शुक्रवार, 3 जुलाई 2009

कारगिल युद्घ और दोराहे पर खड़ी ज़िन्दगी..

पत्रकारिता एक ऐसा जगत है जहाँ जितना भी अच्छा काम कर किया जाए मगर समाज के हरेक एक तबके को आप संतुष्ट और खुश कर सको ये सम्भव नहीं है। लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ पत्रकारिता का सबसे बड़ा उसूल और मकसद सिर्फ़ सामाजिक बुराइयों से पर्दाफाश करना ही नहीं होता बल्कि यदि एक पत्रकार चाहे तो उसकी कलम बेसहारों या बेगुनाहों को न्याय दिलाने केलिए ब्रह्मस्त्र का भी काम कर सकती है।
लेकिन क्या होता है तब जब स्वयं एक पत्रकार परिस्थितियों के चक्रव्यूह में फँस जाता है। ये सच है कि अक्सर पत्रकारों की ज़िन्दगी उन्हें दोराहे पर खड़ा कर देती है जहाँ कर्तव्य और इंसानियत में से एक का चुनाव करना किसी दोधारी तलवार पर चलने से कम नहीं।
पर शायद ज़िन्दगी इसी का नाम है। इन्सान को हमेशा दोराहे पर खड़ा करने की आदत है ज़िन्दगी को। दो ग़लत रास्तों में से मुनासिब और दो सही रास्तों में से बेहतर का चुनाव ही ज़िन्दगी है। कारगिल की लडाई के दोरान ऐसे ही दोराहे पर खड़े पत्रकार की आपबीती पढ़ कर मुझे भी लगा कितनी आसानी से हमलोग 'मीडिया' या इसमें काम करने वाले लोगों की आलोचना करते रहते हैं मगर पत्रकार भी एक इंसान होता है और कई बार उसका ज़मीर भी कर्तव्य निर्वाह में उसका साथ देने से इंकार कर देता है॥

पत्रकार का संस्मरण पढने केलिए यहाँ क्लिक करें....
http://kashmir-timemachine.blogspot.com/2009/07/lt-saurabh-kalia-story-behind-his.html

1 टिप्पणी: