शनिवार, 28 मार्च 2009

सफलता का मूल मंत्र : मेहनत या विवाद??

राखी सावंत, संभावना सेठ, राहुल महाजन, मोनिका बेदी, अर्जुन सिंह, ऐ.आर.अन्तुले और अब वरुण गांधी ये उन् लोगों के नाम हैं जिन्होंने नई पीढ़ी को एक ऐसी दिशा दिखाई है जिस पर चल के सिर्फ़ और सिर्फ़ अपना फायदा हो सकता है समाज का नही॥ हालाँकि ये सभी लोग यदा-कदा समाज के ठेकेदार होने का स्वांग रचते रहते हैं मगर जो इन्सान कौए की तरह अपनी पूंछ में मोर का पंख लगाके अपनी चाल और रुतबा बदले मेरी नज़र में वो इंसान विश्वास के लायक हो ही नहीं सकता॥ इन् लोगों ने अपने बड़बोलेपन, बददिमाग तेवरों, विवादित और स्वार्थ से लबरेज़ टिपण्णयों के एस्केलेटर का इस्तेमाल करके रातों-रात सुर्खियों में आने का खोखला मंत्र जनता को दे दिया है॥

हर दुसरे-तीसरे रियलिटी शो में जज या बतोर मेहमान कलाकार आ कर लाखों रुपये बटोरने वाली राखी सावंत को हम में से कितने लोग मिक्का-राखी "किस" विवाद से पहले जानते थे?? यही नही इन मोहतरमा के खुले मुह ने ना सिर्फ़ अपनी अगली ७ पुश्तों की रोज़ी-रोटी का बंदोबस्त कर लिया है बल्कि अपने तथाकथित पूर्व बॉय-फ्रेंड अभिषेक अवस्थी का भी जन्म सफल कर दिया है॥ जोकि आजकल एक हास्य धारावाहिक में अभिनय पतंग की कन्नी काटते दिखाई देते हैं॥ बिग-बॉस सीज़न-२ से पहले भोजपुरी फिल्मों की आइटम गर्ल संभावना सेठ का नाम शायद उसकी बिल्डिंग में रहने वाले लोगों ने भी नही सुना होगा मगर आज उसे हिंदुस्तान के गली-नुक्क्ड में हर कोई पहचानता है?? मगर ये ओछी सफलता की सीढ़ी उसे बिग बॉस के घर में रहने के कारण नही बल्कि अपने बदतमीजी भरे लहजे, साथी सदस्यों पर बेहूदा टिपण्णयों और बेलगाम जुबान के चलते हासिल हुयी थी॥ वरना उसी शो में केतकी दवे पुरी फौज की रसोई बनाते और उन्हें अपने मातृत्व भरी भावनाओ से सराबोर कर-कर के थक गई और आज वो कहीं नही॥ संजय निरुपम, जुल्फी, डाइना हेडेन, एहसान कुरैशी आदि नामों की फेरहिस्त लम्बी है जिन्होंने अपनी छवि और समाज के प्रति एक सफल और प्रसिद्द व्यक्ति की जिम्मेदारियों को समझते हुए मर्यादा के दायरे में रहते हुए दर्शकों का मनोरंजन किया और खेल को खेला॥ मगर सफल होने के लिए विवादों के पायदान पर कभी पाँव नही रखा

अब बात करते हैं कभी छोटे और कभी बड़े हस्गुल्लों से अपना मन बहलाने वाले राहुल महाजन की॥ उनको बिग-बॉस में प्रवेश क्यों दिया गया ये बात जगजाहिर है॥ ड्रग्स काण्ड और इनकी विवाहित ज़िन्दगी के विवादों को मीडिया ने इस कदर हवा दी की राहुल की पो बारह हो गई और एक के बाद एक नौकरी व् बिज़नस में असफल राहुल आज न सिर्फ़ ख़ुद सफलता के गुम्बद्दको थामे हुए हैं बल्कि एक रियलिटी शो के द्वारा नई हास्य प्रतिभाओं को परखने की ज़िम्मेदारी का बोझ भी अपने कमज़ोर कन्धों पर उठा रहे हैं॥ जबकि हास्य या स्टैंडअप्प कॉमेडी से उनका कोई रिश्ता नही है॥ उस लिहाज़ से बतौर जज एहसान कुरैशी का दावा राहुल महाजन से कहीं ज़्यादा पुख्ता है॥ मगर एहसान के पास विवादित छवि नही इस्सलिये उनको पूछने वाला कोई नही..

