शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2009

राज ठाकरे जी, ये क्या हो रहा है??

जब से राज ठाकरे ने "मराठा वाद" का राग छेड़ा है तब से मैं मुंबई में चलने वाली हवाओं में एक अजीब सा परिवर्तन देख रही हूँ। चुनावों में राज ठाकरे की पार्टी का जिस तरह सुपडा साफ हुआ वो तो खैर होना ही था लेकिन उसके पहले ही टेलिविज़न जगत ने जैसे कसम खा ली थी की अब सारे उत्तर-पूर्वी भारत को मुंबई में ला बसाना है। नतीजतन एकाएक बिहारी, पंजाबी, गुजरती, हरयाणवी, बंगाली कहानियों का एक हजूम सा टेलीविजन धारावाहिकों में उमड़ पड़ा है। और इस नई परम्परा के चलते उत्तर-पूर्वी भाषाओँ में पकड़ रखने वाले कलाकारों को मानो दूरबीन के द्वारा ढूँढा जा रहा है। बच्चों से लेकर बूढों तक के किरदार के लिए कहीं बिहारी तो कहीं हरयाणवी, पंजाबी, गुजराती कलाकारों की चाँदी हो रही है। हर एक चनैल अपने-अपने प्राइम टाइम को और ज़यादा कमाऊ पूत बनाने के लिए उत्तर-पूर्वी भारत के परिदृश्य पर आधारित कहानियों, किरदारों और भाषा का तड़का लगाने में व्यस्त है। कलर्स टीवी पर जहाँ एक और "बालिका वधु" राजस्थान की सुनहरी रेत पर अपनी सफलता का इतिहास रच रही है वहीं "न आना इस देस लाडो" में सभी कलाकार हरयाणवी तेवरों से दर्शकों का मन मोह रहे हैं। एनडी टीवी पर "बंदिनी" ने गुजरात से अपना रिश्ता जोड़ लिया है तो ज़ी टीवी का बहु चर्चित धारावाहिक "छोटी बहु" में बनारस के घाट अपनी लोकप्रियता के परचम लहलहा रहे हैं। "अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो" की बिटिया ने राज ठाकरे के कट्टर दुश्मन बिहार की चुनरी ओढ़ के दर्शकों के दिलों में अपनी जगह बना ली है। यानि कुल मिला के जो चमत्कार टेलिविज़न के इतिहास में आज तक नही हुआ वो इत्तेफाकन अब हो रहा है। जी हाँ ये सब महज़ एक इतेफाक ही है मगर दिलचस्प इतेफाक कि जैसे ही राज ठाकरे ने "मराठा वाद" कि भट्ठी सुलगा के अपने राजनितिक कैरिअर कि रोटियां सकने का बंदोबस्त किया वैसे ही टेलीविजन पर "अनेकता में भी एकता की मिसाल" भारतीय संस्कृति का देस राग गूंजने लगा। जिसका हर एक सुर इतना सधा हुआ है कि आने वाले कई वर्षों तक ऐसे-ऐसे एक सहस्त्र राज ठाकरे मिल कर भी नाखून को मांस से अलग नही कर सकेंगे। जिन छोटी छोटी रियासतों को जोड़ कर अखंड भारत की नीव रखने वाले सरदार वल्लभ भाई पटेल ने "आयरन मैन" यानि लोह पुरूष का खिताब जीता था उस अखंड भारत की नीव को हिलाना किसी राज ठाकरे जैसे कलयुगी "जयचंद" के बस कि बात नहीं। इसलिए हर एक नेता को अभी से ये सबक ले लेना चाहिए कि भारतीय लोकतंत्र का मखोल उड़ने के दिन अब लद गए हैं। जनता का दिल जितने की एक ही "मास्टर की" है और वो है निस्वार्थ समाज सेवा। तो जो जो "नेता गण" भारत भाग्य विधाता बनने का सपना पाल रहे हैं वो अभी से निस्वार्थ सेवा का रास्ता अपना लें तो अगले चुनाव में उनकी जीत का विश्वास मैं उनको दिलाती हूँ।
राज ठाकरे की पूर्व कारिस्तानियों से सम्बंधित एक और लेख पड़ने के लिए यहाँ दिए गए लिंक पर जायें:

http://kashmir-timemachine.blogspot.com/2009/01/w-hen-i-was-thinking-of-going-to-bed.html

शनिवार, 25 जुलाई 2009

सत्तर के उस पार क्या है??

