शुक्रवार, 28 मई 2010

कारगिल युद्ध : इतिहास बदलना होगा

रिटायर्ड ब्रिगेडियर देवेंद्र सिंह को मिले इन्साफ से ये जाहिर हो गया है कि १९९९ में पाकिस्तान के साथ हुए कारगिल युध्ह का इतिहास फिर से लिखना पड़ेगा क्योंकि पूर्व लेफ्टिनेंट जनरल किशन पाल ने अपनी वर्दी पर चंद मेडल टांगने की मंशा से पुरे देश को भ्रम में रखा।
ब्रिगेडियर देवेंद्र सिंह ने बटालिक सेक्टर से सबसे पहली बार पाकिस्तानी घुसपैठ होने की आशंका व्यक्त की थी लेकिन लेफ्टिनेंट जनरल किशन पाल ने न सिर्फ उनकी चेतावनी को अनदेखा किया बल्कि लेफ्टिनेंट सौरभ कालिया और उनके साथियों के गुमशुदा होने कि बात भी सरकार से छुपाये रखी। इस कलयुगी रक्षक (जनरल किशन पाल) के झूट के कब्रिस्तान में कई ऐसे सच दफ़न है जिन्हें सुन कर न सिर्फ सर शर्म से झुक जाता है बल्कि दिल करता है कि ऐसे लोगों को कड़ी से कड़ी सजा दे कर न सिर्फ सेना और देश के सामने बल्कि पुरे विशव के सामने एक मिस्साल कायम की जानी चाहिए।
जनरल किशन पाल के झूठ की और कई दस्तानो के कच्चे चिट्ठे निचे दिये लिंक में पढ कर आप खुद ही अंदाज़ा लगाईये कि इस इंसाने के साथ क्या सलूक किया जाये??

http://kashmir-timemachine.blogspot.com/2010/05/gen-pal-should-his-head-not-hang-in_27.html

बुधवार, 12 मई 2010


“हॉउस फुल एंड बदमाश कम्पनी इज ए हिट” और जहाँ तक हम सभी जानते हैं इन फिल्मों के हिट होने में इनके हीरो -हिरोइन के इश्क की झूठी अफवाहों का कोई योगदान नहीं । दोनों ही फिल्मों में ज़रूरत के हिसाब से सटीक और कसावदार स्टोरी, डायलाग, निर्देशन और अभिनय के कमाल ने दर्शकों के दिल में कुछ ऐसा धमाल मचाया कि दोनों फिल्मों ने इस साल की सुपर-डुपर हिट फिल्मों की श्रेणी में अपना स्थान सुनिश्चित कर लिया।क्या इन फिल्मों की सफलता “लव स्टोरी २०५०”, “किस्मत कनेक्शन” जैसी फ्लॉप फिल्मों के निर्माता-निर्देशकों को सफल फिल्मों के रास्ते का सही दिशा ज्ञान दे पायेगी?? कुछ फ़िल्मकार फिल्म की रिलीज़ से पहले हीरो-हिरोइन के इश्क़ के चर्चों को hi फिल्म की सफलता मज़बूत करनेवाला एक कलपुर्जा मानते हैं.. लेकिन ये तो संभव है कि हीरो हिरोएँ के इश्क के चर्चे किसी अख़बार या पत्रिका कि साल्स बाधा दे पर करोड़ों कि लगत से बनानेवाली फिल्मों को दर्शक यूँ ही सुपर हित होता
आम जनता की जिंदगी में कोई रस नहीं है। इसीलिए वह इस तरह की अफवाहों में रुचि लेती है।
यह बीमारी हमारे यहाँ विदेशों से आई है। वहाँ भी जब कोई फिल्म बन रही होती है, तभी से प्रचार विभाग के कल्पनाकार अफवाहें उड़ाने लगते हैं। इन अफवाहों का पैटर्न यही होता है कि फलाँ हीरो, फलाँ हीरोइन के साथ अमुक जगह पर देखा गया और ज़रूर इनके बीच कुछ पक रहा है। इन अफवाहों का आधार होता है कि अमुक फिल्म में दोनों काम कर रहे हैं और वहीं सेट पर दोनों की दोस्ती हुई। आप गौर करेंगे तो पाएँगे कि फिल्म पत्रिकाओं के मुताबिक जब भी कोई हीरो, किसी हीरोइन के साथ कोई फिल्म कर रहा था, उस दौरान दोनों के बीच इश्क भी पनप रहा था। हरमन बावेजा और प्रियंका चोपड़ा को लेकर भी यही कहा गया था। shahid kapoor और प्रियंका को लेकर भी यही कहा गया। सो, प्रचार के लिए इससे सस्ता कुछ हो ही नहीं सकता। अगर किसी पत्रिका या अखबार में फिल्म का विज्ञापन देना हो तो सेंटीमीटर के हिसाब से जगह खरीदनी पड़ती है, मगर इस तरह मुफ्त में ही करोड़ों का प्रचार हो जाता है। इन अफवाहों को फैलाने के लिए एजेंसियाँ हैं और ये एजेंसियाँ उन पत्रकारों को उपकृत करती हैं, जो ऐसी अफवाहें छापते हैं या उन्हें छपवाने की व्यवस्था करते हैं।असल बात तो यह है कि "काइट्स" के सेट पर प्यार नहीं, झगड़ा चलता रहता है। वह भी निर्माता निर्देशक के बीच। हमेशा सेट पर रहने वाले फिल्म के निर्माता राकेश रोशन फिल्म के निर्देशक अनुराग बसु को सुझाव और सलाहें देते रहते हैं। पिछले दिनों फिल्म से दो गीत भी निकाल दिए। दोनों के बीच खटपट चलती ही रहती है। बसु अपने मन का काम करने के लिए आज़ादी चाहते हैं, जो राकेश रोशन देते नहीं हैं। बहरहाल, फिल्म के पोस्टर जारी हो गए हैं और पोस्टर बेहद आकर्षक हैं। देखना है "काइट" आसमान देखती है या उड़ते ही कटकर ज़मीन पर गिरती है।