अब मोनिका बेदी का ज़िक्र करें तो आप-हम सभी जानते हैं की अगर मोनिका पर अबू सलेम की नज़रें इनायत ना होती तो ये कुवारी/विवाहित/तलाकशुदा कन्या (जो भी टाइटल इन्हे पसंद हो ये चुन सकती हैं) का बोरिया बिस्तर अभिनय जगत से कब का बंध चुका था॥ मगर आज ये एक के बाद एक रियलिटी शो में ठुमके लगा रही हैं और एक सफल और जाना पहचाना चेहरा होने का भरपूर आनंद ले रही हैं॥

सफलता के इस महामंत्र के प्रचारकों में अभिनेता ही नही नेता भी काफी बाज़ी मार रहे हैं॥ मुंबई धमाके के शहीदों पर उंगली उठा के समाचार जगत का ध्यान उन धमाकों से हटा के अपनी और खींचने वाले ऐ.आर अंतुले को शायद उनके पड़ोसी या मौजूदा सरकार के कुछ एक गिने-चुने लोग ही जानते होंगे मगर अंतुले ने "अपनी उंगली टेढी कर सफलता का ऐसा घी निकला" की बिना कुछ किए वो अपने समाज के मसीहा के रूप में पूजे जाने लगे॥ विवादित चेहरों का ज़िक्र हो अर्जुन सिंह पीछे रह जायें तो ये उनके साथ अन्याय होगा॥ दूसरी दुनिया से बुलावे का इंतज़ार कर रहे अर्जुन सिंह जब भी अपना नाम सुर्खियों में देखने को बेताब होते हैं बस आरक्षण के ज़हर में डूबा एक तीर युवाओं के दिल में उतार देते हैं॥ नतीजा वील चेयर पर बैठे इस अपाहिज नेता की कुर्सी पर आज भी दीमक नही लगा॥ अस्पताल के चक्कर काटते हुए भी अपने आस-पास जर्नलिस्टों का हुजूम कैसे एकत्रित करना है ये राज़ इनसे बेहतर शायद ही किसी को पता हो॥

और अब आखिर में बात करते हैं गाँधी खानदान के सबसे छोटे चिराग यानि वरुण गाँधी की॥ वरुण के विवादित भाषणों ने शर शैय्या पर पड़ी भारतीय जनता पार्टीको जैसे संजीवनी बूटी सुंघा दी है॥ रातों रात हासिल हुयी इस सफलता ने राहुल गाँधी के प्रधानमंत्री बनने के सपने के रंग ज़रूर कुछ फीके कर दिए होंगे॥ बेचारे राहुल गाँधी जोकि आम आदमी का दिल और वोट जितने केलिए कभी मजदूरों के साथ मिटटी ढोहते दिखाई देते हैं तो कभी कोई और झुनझुना पकडे आम आदमी को अपना हाथ पकडाने की पुरजोर कोशिश करते नजर आते हैं॥ पर सफलता है की एक बेवफा माशूका की तरह बड़े भाई का हाथ छोड़ छोटे भाई का दामन थामती दिखाई दे रही है॥

जो भी हो मेरी आम जनता और खास तौर पे देश के युवाओं से येही गुजारिश है की बजुर्गों कीबनाई कहावत "मेहनत ही सफलता की कुंजी है" इस पर अमल करना न छोडें॥ वरना देश में हर घर में एक संभावना अपने भाई-पिता या माँ को मुह तोड़ जवाब देती नजर आएगी, हर घर में एक राहुल महाजन अपनी पत्नी को पिटता दिखाई देगा, हर गली चोराहे पे एक राखी सावंत जिस्म की नुमाइश करती दिखाई देगी॥ शादी के इश्तिहार में एक अदद अंडर वर्ल्ड से जुड़े पति की फरमाइश की जायेगी॥ हर नेता अन्तुले के नक्शे क़दमों पे चल के शहीदों की चिता पर राजनीती की रोटियां सकेगा और चुनावों में हर पार्टी धर्म के नाम पर जनता को उनकी हिफाज़त के सब्ज़ बाग़दिखाती नजर आयेगी॥ क्यायही है आपके सपनो का भारत??

गुरुवार, 26 मार्च 2009

सुरेखा सिकरी : इस चिराग तले अँधेरा कहाँ..

