शुक्रवार, 11 अक्टूबर 2013

कवियों की "लक्ष्मी आराधना"..

टेलीविजन केलिए काम करते हुए कई बार अजीबोगरीब किस्से देखने को मिलते हैं। जो हैरान भी करते हैं और कभी कभी परेशान भी। ऐसा ही हैरान-परेशान करने वाला एक वाक्या मुझे देखने को मिला जब मैं एक रियैलिटी शो के लिए काम कर रही थी। इस शो पर खेलने वाले के सामने जीत का लक्ष्य था पूरे १ करोड़ रुपये जिसे पाने केलिए दिमाग की नही किस्मत और तुक्के की ज़रूरत पड़ती थी। यानि कोई सवाल जवाब नही बस कुछ डिब्बे ये ध्यान में रखते हुए खोलो की १ करोड़ वाला डिब्बा किसी हाल में भी न खुलने पाए।
इस शो के आडिशन में हम लोग आम जनता को ही खेल के लिए आमंत्रित करते थे मगर सप्ताह के १ दिन एक स्पेशल एपिसोड में एक खास वर्ग या समुदाय को खेलने के लिए बुलाया जाता था। जैसे ऑटो रिक्शा चालक, काम वाली बाई, सिख समुदाय के लोग आदि। हर एपिसोड में हमें २० से ऊपर लोगों की ज़रूरत पड़ती थी जिनमें से सिर्फ़ एक को खेलने का मौका मिलता था । ज़ाहिर सी बात है की इतने लोग एक परिवार के हो नही सकते और ये हमारे नियमों के खिलाफ भी था। तो ऐसे में उस पुरे समुदाय या ग्रुप में से जिस एक खुशकिस्मत को खेलने का मौका मिल जाता था उसको छोड़ बाकि सबके चेहरे बुझ जाते थे। ऐसे में दमदार एपिसोड की उम्मीद करना पानी के दिए जलाने से भी मुश्किल काम था।
खैर रियलिटी शो है तो हम लोग ज़्यादा कुछ कर भी नही सकते । मगर मुझे याद है की बैसाखी स्पेशल एपिसोड में जब हमने सिख समुदाय के लोगों को मुंबई के विभिन्न इलाकों से चुना तो खेल से पहले उन्होंने एक निर्णय लिया की जो भी हो खेल की भावना को जीवित रखेंगे और चुनिन्दा खिलाड़ी चाहे एक रूपया जीते यां एक करोड़ उसे वो सब आपस में बाँट लेंगे। उनके इस निर्णय का नतीजा चमत्कारिक निकला और वो बैसाखी स्पेशल एपिसोड सचमुच "पंजाबियों" के व्यक्तित्व के अनुसार ही जोश, एकता और भाई चारे की भावना से भरपूर था। उस खेल का अंत भी बहुत रोमांचक था क्योंकि उन लोगों के जोश और एकता से हम सभी टीम मेंबर बहुत प्रभावित थे ऐसे में हम सभी दिल से दुआ कर रहे थे की वो लोग ज़्यादा से ज़्यादा रकम जीतें और आपस में बांटे। मगर किस्मत का खेल था और हम लोग सिर्फ़ कार्यकर्म का संचालन कर सकते थे किस्मत का नही। इसलिए उस खेल के अंत में दो डिब्बे बचे एक वो जिसमें मात्र हज़ार रुपये थे और दुसरे में पच्चीस लाख। पर सिखों की एकता को किस्मत ने भी सलाम किया और वो लोग पुरे २५ लाख जीत का जश्न मानते हुए घर गए।
उसके बाद उनके इस निर्णय ने कई और समुदाय और वर्ग के लोगों को ऐसा ही करने केलिए प्रेरित किया और हमें कई बेहतरीन एपिसोड मिले।
खैर अब असली मुद्दे की बात पर आते हैं । अबकी बार होली स्पेशल एपिसोड में हम लोगों ने हास्य कवियों को आमंत्रित करने का फैसला किया। होली का मौका है हर एक कवि अपना डिब्बा खोलने से पहले हास्य व्यंग की अपनी एक कविता पढेगा और किस्मत का खेल कुछ खट्टा और कुछ मीठा हो जाएगा।
शूटिंग के रोज़ मुंबई, दिल्ली के कई नामी-गिरामी कवियों के हास्य व्यंग से हमारा स्टूडियो चहक रहा था। सभी को खेल के नियम बताये गए और पहले के कुछ एक एपिसोड भी दिखाए गए । मगर जनाब १ करोड़ का खेल था तो ज़ाहिर सी बात है की उस दिन सभी कवि महाशय घर से निकलते वक्त माँ सरस्वती की नही बल्कि माँ लक्ष्मी को ढोक देके और मन्नत मांग कर घर से निकले होंगे। खेल के नियम सब ने समझे मगर सवाल वही की खेलने का मौका सिर्फ़ एक को मिलेगा?? तो बाकि लोग क्या सिर्फ़ डिब्बे खोलने के लिए इस कार्यक्रम में अपनी मुहं दिखाई करेंगे?? तभी किसी ने उस बैसाखी स्पेशल एपिसोड का ज़िक्र किया की क्यों न उन्ही की तरह यहाँ भी जीत की रकम को बराबर बाँट लिया जाए?? मगर इस बात ने जैसे वातावरण में घुले हास्य-व्यंग के अबीर-गुलाल में मानों मिटटी और कंकर मिलाने जैसा काम किया। आदरणीय कविओं की उस बरात में सबसे बुजुर्ग कवि महाशय ने अपने माथे पर एक करोड़ से भी ज़यादा त्योरियां चढाते हुए कहा की मैं चाहे एक रुपया जीतूँ या एक करोड़ पर अपनी जीत की रकम में किसी को एक कौडी भी नहीं दूंगा। बस फिर क्या था एक करोड़ की दुल्हन को हर बाराती अपने साथ ले जाने के सपने देखने लगा और हास्य व्यंग के उस माहौल में घुली मिश्री की जगह जलन और स्वार्थ की मिर्ची ने ले ली।
फिर जो हुआ उसका अनुमान आप सभी लगा सकते हैं बाराती चाहे २० से ज़्यादा थे मगर दूल्हा तो एक ही बन सकता था। ज़िन्दगी में पहली बार मैंने माँ लक्ष्मी का ये चमत्कार देखा जिन्होंने कवियों को भी बनियागिरी सिखा दी।