कुछ लोग होते हैं जो दूसरों की मिसाल या उदाहरण दे कर ज़िन्दगी जीते हैं और कुछ लोग वो होते हैं जो जीते जी औरों के लिए एक मिसाल बन जाते हैं। ज़िन्दगी के हर मोड़ पार कुछ न कुछ नया, प्रगतिशील और जीवंत उदाहरण बनने का मनो इन लोगों में एक जूनून सा होता है। इन् लोगों पर उम्र कभी हावी नहीं होती बल्कि ये लोग हर हाल में अपनी उम्र पर हावी हो के ये सोचने पर मजबूर कर देते हैं की क्या सचमुच ये लोग ७० का आंकडा पार कर चुके हैं??
बात की शुरुआत करते हैं पहली बार ऑस्कर पुरस्कार समिति को एक हिन्दी गीत गुनगुनाने और समझने पार मजबूर करने वाले सम्पूरण सिंह कालरा यानी हम सब के अपने "गुलज़ार साहब" से। करीब तीन साल पहले उम्र की ७०वीं देहलीज़ पार कर चुके गुलज़ार साहब जैसे अब आदी हो चुके हैं अपने गीतों से हर साल एक नया इतिहास रचने की। कहानी, संवाद लेखन से लेकर गीत रचना, फ़िल्म निर्माण-निर्देशन, मानों हर जगह गुलज़ार साहब अपना नाम देखने आदत पड़ गई है। पुरस्कारों के मामले में भी इनकी अभिलाशों के बाल अभी भी पके नहीं हैं। गौरतलब है की अपनी कलम को अपनी पहचान बनाने से पहले गुलज़ार साहब एक कार गैरेज में काम करते थे। इनकी कभी न ख़तम होने वाली पारी और कितनी बार दुनिया को इनकी जय बुलाने पर मजबूर करेगी ये कहना मुश्किल है।
आगे बात करते हैं मंगेशकर बहनों की। सत्तर बसंत इन्होने बस यूँ हीं गाते-गुनगुनाते, हम सब का दिल बहलाते कब और कैसे बिता दिए ये किसी को भी पता नहीं चला। विविध भाषाओं वाले देश भारत की किस-किस भाषा के गीतों को इन्होने अपनी जादुई आवाज़ से सजाया है ये कहने से बेहतर होगा ये तलाशा जाए कि कौन सी भाषा में इन् दोनों बहनों संगीत कि साधना नहीं की ? फिल्मफेर, राष्ट्रिय पुरस्कार, दादा साहब फाल्के पुरस्कार इनके लिए मानों हर साल उगने वाली फसलों की तरह हैं। पुरस्कारों कि भीड़ का सामना करते-करते ये बहने भले ही थक चुकी हों लेकिन इनके चाहनेवाले इनकी आवाज़ के जादू से अभी थके नहीं हैं।
ज़िन्दगी में ७० दशकों के बाद एक नई जवानी की बुनियाद रखने वालों में फ़िल्म जगत ही अग्रणीय है ऐसा नहीं है। चौदवी और पन्द्रहवीं लोक सभा में कांग्रेस के सर पर जीत का सेहरा बांधने वाले और पूरे देश को "सिंग इस किंग" का नारा देने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की उपलब्धियों की सूची इनकी उम्र में दर्ज सालों से भी बड़ी हो चुकी है। और वहीँ ७० जमा १० अस्सी के आंकडे को भी छू चुके श्री लाल कृष्ण आडवानी ने तो अपनी जोश और नेतृत्व से अपने से आधी उम्र के राहुल गाँधी तक को अपनी लोकप्रियता और सूझ-बुझ के प्रति आशंकित कर दिया था। देव आनंद, मकबूल फ़िदा हुसैन, जोहरा सहगल, भीम सेन जोशी, दारा सिंह, यश चोपडा ये वो नाम हैं जो आज की युवा पीढी को ये सोचने पर मजबूर करते देते हैं कि क्या इनसे दुगने जोश और सकारात्मक परिस्थितियों के बावजूद वो लोग इनके हौसलों को कहीं रत्ती भर भी छू सके हैं। आखिर इन हरफनमौला, ७०+नौजवानों की ढलती उम्र में चढ़ते जादू का राज़ जानने की क्या कभी हमारे युवा कोशिश करेंगे??

मंगलवार, 21 जुलाई 2009

जम्मू कश्मीर पुलिस-कौन सुने फरियाद??

कहते है की कुरुक्षेत्र में श्रीमद्भागवत गीता का उपदेश देते हुए भगवन श्री क्रिशन ने कहा था की कलियुग में गाय, ब्राह्मण और देवताओं का सम्मान और इनपर लोगों की आस्था ख़तम हो जायेगी।
पर लगता है कलियुग की काली छाया अब पुलिस महकमें पर भी पड़ने लगी है। जिसका जीता-जगता सबूत है शोपियां (जम्मू-कश्मीर) में हुए दोहरे बलात्कार और खून की वारदात के बाद वहां हुई पुलिस-अधिकारीयों की गिरफतारी।
हैरत की बात है की जिस पुलिस महकमें का काम बेबस और अत्याचार के सताए लोगों की फरियाद सुनना है वही पुलिस जब ख़ुद बेबसी के चक्रव्यूह में फँस जाए तो वो अपनी गुहार कहाँ लगाये ??
क्या गुस्से में बौखलाई जनता या यूँ कहें की चंद मतलबपरस्त लोगों की शातिर चाल का मोहरा बनी जनता-जनार्दन की आँखों में पट्टी बांधने केलिए ये कदम उठाये गए हैं या फिर अपना उल्लू सीधा करने केलिए कोई ठोस कारवाही की घोषणा को सच साबित करने के लिए प्रशासन ने ये कदम उठाये हैं??
शोपियां की तस्वीर का दूसरा पहलू नीचे दिए लिंक पर लिखे पोस्ट से उजागर होता है....

http://kashmir-timemachine.blogspot.com/2009/07/satya-mev-jyate.html

शुक्रवार, 3 जुलाई 2009

कारगिल युद्घ और दोराहे पर खड़ी ज़िन्दगी..