बहुत प्रसिद्ध कहावत है की चिराग तले अँधेरा होता है॥ मगर इस कहावत के भावार्थ को बदल के दिखाया है ६४ साल की दादीसा यानि सुरेखा सिकरी ने॥ सुरेखा और अभिनय मानो एक ही सिक्के के दो पहलु हैं॥ यही कारण है की सुरेखा को जब जहाँ जिस किरदार में भी देखा तो लगा की मानो यही असली सुरेखा हैं॥ टेलिविज़न पर तमस, सात फेरे या फिर बनेगी अपनी बात जैसे आधा दर्ज़न से भी भी ज़यादा धारावाहिकों में अपनी अदाकारी से दर्शको का मन मोह लेने वाली सुरेखा ने बड़े परदे पर भी अपने अभिनय और मौजूदगी से अच्छे-अच्छे कलाकारों के पसीने छुडाये हैं .. ज़ुबेदा, मम्मो, सलीम लंगडे पे मत रो आदि चाहे जिस फ़िल्म का नाम लीजिये और उसी वक्त सुरेखा यानि एक पर्फ़ेक्शिनिस्ट की ही छवि दिमाग में साकार होगी॥ कमाल की बात ये है की इस हरफनमौला, जिंदादिल कलाकार कीपारिवारिक पृष्ठभूमि में दूर-दूर तक किसी का भी अभिनय से कोई वास्ता नही रहा॥ फिर भी अपने काम के साथ इमानदार रहने की आदत ने सुरेखा को अभिनय की उस बुलंदी पर पहुँचा दिया है जहाँ छोटे-बड़े परदे का फरक ख़तम हो जाता है॥

सुरेखा की मौजूदगी मानो एक चैलेन्ज है हर कलाकार के लिए॥ यही कारण है की उनके बहुचर्चित धारावाहिक बालिका वधु के हर किरदार के अभिनय में हफ्ते-दर-हफ्ते ऐसा निखार आ रहा है की देखने वाले भी दांतों तले ऊँगली दबाते हैं और ये कहने पर मजबूर हो जाते हैं की जब छोटे परदे पर ही अपनी अभिनय क्षमता को दिखाने का इतना बेहतरीन मौका मिल रहा हो किसी को तो कोई बड़े परदे की तरफ़ क्यों जाए॥ मौजूदा दौर में यूँ तो बालिका वधु का हर किरदार अपनी भूमिका के साथ न्याय कर रहा है पर पिछले कुछ एपिसोड से भैरों (अनूप सोनी) और सुगना (विभा आनंद) कई जगह सुरेखा सिकरी यानि दादी सा को भी अपने अभिनय से टक्कर दे रहे हैं॥ कारण साफ़ है के सुरेखा के रूप में उनके सामने अभिनय के इतने ऊँचे मापदंड खड़े हो जाते हैं की अपनी मौजूदगी के एहसास को बनाये रखने के लिए हर किसी को मेहनत करनी पड़ रही है॥ मगर मेहनत का गुड जितना ज़यादा डाला जा रहा है देखने वालों को स्वाद भी उतना ही ज़्यादा आ रहा है॥ अभिनय, निर्देशन, सिनेमाटोग्राफी चाहे जिस कोण से देखें ये सफलता के मामले में ये धारावाहिक नित नई बुलंदियों को छू रहा है॥ ये सब देख के तो यही लगता है की सुरेखा जैसे दिए की विशाल लो के आस-पास टिमटिमाते हर दिए के होसले बुलंद हो रहे हैं तभी तो दूरदर्शन और अन्य कई निजी चैनलों द्वारा खोटे सिक्के की तरह ठुकराए जा चुके इस सीरियल की उड़ान ने टेलिविज़न के इतिहास को बदल के रख दिया॥

मंगलवार, 24 मार्च 2009

हिन्दी में ब्लॉग : आख़िर क्यों ??

