शनिवार, 25 जनवरी 2014

नाम में क्या रखा है??

फ़िल्म और टेलीविजन की दुनिया में कुछ नियम ऐसे हैं जो वर्षौ से निभाए जा रहे हैं और आने वाली कई सदियों तक बिना किसी फेर बदल के निभाए जाते रहेंगे। पत्थर पर खिंची लकीर की तरह इन नियमों में एक अहम् नियम है किसी फ़िल्म या धारावाहिक के किरदारों का सरनेम यानि उपनाम रखना। किसी भी फ़िल्म अथवा धारावाहिक में तीन तरह के किरदार होते हैं। एक वो जो ईमानदार, भावुक, सहनशील और त्याग की प्रतिमूर्ति होते हैं। इस तरह के किरदारों के उपनाम में शर्मा, माथुर, गुप्ता, उपाध्याय, दिक्षित जैसे उपनामों को प्रमुखता दी जाती है। पता नही क्यों कहानीकारों यानि लेखकों को इन् उपनामों में बेचारगी, आंसुओं और आत्मसम्मान का मिक्सचर दिखाई देता है?? हालाँकि असल ज़िन्दगी में इन बिरादरियों में भी अच्छे बुरे सभी तरह के लोग पाए जाते हैं। पर मनोरंजन जगत ने कब, कैसे और क्यों इन जातियों का सम्बन्ध सीधे-साधे, त्यागशील या न्याय के खिलाफ आवाज़ उठाने वाले लोगों के साथ जोड़ दिया इसका कोई उत्तर मुझे आज तक समझ नहीं आया। चांदनी फ़िल्म में श्री देवी का नाम चाँदनी माथुर, कुछ कुछ होता है में काजोल बतौर अंजलि शर्मा, खाकी का डी सी पी अनंत श्रीवास्तव टेलीविजन धारावाहिक में कितनी मुहोब्बत है की मुख्य किरदार आरोही शर्मा-ये कुछ ऐसे उदाहरण हैं जो इस वक्त मेरे मस्तिष्क के दरवाज़े पर दस्तखत दे रहे हैं।
फ़िल्म और धारावाहिकों की दुनिया में दूसरी किस्म के लोगों में वो किरदार आते हैं जो रईस, रोबदार या फिर खलनायक का चोला पहन के अवतरित होते हैं। इन किरदारों को खरबंदा, वाधवा, चौहान, अग्रवाल, ओबराय, खुराना, खन्ना, वीरानी, चौधरी जैसे वज़नदार उपनामों का धुरी पर घुमाया जाता है। क्योंकि उस किरदार को हमेशा अपने खानदान की इज्ज़त, रुतबे का ऐलान करना होता है ऐसे में वीरानी खानदान, चौधरी परिवार, वधवा फॅमिली आदि शब्दों का प्रयोग कहानी के पात्र की ऊँची आन-बान और शान को अनायास ही स्थापित करने में सहायता करते हैं। फिल्म कुछ कुछ होता है में राहुल खन्ना, चाँदनी का रोहित अग्रवाल, अग्निपथ का विजय दिना नाथ चौहान, बाबुल में बलराज कपूर, और टेलीविजन धारावाहिकों के पूर्वज क्योंकि सास भी कभी बहु थी का वीरानी परिवार, कुमकुम का वाधवा खानदान, कहानी घर घर की का अग्रवाल परिवार और नई फसल में बंदनी का माहियावंशी परिवार आदि वो उदाहरण हैं जो छोटे-बड़े परदे की कहानी के तयशुदा नियमों पर खरे उतरते हैं।
आख़िर में बात करते हैं छोटे-बड़े परदे के मसखरों यानि हंसने-हँसाने वाले किरदारों की। तो इनके लिए ज्यादातर उपनामों के झमेले में पड़ने की बजाये इनके सिर्फ़ नाम पर ही ध्यान दिया फिर भी। फूल एंड फाइनल का किट्टू पाइलेट, हम आपके हैं कौन में लल्लू, आवारा पागल दीवाना का छोटा छतरी। फिर भी अगर कभी इन्हे उपनामों से नवाजना पड़े तो ज्यादातर दारूवाला, पोपट, चिटनिस, गंसोल्वेस, खोटे, गोडबोले, पिल्लै, सिद्धू, सिंह, यादव, पांडुरंग, आदि उपनामों की लक्ष्मण रेखा के भीतर ही हर लेखक के दिमाग का घोड़ा चक्कर काटता दिखाई देता है।
इस बे-सर पैर के नियम का पालन क्यों किया जाता है पता नहीं। मगर हैरानी की बात ये है की कहानी, किरदार और घटनाओं में नवीनता खोजने वाले लेखकों का खोजी दिमाग कभी भी इस नियम के विरूद्ध जाने का खतरा मोल नहीं लेता।
बहरहाल असल ज़िन्दगी में कोई भी धर्म, जाति या बिरादरी ऐसे किसी नियम से बंधी हुई नही है क्योंकि अगर ऐसा कोई नियम होता तो ऋषि पुलस्त्य के यहाँ राक्षस बुद्धि रावन का जन्म नहीं होता है और राक्षस राज हिरणाकश्यप के यहाँ श्री हरि के परम भकत प्रह्लाद अवतरित न हुए होते।

