शनिवार, 25 जुलाई 2009

सत्तर के उस पार क्या है??

कुछ लोग होते हैं जो दूसरों की मिसाल या उदाहरण दे कर ज़िन्दगी जीते हैं और कुछ लोग वो होते हैं जो जीते जी औरों के लिए एक मिसाल बन जाते हैं। ज़िन्दगी के हर मोड़ पार कुछ न कुछ नया, प्रगतिशील और जीवंत उदाहरण बनने का मनो इन लोगों में एक जूनून सा होता है। इन् लोगों पर उम्र कभी हावी नहीं होती बल्कि ये लोग हर हाल में अपनी उम्र पर हावी हो के ये सोचने पर मजबूर कर देते हैं की क्या सचमुच ये लोग ७० का आंकडा पार कर चुके हैं??
बात की शुरुआत करते हैं पहली बार ऑस्कर पुरस्कार समिति को एक हिन्दी गीत गुनगुनाने और समझने पार मजबूर करने वाले सम्पूरण सिंह कालरा यानी हम सब के अपने "गुलज़ार साहब" से। करीब तीन साल पहले उम्र की ७०वीं देहलीज़ पार कर चुके गुलज़ार साहब जैसे अब आदी हो चुके हैं अपने गीतों से हर साल एक नया इतिहास रचने की। कहानी, संवाद लेखन से लेकर गीत रचना, फ़िल्म निर्माण-निर्देशन, मानों हर जगह गुलज़ार साहब अपना नाम देखने आदत पड़ गई है। पुरस्कारों के मामले में भी इनकी अभिलाशों के बाल अभी भी पके नहीं हैं। गौरतलब है की अपनी कलम को अपनी पहचान बनाने से पहले गुलज़ार साहब एक कार गैरेज में काम करते थे। इनकी कभी न ख़तम होने वाली पारी और कितनी बार दुनिया को इनकी जय बुलाने पर मजबूर करेगी ये कहना मुश्किल है।
आगे बात करते हैं मंगेशकर बहनों की। सत्तर बसंत इन्होने बस यूँ हीं गाते-गुनगुनाते, हम सब का दिल बहलाते कब और कैसे बिता दिए ये किसी को भी पता नहीं चला। विविध भाषाओं वाले देश भारत की किस-किस भाषा के गीतों को इन्होने अपनी जादुई आवाज़ से सजाया है ये कहने से बेहतर होगा ये तलाशा जाए कि कौन सी भाषा में इन् दोनों बहनों संगीत कि साधना नहीं की ? फिल्मफेर, राष्ट्रिय पुरस्कार, दादा साहब फाल्के पुरस्कार इनके लिए मानों हर साल उगने वाली फसलों की तरह हैं। पुरस्कारों कि भीड़ का सामना करते-करते ये बहने भले ही थक चुकी हों लेकिन इनके चाहनेवाले इनकी आवाज़ के जादू से अभी थके नहीं हैं।
ज़िन्दगी में ७० दशकों के बाद एक नई जवानी की बुनियाद रखने वालों में फ़िल्म जगत ही अग्रणीय है ऐसा नहीं है। चौदवी और पन्द्रहवीं लोक सभा में कांग्रेस के सर पर जीत का सेहरा बांधने वाले और पूरे देश को "सिंग इस किंग" का नारा देने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की उपलब्धियों की सूची इनकी उम्र में दर्ज सालों से भी बड़ी हो चुकी है। और वहीँ ७० जमा १० अस्सी के आंकडे को भी छू चुके श्री लाल कृष्ण आडवानी ने तो अपनी जोश और नेतृत्व से अपने से आधी उम्र के राहुल गाँधी तक को अपनी लोकप्रियता और सूझ-बुझ के प्रति आशंकित कर दिया था। देव आनंद, मकबूल फ़िदा हुसैन, जोहरा सहगल, भीम सेन जोशी, दारा सिंह, यश चोपडा ये वो नाम हैं जो आज की युवा पीढी को ये सोचने पर मजबूर करते देते हैं कि क्या इनसे दुगने जोश और सकारात्मक परिस्थितियों के बावजूद वो लोग इनके हौसलों को कहीं रत्ती भर भी छू सके हैं। आखिर इन हरफनमौला, ७०+नौजवानों की ढलती उम्र में चढ़ते जादू का राज़ जानने की क्या कभी हमारे युवा कोशिश करेंगे??