हॉउस फुल एंड बदमाश कम्पनी इज हिटऔर जहाँ तक हम सभी जानते हैं इन फिल्मों को हिट करने में इन दोनों फिल्मों केलिए नायक और नायिका के इश्क कि अफवाहों नहीं उड़ानी पड़ी. दोनों ही फिल्मों में ज़रूरत के हिसाब से सटीक और कसावदार कहानी, सम्वाद, निर्देशन और अभिनय के कमाल ने दर्शकों के दिल में कुछ ऐसा धमाल मचाया कि ये फिल्में इस साल कि सुपर-डुपर हित फिल्मों कि श्रेणी में अपना स्थान सुनिश्चित कर चुकी हैं.
क्या इन फिल्मों कि सफलतालोव स्टोरी २०५०”, “किस्मत कनेक्शनजैसी फ्लॉप फिल्मों के निर्माता-निर्देशकों को सफल फिल्मों के रस्ते का दिशा ज्ञान दे पायेगी?? कुछ फ़िल्मकार फिल्म कि रिलीज़ से पहले हीरो-हिरोएँ के इश्क के चर्चों को फिल्म कि सफलता को मज़बूत करनेवाला एक कलपुर्जा मानते हैं.. लेकिन ये तो संभव है कि हीरो हिरोएँ के इश्क के चर्चे किसी अख़बार या पत्रिका कि साल्स बाधा दे पर करोड़ों कि लगत से बनानेवाली फिल्मों को दर्शक यूँ ही सुपर हित होता
आम जनता की जिंदगी में कोई रस नहीं है। इसीलिए वह इस तरह की अफवाहों में रुचि लेती है।
यह बीमारी हमारे यहाँ विदेशों से आई है। वहाँ भी जब कोई फिल्म बन रही होती है, तभी से प्रचार विभाग के कल्पनाकार अफवाहें उड़ाने लगते हैं। इन अफवाहों का पैटर्न यही होता है कि फलाँ हीरो, फलाँ हीरोइन के साथ अमुक जगह पर देखा गया और ज़रूर इनके बीच कुछ पक रहा है। इन अफवाहों का आधार होता है कि अमुक फिल्म में दोनों काम कर रहे हैं और वहीं सेट पर दोनों की दोस्ती हुई। आप गौर करेंगे तो पाएँगे कि फिल्म पत्रिकाओं के मुताबिक जब भी कोई हीरो, किसी हीरोइन के साथ कोई फिल्म कर रहा था, उस दौरान दोनों के बीच इश्क भी पनप रहा था। हरमन बावेजा और प्रियंका चोपड़ा को लेकर भी यही कहा गया था। shahid kapoor और प्रियंका को लेकर भी यही कहा गया। सो, प्रचार के लिए इससे सस्ता कुछ हो ही नहीं सकता। अगर किसी पत्रिका या अखबार में फिल्म का विज्ञापन देना हो तो सेंटीमीटर के हिसाब से जगह खरीदनी पड़ती है, मगर इस तरह मुफ्त में ही करोड़ों का प्रचार हो जाता है। इन अफवाहों को फैलाने के लिए एजेंसियाँ हैं और ये एजेंसियाँ उन पत्रकारों को उपकृत करती हैं, जो ऐसी अफवाहें छापते हैं या उन्हें छपवाने की व्यवस्था करते हैं।असल बात तो यह है कि "काइट्स" के सेट पर प्यार नहीं, झगड़ा चलता रहता है। वह भी निर्माता व निर्देशक के बीच। हमेशा सेट पर रहने वाले फिल्म के निर्माता राकेश रोशन फिल्म के निर्देशक अनुराग बसु को सुझाव और सलाहें देते रहते हैं। पिछले दिनों फिल्म से दो गीत भी निकाल दिए। दोनों के बीच खटपट चलती ही रहती है। बसु अपने मन का काम करने के लिए आज़ादी चाहते हैं, जो राकेश रोशन देते नहीं हैं। बहरहाल, फिल्म के पोस्टर जारी हो गए हैं और पोस्टर बेहद आकर्षक हैं। देखना है "काइट" आसमान देखती है या उड़ते ही कटकर ज़मीन पर आ गिरती है।