8 टिप्‍पणियां:

  1. hindi cine jagat par bilkul alag shailee mein likhaa aapkaa ye aalekh pasand aayaa...

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  2. एक बहुत अच्छा लेख लिखा है आपने
    मुझे बहुत बहुत बहुत पसंद आया

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  3. बहुत ही शानदार लेख हैं. काफी रिसर्च किया गया हैं और सलीके से लिखा हुआ हैं पसंद आया आगे भी लिखती रहिये
    ऋचीक मिश्रा
    www.jindgi-live.blogspot.com

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  4. इसकी शुरूवात कहां से हुई मैं ये तो नहीं कह सकता लेकिन असल धुरी बंगाल के लेखकों के कारण जान पडती है। वहां के उपन्यासों में राय , चौधरी, ठाकुरबाडी से जुडे- जमींदारी वर्ग से थे और लेखकों ने उन्हें ही उच्च वर्ग का प्रतिनिधि माना और किसानों आदि को निम्न वर्ग का। कभी गाँवों में आप ने ऑब्सर्व किया हो तो लगभग हर गाँव में कोई न कोई ऐसा शख्स मिलेगा जिसके साथ सभी लोग हंसी मजाक करते हैं और उसे कुछ भी बोल देते हैं - कल्लू , कनवा, लंगडा या इस तरह के शब्द व्यवहार में उसके लिये लाये जाते हैं। उसके प्रति लोगों का इस तरह का व्यवहार उसका कुछ कम अक्ल होना और गरीब होना भी होता है जो उसके व्यवहार के अनुकूलन में सहायक बन जाता है। कुछ हद तक वही सब कुछ फिल्मों में भी उठा लिया गया है। बासु भट्टाचार्य, बासु चटर्जी या ह्रिषिकेष मुखर्जी की फिल्में भी उसी राय साहब, चौधरी आदि जैसे उच्च वर्ग को दिखाने में कामयाब रहे - और एक परिपाटी चल पडी -
    उदा - तीसरी कसम के जमींदार, परिचय फिल्म के प्राण रायसाहब, अमानुष फिल्म का जमींदार भी शायद चौधरी या इसी तरह के नाम वाला था.....इसी तरह का एक ट्रेंड चल रहा है देखिये कब तक चलता है।

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  5. नये अंदाज में फिल्मों का सही विश्लेषण। वाह।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com
    shyamalsuman@gmail.com

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  6. swad ke sath maza bhi aa gaya.. ek bar phir se mera ashirwad apke sath hai writer sahiba..

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