कहते हैं कि कोई भी इंसान मुजरिम या गुनेहगार पैदा नहीं होता। वक़्त और हालत उससे गुनेहगार बना देते हैं। लेकिन औरत की ज़िन्दगी का सच इसके बिलकुल विपरीत है क्योंकि औरत को हालत या वक़्त गुनेहगार बनाये या न बनाये लेकिन औरत का होना ही अपनेआप में एक बड़ा गुनाह बन जाता है जिसकी सज़ा कई बार उसे बचपन के पालने से लेकर मौत की आगोश में समां जाने तक भुगतनी पड़ती है। औरत किसी भी देश-काल-वर्ग का हिस्सा क्यों न हो उसका जीवन कहीं भी आसान नहीं होता। वो इस धरा खंड के किसी भी हिस्से में रहती हो दुनिया उसकी परीक्षा कहीं भी, कभी भी ले सकती है फिर वो औरत मिथिला की धरती से जन्मी भगवती सीता हो या फिर फ़िल्मी दुनिया के आकाश पे चमकता कोई रोशन सितारा।
1 अगस्त 1932 को इस दुनिया में एक ऐसे ही सितारे ने जन्म लिया जो पैदा, हुई तो उसकी रोशनी किसी ने न देखी। खुर्शीद और मधु इन दो बेटियों के बाद पैदा हुए इस सितारे को एक बोझ समझ कर यतीम आश्रम में पहुंचा दिया गया। फिर जाने क्या सोच के उस बोझ को उसके माता पिता उस यतीम खाने से वापिस घर ले आये। महज़ 7 साल के बाद उस बोझ को उसके औरत होने के गुनाह की सज़ा सुनाई गयी और वो सज़ा थी कि वो बोझ अब अकेले सारे परिवार का बोझ उठाये।
ये सितारा जिसे इसके अपनों ने एक बोझ समझा इसका नाम था महजबीं बानो उर्फ़ मीना कुमारी । महज़ 7 साल कि उम्र में महज़बीं ने पहली बार कमरे का सामना किया था। मुंबई के अँधेरी स्थित प्रकाश स्टूडियो में निर्देशक विजय भट्ट के लाइट्स, कैमरा, एक्शन बोलने के बाद जब दृश्य पूरा हुआ तो मानो नन्ही महज़बीं के रूप में परिवार को सोने का अंडा देने वाली मुर्गी हासिल हो गयी| बचपन के गलियारों में स्कूल जाने की ख्वाहिश रखने वाली महजबीं एक स्टूडियो से दुसरे स्टूडियो का सफ़र तय करते करते ही महजबीं से मीना कुमारी बन गई।
"मीना कुमारी" वो रोशन सितारा जिसकी अपने ही मन के चिराग तले हमेशा अँधेरा रहा। मीना का बचपन अपनी पूरी उम्र जीने से पहले ही खत्म हो गया। जवानी आई लेकिन परिवार की आर्थिक जरूरतों को पूरा करने कि ज़िम्मेदारी के कारण मीना के सपने कभी उसकी जिम्मेदारियों की लक्ष्मण रेखा पार न कर सके। माँ-बाप को उसके होने की ख़ुशी तब तक नहीं हुई जब तक फिल्म इंडस्ट्री की नजर उस कोहेनूर हीरे पर नहीं पड़ी और वह परिवार की रूठी तक़दीर को मानाने का जरिया नहीं बन गई। इस सचाई को मीना भली भांति जानती थी यही वजह थी के आँसू, दर्द और अकेलेपन से मीना कुमारी की दोस्ती किशोरावस्था में ही हो गयी थी।
कच्ची उम्र में गम और अकेलेपन से दोस्ती इंसान को अक्सर गलत निर्णय लेने पर मजबूर कर देती है। अभिनय, भावनाओं और शायरी की अच्छी खासी समझ रखने वाली मीना ने भी एक गलत निर्णय लिया और अपने से १५ साल बड़े एक विवाहित पुरुष "कमाल अमरोही" जो तीन बच्चों के पिता भी थे उनसे छिपकर शादी कर ली। मगर दर्द और तन्हाई उसके सच्चे दोस्त थे उन्होंने किसी भी सूरत में उसका साथ नहीं छोड़ा। प्यार, परिवार की आस लिए कमाल की ज़िन्दगी में दाखिल हुई मीना कुमारी के अरमान बस चंद घडी के मेहमान साबित हुए। कमाल अमरोही ज्यादातर बाहर रहते, मगर मीना के पल-पल की खबर रखी जाती । मीना के साथ प्यार के दो बोल बोलने वाला कोई न था।