15 टिप्‍पणियां:

  1. बनियागिरी नहीं
    घटियागिरी कहिये।

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  2. ज़िन्दगी के विविध रंग कुछ इस तरह अनायास ही उभर आते हैं, कभी कवि बनिया हो जाता तो कभी साहूकार कवि ...

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  3. mai kishoore ji baat se sahmat hun....jindgi nai essa bhi hota hai

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  4. हे हे हे... कहावत भी है - लक्ष्मी और सरस्वती कभी साथ नहीं रहती :)

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  5. बेचारे कवि........दूसरो से भी कुछ सीख ना पाए।रवि जी सही कह रहे हैं;))

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  6. बनियों के भी उसूल होते हैं....ऐसे कवि तो खुद की जबां से बने रसूल होते हैं।

    अरे ये तो कविता बन गई :)

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  7. सीखोँ की ज़िँदादिली को सलाम ..और अब बनियागिरी के लिये क्या कहेँ !

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  8. धन लोलुपता से कवि सम्मेलनों का स्तर गिरा । कवि के लिए कविता से अधिक महत्वपूणॆ पैसा होने लगा तो समाज में कविता की लोकप्रियता घटने लगी । यह स्थितियां कवि और कविता दोनों के लिए नुकसानदेह हैं । अच्छा लिखा है आपने ।-

    http://www.ashokvichar.blogspot.com

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  9. लक्ष्मी की माया है , अच्छे -अच्छे लोगों के दिमाग फेर देती है, वो तो बेचारे बुजुर्ग कवि थे .
    बाप बडा न भैया सबसे बड़ा रुपैया !!

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  10. i have got a comment which i m not publishing coz it has no name (sent anonymously) but the person must have felt offended by the word “BANIYAGIRI” which earlier i had used in the title.. i didn’t mean to hurt anyone and had no intention to make my blog controversial either.. so without getting into the sensitive areas I have changed the title..

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  11. सच बात तो यह है, कि इस तरह के आयोजन का विचार ही बेतुका है

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  12. गंभीर समस्या है .इस पर सोचना पड़ेगा
    ये प्रजाति खतरे में है .
    नवनीत नीरव

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  13. kuchh insani fitrat hai aur kuchh halat ki majburi, warna sarswati aradhna ke bina lakshmi aradhna bhi hai adhuri..

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