शनिवार, 25 जनवरी 2014

खो गया सुर हमारा-तुम्हारा..

पिछले दिनों एक बहुत ही लोकप्रिय देश भक्ति गीत का रीमेक किया गया। जिसे बनाने और उसके प्रचार में पैसे की धारा को बेरोक-टोक बहाया गया। वो गीत था “मिले सुर मेरा तुम्हारा”। इस बार इस गीत में फ्यूज़न संगीत, खेल और फिल्म जगत के बेहतरीन सितारे और एक से एक ख़ूबसूरत पर्यटन स्थलों की नुमाइश के बावजूद पुरानी पीढ़ी ने इस गीत को देख के कहा कि ओल्ड इज गोल्ड और नयी पीढ़ी केलिए ये गीत आया राम गया राम से ज़यादा कुछ साबित नहीं हुआ। यानि हर एक मसाले का प्रयोग करके भी पकवान फीका रहा।
यही हाल वर्तमान दौर में बनी देशभक्ति की फिल्मों का भी है।देशभक्ति की फिल्मों की जो सौगात मनोज कुमार ने दी वैसा उपहार कई राज कुमार संतोषी, गुड्डू धनोआ या अनिल शर्मा जैसे फिल्म इंडस्ट्री के दिग्गज मिलके भी के भी नहीं दे पाए। मुझे याद है २००२ में शहीद भगत सिंह की कहानी पर एकसाथ करीब आधा दर्जन फिल्में बनी थी और वो सभी फिल्में मिलकर छ दिन भी लोगों के दिल में भगत सिंह या देश के प्रति कोई भावना पैदा नहीं कर सकी थीं।
आखिर ये देशभक्ति या देशप्रेम क्या होता है?? जिस तरह प्यार, गुस्सा, लोभ, अहंकार, दुश्मनी ये गुण, अवगुण या भावनाए इंसान को उसके असली व्यक्तित्व से ऊपर उठाने या निचे गिराने का कारण होती हैं उसी तरह देशभक्ति अथवा देशप्रेम भी एक ऐसी भावना है जो २३ साल के युवक भगत सिंह को सपने देखने और घर बसाने की उम्र में देश पर कुर्बान होने के लिए प्रेरित करती है. जो मोहन दास को वकालत छोड़ के महात्मा गाँधी बनने का जूनून देती है। जो झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई को उसके दूध पीते बच्चे को पीठ पर बांध के युद्ध के मैदान में देश के दुश्मनो के दांत खट्टे करने की हिम्मत देती है। मगर आज वो देशभक्ति की भावना, वो देश केलिए कुछ भी कर गुजरने का जूनून जैसे पारी कथा की तरह काल्पनिक या मिथ्या लगता है।
वर्तमान दौर में “वन्दे मातरम” गीत सुनके कितने लोगों पर सरफरोशी का जूनून सवार होता है या फिर "जन गन मन" की ध्वनि हम में से कितनो की रगों में देश के प्रति आदर, सम्मान की भावना का संचार करती है?? चलो एक बार को मान लेते हैं की इन पुराने गीतों या राष्ट्रीय गीत के बोलों का अर्थ समझ पाने में नयी पीढ़ी सक्षम नहीं इसलिए इन गीतों का उन् पर उतना गहरा प्रभाव नहीं पड़ता लेकिन दुःख तब होता है जब देश भक्ति पर बनी नयी फिल्में और गीत भी देश कि भक्ति भावना को झकझोरने में असफल रहते हैं।
आज की हकीकत ये है कि किसी ज़माने में युवाओं के देशभक्ति जज़बे को ललकारने वाला गीत “ये देश है वीर जवानों का” आजकल लोगों को देश भक्ति केलिए कम और भंगड़ा करने केलिए ज़यादा प्रेरित करता है।
फिल्म हकीकत का अमर गीत “कर चले हम फ़िदा” को सुनके शायद ही किसी का देश पर फ़िदा होने को दिल करता हो। मनोज कुमार कि फिल्म भगत सिंह का यादगार गीत “सरफरोशी कि तमन्ना अब हमारे दिल में है अब गणतंत्र दिवस या स्वतन्त्रता दिवस के अवसर पर बार-बार लगातार बजके भी लोगों को देश के प्रति उनके फ़र्ज़ की याद नहीं दिला पाता।
क्या आजके कहानीकारों, गीतकारों की कलम देशभक्ति के जज़बे से नावाकिफ है या वर्तमान निर्देशको कि सोच देशप्रेम कि भावना से अपरिचित है?? या फिर शायद अब हम सभी लोग अपने देश के प्रति उदासीन हो गए हैं।
आज देश १९४७ से पहले की समस्याओं से कहीं अधिक गंभीर और जटिल समस्याओं से जूझ रहा है लेकिन देशप्रेम की जगह कुर्सी प्रेम, देश भक्ति कि जगह माया यानि रुपया भक्ति और देश की एकता की जगह राजनितिक पार्टी एकता के नारों ने ले ली है। टेलिविज़न और रेडिओ आपसी प्रतिस्पर्द्धा के चलते दर्शकों व् श्रोतओ की खोयी नब्ज़ ढून्ढने का दुसाहस नहीं कर पाते।
मिडिया बिकाऊ, नेता बिकाऊ, कुर्सी बिकाऊ पर क्या देश भक्ति की भावना भी बिकाऊ है?? बिकने वाली हर चीज़ तो पैसा लगाके खरीदी जा सकती है न?? लेकिन पैसे में अगर इतनी ताकत होती तो करोड़ों रुपये की लागत से बना गीत “मिले सुर मेरा तुम्हारा” का रीमक फ्लॉप क्यों हो गया??

3 टिप्‍पणियां:

  1. nice post :)

    bahut behtar tarike se pesh kiya hai aapne apne vichaaron ko :)

    aajkal deshbhakti glamor naam ki bimari peedit hai, yaad hai Dus film ka "suno gaur se duniya valon" geet :)

    is adbhud vichaar shrinkhalaa ke liye dhanyavaad :)

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  2. paise se kuch nahi hota bhavnayein aaj bhi zinda hai...shayad

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