मंगलवार, 21 जुलाई 2009

जम्मू कश्मीर पुलिस-कौन सुने फरियाद??

कहते है की कुरुक्षेत्र में श्रीमद्भागवत गीता का उपदेश देते हुए भगवन श्री क्रिशन ने कहा था की कलियुग में गाय, ब्राह्मण और देवताओं का सम्मान और इनपर लोगों की आस्था ख़तम हो जायेगी।
पर लगता है कलियुग की काली छाया अब पुलिस महकमें पर भी पड़ने लगी है। जिसका जीता-जगता सबूत है शोपियां (जम्मू-कश्मीर) में हुए दोहरे बलात्कार और खून की वारदात के बाद वहां हुई पुलिस-अधिकारीयों की गिरफतारी।
हैरत की बात है की जिस पुलिस महकमें का काम बेबस और अत्याचार के सताए लोगों की फरियाद सुनना है वही पुलिस जब ख़ुद बेबसी के चक्रव्यूह में फँस जाए तो वो अपनी गुहार कहाँ लगाये ??
क्या गुस्से में बौखलाई जनता या यूँ कहें की चंद मतलबपरस्त लोगों की शातिर चाल का मोहरा बनी जनता-जनार्दन की आँखों में पट्टी बांधने केलिए ये कदम उठाये गए हैं या फिर अपना उल्लू सीधा करने केलिए कोई ठोस कारवाही की घोषणा को सच साबित करने के लिए प्रशासन ने ये कदम उठाये हैं??
शोपियां की तस्वीर का दूसरा पहलू नीचे दिए लिंक पर लिखे पोस्ट से उजागर होता है....

http://kashmir-timemachine.blogspot.com/2009/07/satya-mev-jyate.html

शुक्रवार, 3 जुलाई 2009

कारगिल युद्घ और दोराहे पर खड़ी ज़िन्दगी..

पत्रकारिता एक ऐसा जगत है जहाँ जितना भी अच्छा काम कर किया जाए मगर समाज के हरेक एक तबके को आप संतुष्ट और खुश कर सको ये सम्भव नहीं है। लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ पत्रकारिता का सबसे बड़ा उसूल और मकसद सिर्फ़ सामाजिक बुराइयों से पर्दाफाश करना ही नहीं होता बल्कि यदि एक पत्रकार चाहे तो उसकी कलम बेसहारों या बेगुनाहों को न्याय दिलाने केलिए ब्रह्मस्त्र का भी काम कर सकती है।
लेकिन क्या होता है तब जब स्वयं एक पत्रकार परिस्थितियों के चक्रव्यूह में फँस जाता है। ये सच है कि अक्सर पत्रकारों की ज़िन्दगी उन्हें दोराहे पर खड़ा कर देती है जहाँ कर्तव्य और इंसानियत में से एक का चुनाव करना किसी दोधारी तलवार पर चलने से कम नहीं।
पर शायद ज़िन्दगी इसी का नाम है। इन्सान को हमेशा दोराहे पर खड़ा करने की आदत है ज़िन्दगी को। दो ग़लत रास्तों में से मुनासिब और दो सही रास्तों में से बेहतर का चुनाव ही ज़िन्दगी है। कारगिल की लडाई के दोरान ऐसे ही दोराहे पर खड़े पत्रकार की आपबीती पढ़ कर मुझे भी लगा कितनी आसानी से हमलोग 'मीडिया' या इसमें काम करने वाले लोगों की आलोचना करते रहते हैं मगर पत्रकार भी एक इंसान होता है और कई बार उसका ज़मीर भी कर्तव्य निर्वाह में उसका साथ देने से इंकार कर देता है॥

पत्रकार का संस्मरण पढने केलिए यहाँ क्लिक करें....
http://kashmir-timemachine.blogspot.com/2009/07/lt-saurabh-kalia-story-behind-his.html