पत्रकारिता एक ऐसा जगत है जहाँ जितना भी अच्छा काम कर किया जाए मगर समाज के हरेक एक तबके को आप संतुष्ट और खुश कर सको ये सम्भव नहीं है। लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ पत्रकारिता का सबसे बड़ा उसूल और मकसद सिर्फ़ सामाजिक बुराइयों से पर्दाफाश करना ही नहीं होता बल्कि यदि एक पत्रकार चाहे तो उसकी कलम बेसहारों या बेगुनाहों को न्याय दिलाने केलिए ब्रह्मस्त्र का भी काम कर सकती है।
लेकिन क्या होता है तब जब स्वयं एक पत्रकार परिस्थितियों के चक्रव्यूह में फँस जाता है। ये सच है कि अक्सर पत्रकारों की ज़िन्दगी उन्हें दोराहे पर खड़ा कर देती है जहाँ कर्तव्य और इंसानियत में से एक का चुनाव करना किसी दोधारी तलवार पर चलने से कम नहीं।
पर शायद ज़िन्दगी इसी का नाम है। इन्सान को हमेशा दोराहे पर खड़ा करने की आदत है ज़िन्दगी को। दो ग़लत रास्तों में से मुनासिब और दो सही रास्तों में से बेहतर का चुनाव ही ज़िन्दगी है। कारगिल की लडाई के दोरान ऐसे ही दोराहे पर खड़े पत्रकार की आपबीती पढ़ कर मुझे भी लगा कितनी आसानी से हमलोग 'मीडिया' या इसमें काम करने वाले लोगों की आलोचना करते रहते हैं मगर पत्रकार भी एक इंसान होता है और कई बार उसका ज़मीर भी कर्तव्य निर्वाह में उसका साथ देने से इंकार कर देता है॥

पत्रकार का संस्मरण पढने केलिए यहाँ क्लिक करें....
http://kashmir-timemachine.blogspot.com/2009/07/lt-saurabh-kalia-story-behind-his.html

शुक्रवार, 19 जून 2009

शोपियां, उमर अब्दुल्लाह और काश्मीर..

शोपियां और उमर अब्दुल्लाह के बारे में बहुत कुछ कहा सुना गया है। हालाँकि लिखने या कहने से भुक्तभोगी का दर्द कम नहीं किया जा सकता फिर भी सच का सामना करना ज़रूरी है। सच क्या है ? क्या ये सच है जो लेखक ने ख़ुद कश्मीर के हर गली नुक्कड़ में जा कर खोजने की कोशिश की?? नीचे दिए लिंक पर कश्मीर के वर्तमान हालत का खुलासा किया गया है कितना सही है और कितना ग़लत इसका फ़ैसला दिल से नहीं दिमाग से करना होगा..
http://kashmir-timemachine.blogspot.com/search/label/omar%3B%20shopian

रविवार, 19 अप्रैल 2009

टीआरपी बढ़ रही है पर कृष्ण जी नहीं..

