शनिवार, 8 मई 2010

तेरे पास कौन सी माँ है भाई - "मदरइंडिया" की नर्गिस या "शूटआउट" की अमृता सिंह??

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आज मेरे पास है बंगला है, गाड़ी है, बैंक बैलेंस है, तेरे पास क्या है भाई?? हंई??
भाई, मेरे पास “माँ” है!!
फिल्म "दीवार" केलिए ये संवाद लिखते वक़्त शायद खुद जावेद अख्तर ने भी इनकी गहराई, असर और लोकप्रियता का अनुमान नहीं लगाया होगा।आज अगर कभी ये डायलाग सुनो तो पूछने का मन करता है कि “कौन सी वाली माँ है तेरे पास” ??
फिल्म "मदर इंडिया" की “नर्गिस” जिसने शादी के बाद पति के घर कदम रखते ही भविष्य के सुनहरे सपने बुनने की जगह मुसीबतों और दुखों के पहाड़ काटने शुरू कर दिये, जिसने गाँव की किसी लड़की की इज्ज़त बचाने की खातिर अपने ही हाथों अपने जवान बेटे की जान ले ली।
या फिर फिल्म "दीवार" की माँ “निरूपा रॉय”?? जिसके दो बेटों में से एक धोखे और गैर कानूनी ढंग से कमाई काली दौलत के दम पर ऐशो आराम की ज़िन्दगी जीना पसंद करता है और दूसरा तंगहाली मगर इमानदारी के रास्ते पर चलकर खुद को धन्य समझता है और वो माँ भी अपने दूसरे बेटे के साथ फटे हाल ज़िन्दगी गुज़ारना ज़यादा पसंद करती है।
या फिर हो सकता है कि ये माँ “मैंने प्यार किया” फिल्म की रीमा लागू हो जो पैसे और सामाजिक रुतबे को एहमियत देने वाले अपने पति के असूलों के खिलाफ अपने बेटे का साथ देती है, वो "माँ" जोकि सामाजिक प्रतिष्ठा से ज्यादा पारिवारिक मूल्यों को इम्पोर्टेंस देते हुए एक मध्यम वर्गीय परिवार की लड़की को अपनी बहु के रूप में इसलिए स्वीकार करती है क्योंकि वो उसके बेटे की पसंद है। ये माँ न सिर्फ अपने बेटे को उसी के पिता के खिलाफ जाके "सही" का साथ देने की हिमाकत करती है बल्कि उसे उस मध्यम वर्गीय परिवार की लड़की के स्वाभिमानी पिता द्वारा तय कसौटी पर खरा उतरने केलिए भी प्रेरित करती है। इस माँ को अपने बेटे की जीत पर भरोसा है इसलिए वो अपने खानदानी कंगन बेटे को देते हुए कहती है कि जाके ये कंगन मेरी बहु को दे देना।
ये माँ “दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे” की फरीदा जलाल भी तो हो सकती है। जो अपने पति के खिलाफ खुले आम बगावत तो नहीं कर सकती इसलिए अपनी बेटी से कहती है कि खानदान के मान-सम्मान केलिए उसे अपनी खुशियों की बलि देने कोई ज़रूरत नहीं, उसकी बेटी को हक है अपनी पसंद के लड़के केसाथ ज़िन्दगी जीने का। ये माँ अपनी ही बेटी को शादी का मंडप छोड़ के अपने प्रेमी के साथ भाग जाने को कहती है।
या ये माँ लीक से बिलकुल हटके फिल्म “शूटआउट एट लोखंडवाला” की अमृता सिंह हैं। जो अपने बेटे को ऊँगली पकड़ के जिस रास्ते पर चलना सिखाती है वो रास्ता जुर्म और गुनाह की गलियों से होते हुए फांसी के फंदे पर जाके ख़तम होता है। जो अपने उसी ही बेटे के हाथ में कलम की जगह बन्दूक पकडाती है और जब भी वो किसी बेगुनाह का खून करके घर वापिस आता है तो हर माँ की तरह वो भी अपने हाथों से हर वो चीज़ बनाती है जो उसके बेटे को खाने में पसंद है।
हिंदी फिल्म इतिहास के परदे पर समय-समय पर अवतरित होने वाली "माँ" ये विभिन्न अवतार हैं। ये वो माएं है जिनकी प्रसिद्धि और लोकप्रियता के आगे कई नामी-गिरामी हिरोइनो के लटके-झटके भरे किरदार भी पानी भरते नज़र आते हैं। हिंदी फिल्मों के सौ साला इतिहास में भारतीय दर्शकों ने हर किस्म की माँ के दर्शन किये। "माँ" इस एक शब्द की चादर ओढनेवाली अभिनेत्री का चरित्र, रूप, हालत और बोली जो भी dइकहाई जाये मगर उसके दिल में अपने बच्चे के लिए प्यार का असीम सागर कभी सूखा नहीं दिखाया जाता। और बच्चा भी हर हाल में अपनी माँ की कही बात को पत्थर की लकीर समझता है। फिल्म "मदर इंडिया" की नर्गिस से लेकर लेकर "शूट आउट एट लोखंडवाला" की अमृता सिंह द्वारा अभिनीत माँ के हर किरदार की उम्मीदों पर उसके बेटे/बेटी को खरा उतरना ही पड़ता है। फिल्मों में औरत कि छवि में फर्श से अर्श तक का बदलाव भले ही आया हो लेकिन वो औरत जैसे ही “माँ” बनती है तो उसकी छवि हिमालय जैसी झक सफेद और गंगा की माफिक पवित्र हो जाती है।
पश्चिमी फिल्मों से से कई तरह की गन्दगी से हमरी देसी फिल्में बुसी तरह प्रभावित और क्षतिग्रस्त हुयी। फिर भी अगर किसी प्रयोगात्मक कहानी का वास्ता देते हुए कोई कोई निर्माता-निर्देशक अपनी किसी फिल्म में हीरो की अधेड़/विधवा माँ को अपने प्रेमी से इश्क लड़ाते हुए दिखाने की जुर्रत कर भी ले तो हमारा दर्शक वर्ग इतनी कडवी गोली निगलने को अभी तैयार दिखाई नहीं देता। फिल्मी माँओं में बदलाव तो आया है, पर इतना नहीं कि निरूपा राय की जगह मल्लिका शेरावत या मलायका अरोड़ा ले ले।
वर्तमान फिल्मों में माँ का निरूपा राय वाला रूप तो खैर अब नहीं रहा। लेकिन फिल्मी माँओं को इतना ही आधुनिक दिखाया जाता है कि वह अपन बेटा-बेटी यानि नायक-नायिका की आधुनिकता को हंसी-ख़ुशी बर्दाश्त कर लें। मदार्स दे के अवसर पर फ़िल्मी भगवानो से येही प्रार्थना है की वो आनेवाले समय में कहानी की मांग के नाम पर कम से कम "माँ" के पावन रूप को तो ज़यादा पतित न दिखाएं।

3 टिप्‍पणियां:

  1. asli zindagi me bhi kabhi kabhi samajh nahi pata...maa jab saas roop me hoti hai to itna badla roop kyun hota hai...

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  2. mother's day par badiya post. shandar analysis

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  3. indian maa har roop mein mamta aur tyag ki pratimurti hi rahegi. aya kafi khoj karke likha gaya post hai.

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