु ही चलता रहेगा॥