मुरली मनोहर, कृष्ण कन्हैया, नन्द किशोर, रणछोर, गोविन्द, गोपाल, माखनचोर और भी न जाने कितने नाम हैं माँ यशोदा के लाडले कृष्ण कन्हैया के। उस बंसीधर को आज एक नाम मैं भी दे रही हूँ और उनका ये नया नाम है "टीआरपी चोर"। जी हाँ जब से इस नन्हे नटखट का अवतरण कलरस चैनल पर हुआ है तभी से इन्होने बाकी सिरिअल की "टीआरपी" पर चुपके से हाथ साफ करना शुरू कर दिया था। मगर गोकुल के कृष्ण कन्हैया को माखन चुराने में ख़ुद कोई नुक्सान नही उठाना पड़ा था जबकि यहाँ उन्हें "टीआरपी चोर" बनने के बाद अच्छी-मशकत करनी पड़ रही है। और सबसे बड़ा हर्जाना ये है की बढती "टीआरपी" के चलते उनकी उम्र बढ़नी लगभग बंद हो चुकी है। अब नतीजा ये की लीलाधर ने अपनी जिन लीलाओं का आनंद किशोरावस्था में लिया और अपने भक्तों को दिया उन्हें भी वह बाल्यावस्था में ही अंजाम दे रहे हैं। फिर वो चाहे देवराज इन्द्र का मान मर्दन करने के लिए गोवर्धन पर्वत को अनामिका पे उठाना हो या फिर गोपियों के वस्त्र हरण की लीला करनी हो ये सभी काम बढती "टीआरपी" के चलते उनसे बाल्यावस्था में ही करवाए जा रहे हैं॥
इसमें कसूर किसका है ?? क्या साढ़े तीन साल की धृति भाटिया की बेमिसाल अभिनय क्षमता को इसका जिम्मेदार ठहराया जाए या फिर इस बेरहम टीआरपी के खेल को जिसने आज के दौर में हर चैनल और सीरियल निर्माताओं को "इन्सिक्योर" कर दिया है जिसका नतीजा ये कि ये लोग सालों तक एक ही पुरानी बोतल का ढक्कन बदल बदल कर दर्शकों को बेवकूफ बनाते रहते हैं मगर कुछ नया कर पाने की हिम्मत ये तब तक नही उठा पाते जब तक कोई "बालिका वधु" चुपके से दर्शकों के ड्राइंग रूम और दिल में घुसपैठ कर अपना स्थान सुनिश्चित नहीं कर लेती।
खैर हम बात कर रहे थे "टीआरपी चोर" की॥ इस बढती टीआरपी ने उनकी उम्र पर पहरे लगा दिए हैं। अब कंस की कारागार से निकलने केलिए तो देवकीनंदन ने अपनी "माया" का जाल बिछा के जेल के सभी पहरेदारों को सुला दिया था मगर यहाँ जो उनके पहरेदार हैं उन पर उनकी माया का उल्टा असर हो रहा है और वो लोग पुरी तरह चौकन्ने हैं की इस नन्हे टीआरपी चोर से जितनी हो सके टीआरपी की चोरी करवा ली जाए हैं। और इस काम ने उनकी रातों की नींद उड़ा दी है क्योंकि नन्ही धृति यानि कृष्ण से लाजवाब अभिनय करवाने केलिए पूरी टीम को खासी मशकत करनी पड़ती है। इस सिरिअल के निर्माता और निर्देशक केलिए सबसे बड़ी चुनौती है नटखट कृष्ण और मामा कंस के उन दृश्यों का फिल्मांकन करना जहाँ उन दोनों को एक साथ दिखाया जाता होता ई॥ क्योंकि धृति यानि अपने कृष्ण जी जितनी चपलता और सह्जता से कैमरे का सामना कर लेते हैं उतना ही डर उन्हें मामा कंस के सामने आने से लगता है॥ जिसकी वजह से मामा भांजे के एकसाथ दिखाए जाने वाले दृष्यों का फिल्मांकन अलग अलग करके बाद में उन्हें तकनीकी सहायता के द्वारा एक साथ दिखाया जाता है॥
चलो बढती टीआरपी को बनाये रखने केलिए इस समस्या का समाधान तो निकाल लिया मगर मुझे डर सिर्फ़ एक बात का है की महाभारत के इस मुख्य नायक ने कुरुक्षेत्र में जो "गीता" का उपदेश दिया था उसकी जिम्मेदारी भी कहीं नन्ही धृति को ही न उठानी पड़े। पर क्या हमारे दर्शक उस हद्द तक बेवकूफ बनने केलिए तैयार हैं??

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009

संविधान बदलो नेता ख़ुद बदल जायेंगे..

आज़ादी, लोकतंत्र और मौलिक अधिकार मिलने के बाद क्या आपको नही लगता की हमलोगों ने अपनी सोचने समझने की ताकत खो दी है?? देश, समाज, यहाँ तक कि हमारी अपनी जिन्दगी कौन सी दिशा की और जा रही है, किसी के पास वक्त नहीं है ये सब सोचने का॥ त्रिशंकु सरकारें देखते-देखते शायद हमारी अपनी समझ भी त्रिशंकु हो चुकी है॥ दिमागी तौर पर हमलोग न तो ज़मीं पे हैं और न ही आसमान पर॥

क्रिकेट का खेल हो रहा है तो सारा देश उसी धुन में मगन घर-बहार-दफ्तर भुलाये क्रिकेट चालीसा का पाठ करता दिखाई देगा॥ दिवाली है तो हर जगह पटाखों की आवाज़ सुनाई देगी, होली है तो अबीर-गुलाल से सजी दुकाने एक आम नज़ारा होगा, सिक्खों के किसी गुरु का जन्मदिन आया तो पानी की छबीलें हर गली, सड़क पे दिखाई देंगी..... भारत के इस विशाल वृक्ष पे ऐसी ही न जाने कितनी रस्सियाँ लटक रही हैं जिन पर मौसम के अनुसार सारा देश लटकता दिखाई देता है॥


इस लोकतान्त्रिक देश में ऐसा ही एक त्यौहार और भी है.... "चुनाव का त्यौहार" जी हाँ मेरी तरह कई लोग ब्लॉग लिख कर इस त्यौहार को मना रहे हैं, टेलीविजन चैनेल कभी नेताओं को गालियाँ दे कर इस त्यौहार कि रसम निभाते दिखाई देते हैं तो कभी कभी उन्ही का हाथ थामें आधे-आधे घंटे के कार्यक्रम बना के अपने चैनेल का स्लाट भरते दिखाई देंगे॥ कुल मिला के बात ये है कि हम लोगों में और भेड़ बकरिओं में कुछ खास अन्तर नही रह गया है॥ एक ने जो दिशा पकड़ी पूरा देश उसी दिशा की और रुख करके निकल पड़ता है॥
ये चुनाव भी आए हैं हमेशा की तरह कुछ लोग वोट देंगें और कुछ नही देंगे॥ सरकार जैसे तैसे करके बन ही जायेगी और हम लोग अपनी ज़िन्दगी में कोई नया उत्सव मानाने में व्यस्त हो जायेंगे॥
पर क्या चुनाव के वक्त ही देश, नेता और भविष्य के बारे में चर्चा कर लेने से ही हमारी देश भक्ति साबित हो जाती है??
चुनावी बिगुल बजने के साथ ही देश के बारे में बातें करना एक लेटेस्ट फैशन है॥