ये नया हिन्दी ब्लॉग शुरू करते वक्त ही मेरे दिमाग में ये बात उठी थी की मुझे इस सवाल का जवाब कई बार देना होगा॥ हिन्दी में एक ब्लॉग क्या शुरू कर दिया मानो ये एक सवाल जी का जंजाल बन गया है॥ कुछ टिपण्णयों पर ग़ौर फरमाइए--क्या फायदा ऐसी भाषा में ब्लॉग लिखने का जिसे पढ्नेवाला ही कोई न हो?? या फिर लगता है दिल्ली की याद कुछ ज़्यादा ही सताने लगी है??
मैंने भी सोच रखा था कि मेरा जवाब इसी ब्लॉग पर मिलेगा सबको॥ तो सवाल है कि आख़िर हिन्दी में ब्लॉग क्यों?? सबसे पहली बात मैंने भारत यानि हिंदुस्तान में जन्म लिया है और बचपन से ही मुझे सिखाया गया कि हिन्दी मेरी मातृभाषा है॥ आजभी हिंदुस्तान के करीब ७०% लोगों केलिए हिन्दी ही आपसी बोलचाल का एकमात्र ज़रिया है॥ अब अगर मेरा मन किया कि मैं अगर बचे हुए ३०% लोगों कि श्रेणी में ख़ुद को रखते हुए बाकि ७०% हिन्दी जनमानस का साथ निभाती रहूँ तो इसमें आख़िर बुरा क्या है??
जैसा कि श्रीमान वरिष्ठ बच्चन साहब, सीधी सरल भाषा में बिग "बी" यानि अमिताभ बच्चन के बारे में भी मैंने सुना है की वो यदा-कदा अपना ब्लॉग हिन्दी में भी लिखते हैं॥ इस बात को मीडिया ने फुटबाल की तरह उछाला॥ वो भी ये कहते हुए कि मातृभाषा को सम्मान और पहचान देने वालों में अगर अमिताभ सरीखे प्रसिद्द व्यक्ति का योगदान होगा तभी लोगों के मन में अपनी मातृभाषा के प्रति लगाव उजागर होगा॥ पर जैसे ही वो लगाव मेरे मन में उजागर हुआ तो कई लोगों का हाज़मा ख़राब हो गया॥ दरअसल मीडिया से एक चूक हो गई क्योंकि उन्होंने बच्चन साहब के हिन्दी में ब्लॉग लिखने कि ख़बर का प्रचार ग़लत तरीके से किया क्योंकि यदि बात को कुछ इस तरीके से कहा जाता के बिग "बी" न सिर्फ़ हिन्दी में ब्लॉग लिखते हैं बल्कि वो हिन्दी के ब्लॉग पढ़ते भी हैं तो शायद हिन्दी बोलने -लिखने-समझने में अपँग जनमानस को मेरा हिन्दी में ब्लॉग लिखना यूँ नागवार न होता और उनके मन में ये न उठते कि क्या फायदा ऐसी भाषा में ब्लॉग लिखने का जिसे पढ्नेवाला ही कोई न हो?? जो भी हो अब जब लिखना शुरू किया ही है तो इतना ख्याल मुझे भी रखना होगा कि मेरा ये खुमार महज़ एक हिन्दी बचाओ सप्ताह या हिन्दी पखवाडा बनके न रह जाए॥
हिन्दी भाषा के जानकारों के लिए मेरा इतना ही निवेदन है कि भाषा में गलतियाँ हों तो कृपया अपने मन की शान्ति भंग न किजिगा क्योंकि कई बार तकनीकी जानकारी के आभाव के कारण भी न होने वाली गलतियाँ हो जाती हैं॥ तो कृपया शान्ति का दान दें॥

गुरुवार, 19 मार्च 2009

बहु पिट चुकी अब बेटी की बारी..


देखिये सभी महिला मंडल और महिला अधिकार समितियों से मेरी गुजारिश है कि सिर्फ़ टाइट्ल पढके मेरे खिलाफ नारे लगाने से पहले पूरी बात जान लें.. ये वो पिटाई नहीं जहाँ लाठी, थप्पड़ या जूतों से पिटाई की जाए ये टीआरपी के जूतों से होने वाली पिटाई है॥ जहाँ न तो किसी के आंसू निकले हैं ना ही खून.. पर प्रोड्यूसर और चैनल को घटा होने पे दोनों खून के आंसू ज़रूर रोते हैं..