शनिवार, 8 मई 2010

तेरे पास कौन सी माँ है भाई - "मदरइंडिया" की नर्गिस या "शूटआउट" की अमृता सिंह??

..
आज मेरे पास है बंगला है, गाड़ी है, बैंक बैलेंस है, तेरे पास क्या है भाई?? हंई??
भाई, मेरे पास “माँ” है!!
फिल्म "दीवार" केलिए ये संवाद लिखते वक़्त शायद खुद जावेद अख्तर ने भी इनकी गहराई, असर और लोकप्रियता का अनुमान नहीं लगाया होगा।आज अगर कभी ये डायलाग सुनो तो पूछने का मन करता है कि “कौन सी वाली माँ है तेरे पास” ??
फिल्म "मदर इंडिया" की “नर्गिस” जिसने शादी के बाद पति के घर कदम रखते ही भविष्य के सुनहरे सपने बुनने की जगह मुसीबतों और दुखों के पहाड़ काटने शुरू कर दिये, जिसने गाँव की किसी लड़की की इज्ज़त बचाने की खातिर अपने ही हाथों अपने जवान बेटे की जान ले ली।
या फिर फिल्म "दीवार" की माँ “निरूपा रॉय”?? जिसके दो बेटों में से एक धोखे और गैर कानूनी ढंग से कमाई काली दौलत के दम पर ऐशो आराम की ज़िन्दगी जीना पसंद करता है और दूसरा तंगहाली मगर इमानदारी के रास्ते पर चलकर खुद को धन्य समझता है और वो माँ भी अपने दूसरे बेटे के साथ फटे हाल ज़िन्दगी गुज़ारना ज़यादा पसंद करती है।
या फिर हो सकता है कि ये माँ “मैंने प्यार किया” फिल्म की रीमा लागू हो जो पैसे और सामाजिक रुतबे को एहमियत देने वाले अपने पति के असूलों के खिलाफ अपने बेटे का साथ देती है, वो "माँ" जोकि सामाजिक प्रतिष्ठा से ज्यादा पारिवारिक मूल्यों को इम्पोर्टेंस देते हुए एक मध्यम वर्गीय परिवार की लड़की को अपनी बहु के रूप में इसलिए स्वीकार करती है क्योंकि वो उसके बेटे की पसंद है। ये माँ न सिर्फ अपने बेटे को उसी के पिता के खिलाफ जाके "सही" का साथ देने की हिमाकत करती है बल्कि उसे उस मध्यम वर्गीय परिवार की लड़की के स्वाभिमानी पिता द्वारा तय कसौटी पर खरा उतरने केलिए भी प्रेरित करती है। इस माँ को अपने बेटे की जीत पर भरोसा है इसलिए वो अपने खानदानी कंगन बेटे को देते हुए कहती है कि जाके ये कंगन मेरी बहु को दे देना।
ये माँ “दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे” की फरीदा जलाल भी तो हो सकती है। जो अपने पति के खिलाफ खुले आम बगावत तो नहीं कर सकती इसलिए अपनी बेटी से कहती है कि खानदान के मान-सम्मान केलिए उसे अपनी खुशियों की बलि देने कोई ज़रूरत नहीं, उसकी बेटी को हक है अपनी पसंद के लड़के केसाथ ज़िन्दगी जीने का। ये माँ अपनी ही बेटी को शादी का मंडप छोड़ के अपने प्रेमी के साथ भाग जाने को कहती है।