लेकिन क्या कभी ठंडे दिमाग से हमने सोचा की जितनी शिद्दत से हम पुराने रीति-रिवाज़ बदलने की बात करते हैं उतना ही हम अपने संविधान के लिए लापरवाह हैं॥ कभी किसी ने नही सोचा की ६० साल से भी ज़्यादा उम्र के इस बूढे को अब रिटायर कर दिया जाए और उसकी जगह एक नए संविधान की नियुक्ति की जाए॥ लेकिन ये कैसे होगा ?? देश का युवा पब कल्चर पर लगने वाली रोक पर तो अपना रोष और जोश दिखाने को तैयार है लेकिन संविधान क्यों बदला जाए इसके बारे में सोचने की फुर्सत और समझ उन्हें नही है ॥ और देश के नेता जो "अर्थी" पर लेटने के बाद ही रिटायर हों तो हों ख़ुद कुर्सी का मोह त्यागना उनके बस की बात नहीं॥ वो नेता भला उस कानून को बदलने में दिलचस्पी क्यों दिखायेंगे जो कानून उनका उल्लू सीधा करने में उनकी पुरजोर मदद करता है॥ कभी कोई नही सोचता की आज दफ्तर में चंद फाइलें चलाने वाले एक चपरासी की नौकरी के लिए भी कम से कम ग्रेजुएट होना अनिवार्य है मगर देश को चलाने वाले "नेता" अगर अनपढ़ भी है तो हमें कोई मलाल नही॥ एक ५८ साल का व्यक्ति अगर पुरी तरह तंदरुस्त है तो भी उससे नौकरी से बर्खास्त कर दिया जाता है मगर हर साल दिल, घुटने, गुद्रे यानि सिर्फ़ दिमाग को छोड़ के बाकि सबका ओप्रशन करवाने वाले नेता के रिटायर होने की कोई उमर तय नही है?? आखिर क्यों ?? हम लोग सिर्फ़ मज़हब के भेदभाव पर ही बवाल क्यों मचाते हैं जबकि सबसे बड़ा भेदभाव हमारे संविधान में किया गया है॥ एक आम इंसान के लिए अलग कानून और नेताओं के लिए अलग कानून॥ आखिर क्यों ??
किसी भी नौकरी के लिए आवेदन भरते वक्त हमसे पूछा जाता है की आपका कोई पुलिस रिकॉर्ड तो नही॥ मगर एक नेता केलिए ऐसा कोई सवाल उसके करियर में बाधा नही डालता॥
धरम के नाम पर भारत को एक करने का दावा करने वाले नेता क्या इस भेद-भाव को मिटाने की कोशिश कभी करेंगे?? या हम लोग जो "सेक्युलर" समाज और सरकार चुनने की बात करते हैं, पुराने रीति-रिवाजों से छुटकारा पाने की वकालत करते हैं पर क्या हम कभी इस भेद-भाव को मिटाने के लिए कोई ठोस कदम उठाएंगे??

भीड़ में भी "तन्हा"..

पल पल बड़ते कदम, कुछ तेज़ तेज़ कुछ मधम मधम

वो चीख वो अंदाज़, क्या मौत इसी को कहते हैं ??
आसमानों में टिमटिमाते दिये जैसे तारे,
जो इस तूफान में कुछ धुंधले हो रहे हैं
ये बरफ सी ठंडी आह, मासूम बियाबान रात,
क्या मौत इसी को कहते हैं ??
याद है ज़िन्दगी भी है और तन्हाईं भी..
सिसकती हिचकियां भी हैं और सहमती रात भी
कभी आगोश में लेती हुयी माँ की पुकार को
और कभी धुंधली होती हुयी बच्चे की पुचकार को
क्या मौत इसी को कहते हैं ??
वक्त में बेपनाह लडाई में, जब शाम का आंचल खिसक कर गिर गया
उस बाप की लाचारी भरी मुस्कान को
जो सोचता था शायद रोके न सही हँसके मना लूँगा भगवान को
समझ में तुझे न आया "ज़िन्दगी" तू हवा है और तुझे बहना है
तेरी पशो पैनी पे भी ये आंसू रुकते नही
माँ का आँचल भरता नही
बाप की उदासी कम होती नही
बच्चे का दिल अब चिडिया जैसा चहकता नही
क्या मौत इसी को कहते हैं ??
जो अब आके भी मुझे नही आती..

शनिवार, 11 अप्रैल 2009

जनता "राग" नेताओं केलिए..