उन तमाम पलों की गवाह सिर्फ एक नौकरानी थी, जिसने करोड़ों दर्शकों के दिल की मल्लिका और अपने दौर की सबसे नामी अदाकारा को बंद दरवाजों के पीछे घुटते-तड़पते देखा था।
अपने ३० साल लम्बे फ़िल्मी जीवन में मीना कुमारी ने लगभग ९० से अधिक फिल्में की। जहाँ एक ओर आज़ाद, चिराग कहाँ रोशनी कहाँ, मैं चुप रहूंगी, आरती, दिल एक मंदिर, फूल और पत्थर और दिल अपना और प्रीत परायी फिल्मों की सफलता ने मीना का नाम अपने वक़्त की बेहतरीन अदाकाराओं में शामिल कर दिया। वहीँ दूसरी तरफ बैजू बावरा, परिणीता, काजल फिल्मों में मीना के लाजवाब अभिनय ने उनकी झोली फिल्म फेअर अवार्ड से भर दी। और गुरुदत्त निर्मित साहिब, बीवी और गुलाम मीना के कैरिअर में मील का पत्थर मानी जाती है लेकिन इस फिल्म ने मीना को प्रशंसा और फिल्म फेअर अवार्ड्स के आशीर्वाद के साथ साथ शराब के नशे का श्राप भी दिया ।
मीना कुमारी ने आज़ाद, मिस मैरी और शरारत जैसी हास्य प्रधान फिल्में भी कि लेकिन उनके द्वारा निभाए गए ग़मगीन और संजीदा किरदारों ने उन्हें "ट्रेजिडी क्वीन" के नाम से मशहूर कर दिया।
जो भी हो शराब ने मीना को मानसिक और शारीरिक दोनों तरह से कमज़ोर कर दिया। उनकी बेदाग खूबसूरती समय से पहले ढलने लगी। उनकी आखिरी फिल्मों में "दुश्मन" और "मेरे अपने" में मीना कुमारी ने एक ढलती उम्र की औरत का किरदार निभाया और प्रशंसा हासिल की।
ज़िन्दगी और मौत की देहलीज़ पर खड़ी मीना की आखिरी फिल्म "पाकीज़ा" थी। जिसे पूरा होने में १४ सालों से भी ज्यादा वक़्त लगा। कहते हैं कि इस फिल्म निर्माण के दौरान ही मीना और कमाल अमरोही में तलाक हुआ था। तलाक कि चुभन को मीना ने अपने ही अंदाज़ से कुछ यूँ बयां किया था .......
तलाक तो दे रहे हो नज़रे कहर के साथ, जवानी भी लौटा दो मेरी मेहर केसाथ
इधर फिल्म "पाकीज़ा" ने सिनेमा हाल की देहलीज़ पर कदम रखा और उधर मौत ने मीना कुमारी की देहलीज़ पार की। मीना को करीब से जानने वालों का कहना है कि आखिरी वक़्त करोड़ों दिलों की इस मल्लिका के पास सिवाय आंसुओ, टूटे सपनो और अधूरी ख्वाहिशों के कुछ भी न था। मेह्ज़बिं की ज़िन्दगी का फसना मीना कुमारी ने अपनी कलम से कुछ इस तरह बयां किया ॥चाँद तन्हा है, आसमां तन्हा,
दिल मिला है कहाँ कहाँ तन्हा
बुझ गई आस, छुप गया तारा,
थर-थराता रहा धुआ तन्हा
ज़िन्दगी क्या इसी को कहते है
जिस्म तन्हा है, और जां तन्हा
हमसफ़र कोई ग़र मिले भी कहीं
दोनों चलते रहे यहाँ तन्हा
जलती बुझती सी रौशनी के परे,
सिमटा-सिमटा सा एक मकां तन्हा
राह देखा करेगा सदियों तक
छोड़ जायेंगें ये जहाँ तन्हा....