या ये माँ लीक से बिलकुल हटके फिल्म “शूटआउट एट लोखंडवाला” की अमृता सिंह हैं। जो अपने बेटे को ऊँगली पकड़ के जिस रास्ते पर चलना सिखाती है वो रास्ता जुर्म और गुनाह की गलियों से होते हुए फांसी के फंदे पर जाके ख़तम होता है। जो अपने उसी ही बेटे के हाथ में कलम की जगह बन्दूक पकडाती है और जब भी वो किसी बेगुनाह का खून करके घर वापिस आता है तो हर माँ की तरह वो भी अपने हाथों से हर वो चीज़ बनाती है जो उसके बेटे को खाने में पसंद है।
हिंदी फिल्म इतिहास के परदे पर समय-समय पर अवतरित होने वाली "माँ" ये विभिन्न अवतार हैं। ये वो माएं है जिनकी प्रसिद्धि और लोकप्रियता के आगे कई नामी-गिरामी हिरोइनो के लटके-झटके भरे किरदार भी पानी भरते नज़र आते हैं। हिंदी फिल्मों के सौ साला इतिहास में भारतीय दर्शकों ने हर किस्म की माँ के दर्शन किये। "माँ" इस एक शब्द की चादर ओढनेवाली अभिनेत्री का चरित्र, रूप, हालत और बोली जो भी dइकहाई जाये मगर उसके दिल में अपने बच्चे के लिए प्यार का असीम सागर कभी सूखा नहीं दिखाया जाता। और बच्चा भी हर हाल में अपनी माँ की कही बात को पत्थर की लकीर समझता है। फिल्म "मदर इंडिया" की नर्गिस से लेकर लेकर "शूट आउट एट लोखंडवाला" की अमृता सिंह द्वारा अभिनीत माँ के हर किरदार की उम्मीदों पर उसके बेटे/बेटी को खरा उतरना ही पड़ता है। फिल्मों में औरत कि छवि में फर्श से अर्श तक का बदलाव भले ही आया हो लेकिन वो औरत जैसे ही “माँ” बनती है तो उसकी छवि हिमालय जैसी झक सफेद और गंगा की माफिक पवित्र हो जाती है।
पश्चिमी फिल्मों से से कई तरह की गन्दगी से हमरी देसी फिल्में बुसी तरह प्रभावित और क्षतिग्रस्त हुयी। फिर भी अगर किसी प्रयोगात्मक कहानी का वास्ता देते हुए कोई कोई निर्माता-निर्देशक अपनी किसी फिल्म में हीरो की अधेड़/विधवा माँ को अपने प्रेमी से इश्क लड़ाते हुए दिखाने की जुर्रत कर भी ले तो हमारा दर्शक वर्ग इतनी कडवी गोली निगलने को अभी तैयार दिखाई नहीं देता। फिल्मी माँओं में बदलाव तो आया है, पर इतना नहीं कि निरूपा राय की जगह मल्लिका शेरावत या मलायका अरोड़ा ले ले।
वर्तमान फिल्मों में माँ का निरूपा राय वाला रूप तो खैर अब नहीं रहा। लेकिन फिल्मी माँओं को इतना ही आधुनिक दिखाया जाता है कि वह अपन बेटा-बेटी यानि नायक-नायिका की आधुनिकता को हंसी-ख़ुशी बर्दाश्त कर लें। मदार्स दे के अवसर पर फ़िल्मी भगवानो से येही प्रार्थना है की वो आनेवाले समय में कहानी की मांग के नाम पर कम से कम "माँ" के पावन रूप को तो ज़यादा पतित न दिखाएं।