चुनावी मौसम् में हर पार्टी अपनी पसंद का गीत संगीत रच कर जनता के कान, आँख, दिल सब को मोह लेना चाहती है॥ अब हमारे नेताओं में इतनी सृजनात्मकता यानि क्रिएटीवीटि भरी है तो जनता का भी कुछ फ़र्ज़ बनता है की उन्ही के अंदाज़ में उन तक अपनी बात पहुँचाने का बंदोबस्त किया जाए॥ ये काम करने के लिए वर्षों पहले दो गीतकारों ने अपनी दूरदर्शी समझ का इस्तेमाल किया और दो ऐसे अमर गीत रच डाले जिन्हें हर चुनावी मौसम में घर घर में बजाना चाहिए॥ जूते चप्पलें तो खैर अब मुंबई की बेमौसम बरसात की तरह यहाँ-वहां से बरस ही रहे हैं लेकिन अगर ये दो गीत हर नेता के आगमन पर बजाने शुरू कर दिए जायें तो शायद हाथी से भी मोटी चमड़ी वाले इन बगुला भगतों की अक्ल में कुछ सुधार होने लगे॥
देखिये उम्मीद पे दुनिया कायम है॥ तो ये पहला गीत है फ़िल्म "नवरंग" जिसके रचेयता थे "श्री भरत व्यास" और दूसरा गीत है फ़िल्म "रोटी कपड़ा और मकान" से इस गीत के चमत्कारिक बोल रचे थे "वर्मा मल्लिक" ने॥ और इतिहास गवाह है की इस गीत ने उस वक्त की मौजूदा सरकार की नींद उदा दी थी॥


फ़िल्म : नवरंग
गीतकार : भरत व्यास

कविराजा कविता के मत अब कान मरोड़ो, धन्धे की कुछ बात करो कुछ पैसे जोड़ो
शेर शायरी कविराजा न काम आयेगी, कविता की पोथी को दीमक खा जायेगी
भाव चढ़ रहे, अनाज हो रहा महंगा, दिन दिन भूखे मरोगे रात कटेगी तारे गिन गिन
इसीलिये कहता हूँ भैय्या ये सब छोडो, धन्धे की कुछ बात करो कुछ पैसे जोड़ो............
अरे छोड़ो कलम, चलाओ मत कविता की चाकी, घर की रोकड़ देखो कितने पैसे बाकी
अरे कितना घर में घी है, कितना गरम मसाला, कितना पापड़, बड़ि, मंगोरी मिर्च मसाला
कितना तेल लूण, मिर्ची, हल्दी और धनिया, कविराजा चुपके से तुम बन जाओ बनिया
अरे पैसे पर रच काव्य, अरे पैसे, अरे पैसे पर रच काव्य, भूख पर गीत बनाओ,
गेहूँ पर हो ग़ज़ल, धान के शेर सुनाओ
लौण-मिर्च पर चौपाई, चावल पर दोहे, सुगल कोयले पर कविता लिखो तो सोहे
कम भाड़े की, अरे कम भाड़े की खोली पर लिखो क़व्वाली, झन झन करती कहो रुबाई पैसे वाली
शब्दों का जंजाल बड़ा लफ़ड़ा होता है, कवि सम्मेलन दोस्त बड़ा झगड़ा होता है
मुशायरों के शेरों पर रगड़ा होता है, पैसे वाला शेर बड़ा तगड़ा होता है
इसीलिये कहता हूँ मत इस से सर फोड़ो, धन्धे की कुछ बात करो कुछ पैसे जोड़ो......

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फ़िल्म : रोटी कपडा और मकान

गीतकार : वर्मा मल्लिक

उसने कहा तू कौन है, मैंने कहा उल्फ़त तेरी, उसने कहा तकता है क्या, मैंने कहा सूरत तेरी
उसने कहा चाहता है क्या, मैंने कहा चाहत तेरी, मैंने कहा समझा नहीं, उसने कहा क़िस्मत तेरी
एक हमें आँख की लड़ाई मार गई, दूसरी तो यार की जुदाई मार गई तीसरी हमेशा की तन्हाई मार गई,
चौथी ये खुदा की खुदाई मार गई, बाकी कुछ बचा तो मंहगाई मार गई, मंहगाई मार गई...
तबीयत ठीक थी और दिल भी बेक़रार ना था, ये तब की बात है जब किसी से प्यार ना था
जब से प्रीत सपनों में समाई मार गई, मन के मीठे दर्द की गहराई मार गई
नैनों से नैनों की सगाई मार गई, सोच सोच में जो सोच आई मार गई
बाकी कुछ बचा तो मंहगाई मार गई, मंहगाई मार गई........

कैसे वक़्त में आ के दिल को दिल की लगी बीमारी, मंहगाई की दौर में हो गई मंहगी यार की यारी
दिल की लगी दिल को जब लगाई मार गई, दिल ने की जो प्यार तो दुहाई मार गई
दिल की बात दुनिया को बताई मार गई, दिल की बात दिल में जो छुपाई मार गई,
बाकी कुछ बचा तो मंहगाई मार गई, मंहगाई मार गई..........
पहले मुट्ठी विच पैसे लेकर, पहले मुट्ठी में पैसे लेकर थैला भर शक्कर लाते थे
अब थैले में पैसे जाते हैं मुट्ठी में शक्कर आती है
हाय मंहगाई, मंहगाई, मंहगाई .... दुहाई है, दुहाई है, दुहाई है, दुहाई... मंहगाई मंहगाई मंहगाई मंहगाई
तू कहाँ से आई, तुझे क्यों मौत ना आई, हाय मंहगाई मंहगाई मंहगाई
शक्कर में ये आटे की मिलाई मार गई, पौडर वाले दुद्ध दी मलाई मार गई
राशन वाली लैन दी लम्बाई मार गई, जनता जो चीखी चिल्लाई मार गई, बाकी कुछ बचा तो मंहगाई मार गई, मंहगाई मार गई...
गरीब को तो बच्चों की पढ़ाई मार गई, बेटी की शादी और सगाई मार गई
किसी को तो रोटी की कमाई मार गई, कपड़े की किसी को सिलाई मार गई
किसी को मकान की बनवाई मार गई,

