मंगलवार, 7 अप्रैल 2009

प्रजातंत्र, चुनाव और जूता..

सुना है की कल असम में कोई बम्ब ब्लास्ट वगैरह हुआ था॥ और कोई ८-९ लोग मारे भी गए थे॥ टीवी तो मैंने कल भी देखा था मगर शायद मीडिया उस ख़बर से ज़यादा प्रभावित नही हुआ इसलिए मीडिया की भट्टी असम ब्लास्ट के अंगारे ज़्यादा गरम नही हुए॥ ये भी मुझे आज पता चला॥ अपने के पी एस गिल साहब से द्वारा॥ अभी अभी जब वो आज की सबसे बड़ी ब्रेकिंग न्यूज़ "गृह मंत्री पर चला जूता" के बारे में अपनी निष्पक्ष राय टीवी पत्रकारों को दे रहे थे॥ तब उन्होंने इस जूतागिरी के नए फैशन की निंदा की और साथ ही एक अहम् सवाल उठाया की इस जूतेके पीछे पूरा मीडिया समाज क्यों जुटा हुआ है॥ इतनी हलचल मीडिया में कल क्यों नही हुई जब असम में बम्ब ब्लास्ट हुआ?? कई लोग ज़ख्मी हुए और मारे भी गए??
सच में अगर यह कल की घटित घटना है भी तो इस दुर्घटना से ज़्यादा कल आम दिनों की तरह ही हर टीवी चैनल आने वाले चुनावों के प्रति ही समर्पित दिखाई दिया॥ अरे हाँ कुछ एक चैनल तो राजनेताओं की तिजोरियों का लेखा-जोखा दर्शकों के सामने पेश कर समझ रहे थे कि लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहलाने का उनका उत्तरदायित्व पूरा हुआ॥ इतना कर देने से जनजागृति की मशाल जल उठेगी और आने वाले चुनावों में कोई चमत्कार होगा॥ और शायद दूर किसी अन्य लोक से कोई नई सरकार ज़मीं पर उतर आएगी॥ जो बोट द्वारा मुंबई में घुसपैठ कर आतंक का नंगा नाच खेलने वालों और पड़ोसी देश में बैठे उनके आकाओं के खिलाफ आखरी और निर्णायक कदम उठाएगी॥
क्या हर बार नेताओं की जमा पूंजी का ब्यौरा जनता को देने से और "एक्जिट पोल" पर आधारित कुछ एक समय गवाओं कार्यक्रम प्रसारित करने से हमारा लोकतंत्र को एक सही दिशा और सरकार मिल जायेगी??
क्या मीडिया का ये फ़र्ज़ नही के वो चुनाव से पहले हर नेता की "टेरीटरी" में जायें और वहां की जनता से पूछे कि क्या पाँच साल पहले उनसे किए गए वादे पुरे हुए हैं?? पिछले पाँच सालों में इलाके के नेता ने कितनी बार अपना चेहरा जनता को दिखाया है?? किस नेता के इलाके में उन्नति हुई और कहाँ की जनता के दामन में आज भी सिवाए आक्रोश के और कुछ नही है?? संसद में किस नेता की हाज़री कितनी रही??
क्या फरक पड़ता है सरकार चाहे भाजपा की हो या कांग्रेस की?? देश में भिखारिओं का बिसिनेस और उनकी संख्या बढाती रहेगी, सरकारी स्कूलों के नाम पे चलने वाली बिना पहिये की बैलगाडी की हालत बद से बदतर होती रहेगी, अल्प संख्यकों के नाम पर होने वाली राजनीति में दो चार नए मुद्दे जुड़ते रहेंगे, पेट्रोल का दाम बढ़ता रहेगा और रुपये की कीमत डॉलर के मुकाबले कम होती रहेगी, आतंकवाद और कश्मीर के मुद्दे तो हर सरकार की पाली हुई रखैल पहले भी थे तब भी रहेंगे॥ इसके बिना किसी भी राजनितिक दल का न तो पकिस्तान में गुज़ारा है ना ही भारत में॥ क़र्ज़ और महंगाई के मारे किसान खुदकुशी करते रहेंगे॥ ८४ के दंगो में ६००० से ज़्यादा नरसंहार करवाने वालों को २४ साल बाद चुनाव से ठीक पहले क्लीन चिट मिलती रहेगी और "जरनैल सिंह" जैसे पत्रकार ख़ुद अपने ही समाज का देश की सरकार के हाथों चिर हरण होता देख एक-आधा जूता किसी गृह मंत्री पे फेंके अपनी बेबसी का इज़हार करते रहेंगे और हम ब्लॉग लिखने वाले अपने कंप्यूटर बैठ कर अपने दिल और दिमाग में उठते तूफान को ऐसे ही किसी पोस्ट में लिख कर फिर अगले विषय के बारे में सोचते रहेंगे॥ और प्रजातंत्र चुनाव और जूतों का खेल यु ही चलता रहेगा॥




Picture Courtesy: http://www.allvoices.com

3 टिप्‍पणियां:

  1. जिस देश के नेतागण देश की नंगी तस्वीर दुनिया को दिखाने पर ही तुले हो उनसे देश की भलाई की क्या अपेक्षा की जा सकती हे?इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद देल्ही मे वही नेता लोग थे जो साथ रहकर जनता को उक्षा रहे थे सीखो के खिलाफ और तकरीबन 2033 सीखो की हत्या करवाई गई,कश्मीर तो इनकी दाल रोटी का जुगाड़ करने का सहारा ही बना हे ये किसा जलता रखेंगे नही तो कैसे अपनी जॉली को भरते रहे गे,देश को दुनिया मे प्रतिस्था देने के लिए , आम आदमी की अपेक्षाओ को पूरा करने के लिए जनता उन्हे चुनती हे और कुर्शी तक पहुँचाती हे मगर इन लोगो की निगाहे वही टिकी रहती हे जहा से उनकी जॉली भरती हे,चुनाव क्षेत्र का दौरा करने की उन्हे ज़रूरत ही कहा हे जहा देश की जनता सिर्फ़ बाते करके ही चुप रहती हे,कौन हे जो सवाल करता हे अपने इलाक़े के प्रत्याशी को की क्या किया उसने जनता के लिये.सब तालिया बजाके तमाशा देखते हे और फिर जुट जाते हे अपनी ज़िंदगी के दो छ्होर को मिलाने मे.बिल्कुल सही कहा हे आपने हम भी तो वही करते हे अपने दिल की भदाश ब्लॉग पर निकालते हे और फिर चुपि साध के बेथ जाते हे....

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  2. अधिकाँश जनता न्यूज नहीं सनसनी देखना चाहती है और तमाम मीडिया तंत्र इसी को भुनाने में लगा हुआ है. देश में "गृह मंत्री पर जूता फेंके जाने" और "दिल्ली में एक लडकी से बलात्कार" से ज्यादा महत्वपूर्ण खबरें भी हैं इस देश में पर उनमें सनसनी नहीं है इसलिए कोइ उन्हें दिखाना नहीं चाहता.

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  3. i agree with you. we all are making fun out of our democracy. no one is serious about country or its future. and media is playing a fantastic role to make things worse. We are more concerned about our fundamental rights but no one even bother to pay a heed to our moral duties.

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