चलो अब मुद्दे की बात पे आते हैं की ये टीआरपी की पिटाई आखिर कौन सी पिटाई है॥ तो सुनिए क्योंकि सास भी कभी बहु थी, छोटी बहु, बड़ी बहु, मंझली बहु, तीन बहुरानियाँ वगैहरा-वगैहरा यानि इधर-उधर और दुनिया भर की बहुओं की जामात ने पुरे आठ तक साल हम लोगों के ड्राइंग रूम पे हुकूमत की॥ और वो भी एक २०" के डिब्बे के बलबूते पे॥ २०" का डिब्बा अरे वही इडिअट बक्सा, अपना टेलिविज़न॥
आखिरकार ये सरकार कभी न कभी तो गिरनी ही थी न॥ तो जी देश ने अपनी "एकता" दिखाई और बहुओं की टीआरपी गिरा के कर दी उनकी जम के पिटाई॥ पर हम सीरियल बनाने वाले भी कहाँ चुप बैठने वाले हैं॥ बस एक हुकूमत का तख्ता जनता ने पलटा तो हमने दूसरी को ला बिठाया लोगों के घरों में॥ अब ये दूसरी कौन ? नही जी हम यहाँ दूसरी बीवी या बहु की बात नही कर रहे ये दूसरी हैं टेलिविज़न पर नई सरकार बनानेवाली बेटियाँ.. ना आना इस देस लाडो, मेरे घर आई एक नन्ही परी, लाडली, अगले जन्म मोहे बिटिया ही कीजो.. इस सरकार के प्रमुख सदस्य हैं॥ और सदस्य भीआते रहेंगे॥ और कुछ सालों तक इस सरकार की हुकूमत सलामत रहेगी॥ अब सरकारें तो बदल गई पर परदे के पीछे की हकीकत वही की वही है..आज भी मेल कलाकारों से ज़्यादा फिमेल कलाकारोंको देसी घी में चुपडी और तड़का मार रोज़ी-रोटी मिल रही है.. क्योंकि बहु का किरदार हो या बेटी का निभाना तो किसी फेमेल कलाकार को ही पड़ेगा न.. यानि संसद में महिलाओं को 33% आरक्षण मिले या न मिले पर टेलिविज़न की सरकार की बागडोर महिलों के ही हाथ रहेगी.. वो तो गनीमत है के नेताओं का धयान इस तरफ़ नही गया वरना मायावती कीकोशिश होती के दलित कलाकारों को आरक्षण दो, राज ठाकरे मराठी कलाकारों को काम देने वाले निर्माताओं को ही फ़िल्म सिटी में शूटिंग करने देते॥ और अगर सभी राजनितिक दलों में किसी बात पे "एकता" होती तो वो ये के महिला कलाकारों की सीटें कम हो .. अगर ऐसा होता तो इन बहु-बेटियों का क्या होता ?? फिर शायद कुछ इस तरह के सीरियल दिखाई देते क्योंकि ससुर भी कभी दामाद था, बाल-दामाद, फिर आना इस देस लाडेसर, अगले जन्म मोहे छोरा ही कीजो॥
जो भी हो टीआरपी के जूतों से पिटाई तो इनकी भी होती.. वैसे ही जैसे बहुओं की हुई और देखना है की बेटियोंकी पिटाई कितने साल बाद होगी और फिर उसके बाद क्या?? फिर से बहुए या अगली बार कुछ और?? ज़रा सोचिये ..

बुधवार, 18 मार्च 2009

ये क्या जगह है दोस्तों..


नई दिल्ली का मंडी हाउस.. पता नही आप में से कितने लोग इस जगह के नाम से वाकिफ होंगे?? खैर जो लोग इस जगह को जानते हैं और जो नहीं जानते उनके लिए भी एक सवाल है की इस जगह का नाम मंडी हाउस क्यों और किसने रखा?? जबकि यकीन मानिये कि इस जगह का किसी भी चीज़ की मंडी यानि बाज़ार से कोई लेना-देना नही है.. बस एक सर्कल है जोकि छ: अलग-अलग दिशों की तरफ़ लोगों की ज़िन्दगी को ले जाता है.. मैंने भी इस सर्कल के अनगिनत चक्कर लगाये हैं.. कभी जल्दी में किसी काम से और कभी बस यूहीं आराम से॥

हाँ कुछ सरकारी दफ्तर ज़रूर हैं यहाँ पर इतने नहीं कि इस जगह का नाम मंडी हाउस रख दिया जाए.. एक वो दफ्तर भी है जिसका मीडिया में होने के बावजूद भी दर्शन करने को कभी मेरा मन नहीं करता यानि दूरदर्शन.. और कुछ औडिटोरिअम्स भी हैं॥

अरे हाँ नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा में ज़रूर हर साल भाजी-तरकारी के हिसाब कलाकारों की नई मंडी तैयार की जाती है.. जिनमेसे कितनो को खरीदार मिलते हैं इसका लेखा तो राम जी के पास शायद हो..

और हाँ एक और जगह है हिमांचल भवन.. मैंने सुना है की हिमांचल में एक मशहूर जगह है मंडी.. पर हिमाचल भवन बनने से काफी साल पहले ही इस जगह का नाम मंडी हाउस रख दिया गया था.. खैर जी मेरे सवाल का जवाब मिलते-मिलते रह गया की इस जगह का नाम मंडी हाउस क्यों रखा गया??

बड़ा कठिन प्रशन है और जहाँ तक मुझे लगता है की अगर आज की तारीख में बीरबल या तेनालीरामा जिंदा होते तो वो भी इस गुत्थी को नही सुलझा पते.. जो भी हो है बड़ी अच्छी जगह.. कार में बैठ के सर्कल के तरफ़ चक्कर लगते हुए आइस-क्रीम का मज़ा लो तो ज़िन्दगी इन छ: दिशाओं को छोड़ सातवी दिशा की तरफ़ निकल पड़ती है..