जीवन दे बस तिन्न निशान - "रोटी कपड़ा और मकान"..........

मंगलवार, 7 अप्रैल 2009

प्रजातंत्र, चुनाव और जूता..

सुना है की कल असम में कोई बम्ब ब्लास्ट वगैरह हुआ था॥ और कोई ८-९ लोग मारे भी गए थे॥ टीवी तो मैंने कल भी देखा था मगर शायद मीडिया उस ख़बर से ज़यादा प्रभावित नही हुआ इसलिए मीडिया की भट्टी असम ब्लास्ट के अंगारे ज़्यादा गरम नही हुए॥ ये भी मुझे आज पता चला॥ अपने के पी एस गिल साहब से द्वारा॥ अभी अभी जब वो आज की सबसे बड़ी ब्रेकिंग न्यूज़ "गृह मंत्री पर चला जूता" के बारे में अपनी निष्पक्ष राय टीवी पत्रकारों को दे रहे थे॥ तब उन्होंने इस जूतागिरी के नए फैशन की निंदा की और साथ ही एक अहम् सवाल उठाया की इस जूतेके पीछे पूरा मीडिया समाज क्यों जुटा हुआ है॥ इतनी हलचल मीडिया में कल क्यों नही हुई जब असम में बम्ब ब्लास्ट हुआ?? कई लोग ज़ख्मी हुए और मारे भी गए??
सच में अगर यह कल की घटित घटना है भी तो इस दुर्घटना से ज़्यादा कल आम दिनों की तरह ही हर टीवी चैनल आने वाले चुनावों के प्रति ही समर्पित दिखाई दिया॥ अरे हाँ कुछ एक चैनल तो राजनेताओं की तिजोरियों का लेखा-जोखा दर्शकों के सामने पेश कर समझ रहे थे कि लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहलाने का उनका उत्तरदायित्व पूरा हुआ॥ इतना कर देने से जनजागृति की मशाल जल उठेगी और आने वाले चुनावों में कोई चमत्कार होगा॥ और शायद दूर किसी अन्य लोक से कोई नई सरकार ज़मीं पर उतर आएगी॥ जो बोट द्वारा मुंबई में घुसपैठ कर आतंक का नंगा नाच खेलने वालों और पड़ोसी देश में बैठे उनके आकाओं के खिलाफ आखरी और निर्णायक कदम उठाएगी॥
क्या हर बार नेताओं की जमा पूंजी का ब्यौरा जनता को देने से और "एक्जिट पोल" पर आधारित कुछ एक समय गवाओं कार्यक्रम प्रसारित करने से हमारा लोकतंत्र को एक सही दिशा और सरकार मिल जायेगी??
क्या मीडिया का ये फ़र्ज़ नही के वो चुनाव से पहले हर नेता की "टेरीटरी" में जायें और वहां की जनता से पूछे कि क्या पाँच साल पहले उनसे किए गए वादे पुरे हुए हैं?? पिछले पाँच सालों में इलाके के नेता ने कितनी बार अपना चेहरा जनता को दिखाया है?? किस नेता के इलाके में उन्नति हुई और कहाँ की जनता के दामन में आज भी सिवाए आक्रोश के और कुछ नही है?? संसद में किस नेता की हाज़री कितनी रही??
क्या फरक पड़ता है सरकार चाहे भाजपा की हो या कांग्रेस की?? देश में भिखारिओं का बिसिनेस और उनकी संख्या बढाती रहेगी, सरकारी स्कूलों के नाम पे चलने वाली बिना पहिये की बैलगाडी की हालत बद से बदतर होती रहेगी, अल्प संख्यकों के नाम पर होने वाली राजनीति में दो चार नए मुद्दे जुड़ते रहेंगे, पेट्रोल का दाम बढ़ता रहेगा और रुपये की कीमत डॉलर के मुकाबले कम होती रहेगी, आतंकवाद और कश्मीर के मुद्दे तो हर सरकार की पाली हुई रखैल पहले भी थे तब भी रहेंगे॥ इसके बिना किसी भी राजनितिक दल का न तो पकिस्तान में गुज़ारा है ना ही भारत में॥ क़र्ज़ और महंगाई के मारे किसान खुदकुशी करते रहेंगे॥ ८४ के दंगो में ६००० से ज़्यादा नरसंहार करवाने वालों को २४ साल बाद चुनाव से ठीक पहले क्लीन चिट मिलती रहेगी और "जरनैल सिंह" जैसे पत्रकार ख़ुद अपने ही समाज का देश की सरकार के हाथों चिर हरण होता देख एक-आधा जूता किसी गृह मंत्री पे फेंके अपनी बेबसी का इज़हार करते रहेंगे और हम ब्लॉग लिखने वाले अपने कंप्यूटर बैठ कर अपने दिल और दिमाग में उठते तूफान को ऐसे ही किसी पोस्ट में लिख कर फिर अगले विषय के बारे में सोचते रहेंगे॥ और प्रजातंत्र चुनाव और जूतों का खेल यु ही चलता रहेगा॥




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शनिवार, 28 मार्च 2009

सफलता का मूल मंत्र : मेहनत या विवाद??