शुक्रवार, 7 मई 2010

२६/११ - कुछ फैसले अभी बाकी हैं..

२६/११ का काला अतीत इतिहास के पन्नो में दर्ज हो चुका है। ६/०४ का दिन उसी काले अतीत को रचने वाले के भविष्य का फैसला करने केलिए इतिहास में सुनहरे अक्षरों से लिखा जा चुका है। कसाब जोकि सरहद पार से भेजा गया पार्सल था उसकी मौत तो निश्चित हो चुकी है लेकिन सरहद के भीतर बैठे उन नकाबपोशों का क्या जो इस देश की नीव को दीमक बनके खोखला कर रहे हैं?? उनकेलिए न तो कोई केस दर्ज हुआ, न ही हमें उनके गुनाहों की खबर है इसलिए उनकी सजा मुक़र्रर होने का इंतज़ार हमें हो ये सवाल ही पैदा नहीं होता।
२६/११ के दौरान शहीद हुए हमारे जांबाज़ सिपाहियों की शहादत केलिए क्या सिर्फ कसाब ही ज़िम्मेदार है?? उस काली रात के अँधेरे में और भी बहुत कुछ ऐसा घटित हुआ जिससे हम सब बेखबर हैं?? इस ब्लॉग लिंक को पढ़ कर शायद काफी सवालों के जवाब हमारे सामने खुद-बी-खुद बेपर्दा हो जायेंगे।

http://kashmir-timemachine.blogspot.com/2010/05/kasab-and-mumbai-police.html

सोमवार, 3 मई 2010

खेल ब्रेकिंग न्यूज़ का..

एक दौर था जब स्वर्गीय एस पी सिंह द्वारा संचालित कार्यक्रम "आजतक" आजकल के डेली सोप कि तरह ही लोगों कि ज़िन्दगी का हिस्सा था। उस आधे घंटे के कार्यक्रम कि ख़बरों में एक जोश, एक सच्चाई, एक निर्भयता का एहसास होता था। वो एक एस पी सिंह और एक "आजतक" मिल कर आधे घंटे तक १०० करोड़ लोगों कि नब्ज़ थाम लेते थे। जबकि आज सकड़ों टी वी पत्रकार और बीसियों आधे घंटे के न्यूज़ कार्यक्रम मिल कर भी दर्शकों का तिल भर भी विश्वास नहीं जीत पाते। कहने को हर आधे घंटे बाद चिल्ला चिल्ला कर ब्रेकिंग न्यूज़ का एलान किया जाता है पर क्या हकीकत में ब्रेकिंग न्यूज़ के नाम पर दिखाई जाने वाली हर खबर ही असली खबर होती है?? क्या है ब्रेकिंग न्यूज़ का खेल। इसका अंदाज़ा आप यहाँ नीचे दिये गए ब्लॉग लिंक को पड़ कर आप लगा सकते हैं.

http://kashmir-timemachine.blogspot.com/2010/05/tv-news.html