1 अगस्त 1932 को इस दुनिया में एक ऐसे ही सितारे ने जन्म लिया जो पैदा, हुई तो उसकी रोशनी किसी ने न देखी। खुर्शीद और मधु इन दो बेटियों के बाद पैदा हुए इस सितारे को एक बोझ समझ कर यतीम आश्रम में पहुंचा दिया गया। फिर जाने क्या सोच के उस बोझ को उसके माता पिता उस यतीम खाने से वापिस घर ले आये। महज़ 7 साल के बाद उस बोझ को उसके औरत होने के गुनाह की सज़ा सुनाई गयी और वो सज़ा थी कि वो बोझ अब अकेले सारे परिवार का बोझ उठाये।
ये सितारा जिसे इसके अपनों ने एक बोझ समझा इसका नाम था महजबीं बानो उर्फ़ मीना कुमारी । महज़ 7 साल कि उम्र में महज़बीं ने पहली बार कमरे का सामना किया था। मुंबई के अँधेरी स्थित प्रकाश स्टूडियो में निर्देशक विजय भट्ट के लाइट्स, कैमरा, एक्शन बोलने के बाद जब दृश्य पूरा हुआ तो मानो नन्ही महज़बीं के रूप में परिवार को सोने का अंडा देने वाली मुर्गी हासिल हो गयी| बचपन के गलियारों में स्कूल जाने की ख्वाहिश रखने वाली महजबीं एक स्टूडियो से दुसरे स्टूडियो का सफ़र तय करते करते ही महजबीं से मीना कुमारी बन गई।
"मीना कुमारी" वो रोशन सितारा जिसकी अपने ही मन के चिराग तले हमेशा अँधेरा रहा। मीना का बचपन अपनी पूरी उम्र जीने से पहले ही खत्म हो गया। जवानी आई लेकिन परिवार की आर्थिक जरूरतों को पूरा करने कि ज़िम्मेदारी के कारण मीना के सपने कभी उसकी जिम्मेदारियों की लक्ष्मण रेखा पार न कर सके। माँ-बाप को उसके होने की ख़ुशी तब तक नहीं हुई जब तक फिल्म इंडस्ट्री की नजर उस कोहेनूर हीरे पर नहीं पड़ी और वह परिवार की रूठी तक़दीर को मानाने का जरिया नहीं बन गई। इस सचाई को मीना भली भांति जानती थी यही वजह थी के आँसू, दर्द और अकेलेपन से मीना कुमारी की दोस्ती किशोरावस्था में ही हो गयी थी।
कच्ची उम्र में गम और अकेलेपन से दोस्ती इंसान को अक्सर गलत निर्णय लेने पर मजबूर कर देती है। अभिनय, भावनाओं और शायरी की अच्छी खासी समझ रखने वाली मीना ने भी एक गलत निर्णय लिया और अपने से १५ साल बड़े एक विवाहित पुरुष "कमाल अमरोही" जो तीन बच्चों के पिता भी थे उनसे छिपकर शादी कर ली। मगर दर्द और तन्हाई उसके सच्चे दोस्त थे उन्होंने किसी भी सूरत में उसका साथ नहीं छोड़ा। प्यार, परिवार की आस लिए कमाल की ज़िन्दगी में दाखिल हुई मीना कुमारी के अरमान बस चंद घडी के मेहमान साबित हुए। कमाल अमरोही ज्यादातर बाहर रहते, मगर मीना के पल-पल की खबर रखी जाती । मीना के साथ प्यार के दो बोल बोलने वाला कोई न था।
उन तमाम पलों की गवाह सिर्फ एक नौकरानी थी, जिसने करोड़ों दर्शकों के दिल की मल्लिका और अपने दौर की सबसे नामी अदाकारा को बंद दरवाजों के पीछे घुटते-तड़पते देखा था।
अपने ३० साल लम्बे फ़िल्मी जीवन में मीना कुमारी ने लगभग ९० से अधिक फिल्में की। जहाँ एक ओर आज़ाद, चिराग कहाँ रोशनी कहाँ, मैं चुप रहूंगी, आरती, दिल एक मंदिर, फूल और पत्थर और दिल अपना और प्रीत परायी फिल्मों की सफलता ने मीना का नाम अपने वक़्त की बेहतरीन अदाकाराओं में शामिल कर दिया। वहीँ दूसरी तरफ बैजू बावरा, परिणीता, काजल फिल्मों में मीना के लाजवाब अभिनय ने उनकी झोली फिल्म फेअर अवार्ड से भर दी। और गुरुदत्त निर्मित साहिब, बीवी और गुलाम मीना के कैरिअर में मील का पत्थर मानी जाती है लेकिन इस फिल्म ने मीना को प्रशंसा और फिल्म फेअर अवार्ड्स के आशीर्वाद के साथ साथ शराब के नशे का श्राप भी दिया ।
मीना कुमारी ने आज़ाद, मिस मैरी और शरारत जैसी हास्य प्रधान फिल्में भी कि लेकिन उनके द्वारा निभाए गए ग़मगीन और संजीदा किरदारों ने उन्हें "ट्रेजिडी क्वीन" के नाम से मशहूर कर दिया।
जो भी हो शराब ने मीना को मानसिक और शारीरिक दोनों तरह से कमज़ोर कर दिया। उनकी बेदाग खूबसूरती समय से पहले ढलने लगी। उनकी आखिरी फिल्मों में "दुश्मन" और "मेरे अपने" में मीना कुमारी ने एक ढलती उम्र की औरत का किरदार निभाया और प्रशंसा हासिल की।
ज़िन्दगी और मौत की देहलीज़ पर खड़ी मीना की आखिरी फिल्म "पाकीज़ा" थी। जिसे पूरा होने में १४ सालों से भी ज्यादा वक़्त लगा। कहते हैं कि इस फिल्म निर्माण के दौरान ही मीना और कमाल अमरोही में तलाक हुआ था। तलाक कि चुभन को मीना ने अपने ही अंदाज़ से कुछ यूँ बयां किया था .......
तलाक तो दे रहे हो नज़रे कहर के साथ, जवानी भी लौटा दो मेरी मेहर केसाथ
इधर फिल्म "पाकीज़ा" ने सिनेमा हाल की देहलीज़ पर कदम रखा और उधर मौत ने मीना कुमारी की देहलीज़ पार की। मीना को करीब से जानने वालों का कहना है कि आखिरी वक़्त करोड़ों दिलों की इस मल्लिका के पास सिवाय आंसुओ, टूटे सपनो और अधूरी ख्वाहिशों के कुछ भी न था। मेह्ज़बिं की ज़िन्दगी का फसना मीना कुमारी ने अपनी कलम से कुछ इस तरह बयां किया ॥चाँद तन्हा है, आसमां तन्हा,
दिल मिला है कहाँ कहाँ तन्हा
बुझ गई आस, छुप गया तारा,
थर-थराता रहा धुआ तन्हा
ज़िन्दगी क्या इसी को कहते है
जिस्म तन्हा है, और जां तन्हा
हमसफ़र कोई ग़र मिले भी कहीं
दोनों चलते रहे यहाँ तन्हा
जलती बुझती सी रौशनी के परे,
सिमटा-सिमटा सा एक मकां तन्हा
राह देखा करेगा सदियों तक
छोड़ जायेंगें ये जहाँ तन्हा....
zindgi kya hai ek lafz bemaanii jisko bhi mara hayat ne mara
जवाब देंहटाएंकाश कि आपने इसका ऑडियो भी लोड किया होता! मीना कुमारी ने बहुत खूबसूरत गाया भी है।
जवाब देंहटाएंbadhiya jaankaari bhara lekh..
जवाब देंहटाएंmeena kumari ko sirf unki filmo keliye hi janta tha mai abhi tak, she was a woman also this thought came in mind only when i read this post
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