राखी सावंत, संभावना सेठ, राहुल महाजन, मोनिका बेदी, अर्जुन सिंह, ऐ.आर.अन्तुले और अब वरुण गांधी ये उन् लोगों के नाम हैं जिन्होंने नई पीढ़ी को एक ऐसी दिशा दिखाई है जिस पर चल के सिर्फ़ और सिर्फ़ अपना फायदा हो सकता है समाज का नही॥ हालाँकि ये सभी लोग यदा-कदा समाज के ठेकेदार होने का स्वांग रचते रहते हैं मगर जो इन्सान कौए की तरह अपनी पूंछ में मोर का पंख लगाके अपनी चाल और रुतबा बदले मेरी नज़र में वो इंसान विश्वास के लायक हो ही नहीं सकता॥ इन् लोगों ने अपने बड़बोलेपन, बददिमाग तेवरों, विवादित और स्वार्थ से लबरेज़ टिपण्णयों के एस्केलेटर का इस्तेमाल करके रातों-रात सुर्खियों में आने का खोखला मंत्र जनता को दे दिया है॥

हर दुसरे-तीसरे रियलिटी शो में जज या बतोर मेहमान कलाकार आ कर लाखों रुपये बटोरने वाली राखी सावंत को हम में से कितने लोग मिक्का-राखी "किस" विवाद से पहले जानते थे?? यही नही इन मोहतरमा के खुले मुह ने ना सिर्फ़ अपनी अगली ७ पुश्तों की रोज़ी-रोटी का बंदोबस्त कर लिया है बल्कि अपने तथाकथित पूर्व बॉय-फ्रेंड अभिषेक अवस्थी का भी जन्म सफल कर दिया है॥ जोकि आजकल एक हास्य धारावाहिक में अभिनय पतंग की कन्नी काटते दिखाई देते हैं॥ बिग-बॉस सीज़न-२ से पहले भोजपुरी फिल्मों की आइटम गर्ल संभावना सेठ का नाम शायद उसकी बिल्डिंग में रहने वाले लोगों ने भी नही सुना होगा मगर आज उसे हिंदुस्तान के गली-नुक्क्ड में हर कोई पहचानता है?? मगर ये ओछी सफलता की सीढ़ी उसे बिग बॉस के घर में रहने के कारण नही बल्कि अपने बदतमीजी भरे लहजे, साथी सदस्यों पर बेहूदा टिपण्णयों और बेलगाम जुबान के चलते हासिल हुयी थी॥ वरना उसी शो में केतकी दवे पुरी फौज की रसोई बनाते और उन्हें अपने मातृत्व भरी भावनाओ से सराबोर कर-कर के थक गई और आज वो कहीं नही॥ संजय निरुपम, जुल्फी, डाइना हेडेन, एहसान कुरैशी आदि नामों की फेरहिस्त लम्बी है जिन्होंने अपनी छवि और समाज के प्रति एक सफल और प्रसिद्द व्यक्ति की जिम्मेदारियों को समझते हुए मर्यादा के दायरे में रहते हुए दर्शकों का मनोरंजन किया और खेल को खेला॥ मगर सफल होने के लिए विवादों के पायदान पर कभी पाँव नही रखा

अब बात करते हैं कभी छोटे और कभी बड़े हस्गुल्लों से अपना मन बहलाने वाले राहुल महाजन की॥ उनको बिग-बॉस में प्रवेश क्यों दिया गया ये बात जगजाहिर है॥ ड्रग्स काण्ड और इनकी विवाहित ज़िन्दगी के विवादों को मीडिया ने इस कदर हवा दी की राहुल की पो बारह हो गई और एक के बाद एक नौकरी व् बिज़नस में असफल राहुल आज न सिर्फ़ ख़ुद सफलता के गुम्बद्दको थामे हुए हैं बल्कि एक रियलिटी शो के द्वारा नई हास्य प्रतिभाओं को परखने की ज़िम्मेदारी का बोझ भी अपने कमज़ोर कन्धों पर उठा रहे हैं॥ जबकि हास्य या स्टैंडअप्प कॉमेडी से उनका कोई रिश्ता नही है॥ उस लिहाज़ से बतौर जज एहसान कुरैशी का दावा राहुल महाजन से कहीं ज़्यादा पुख्ता है॥ मगर एहसान के पास विवादित छवि नही इस्सलिये उनको पूछने वाला कोई नही..

अब मोनिका बेदी का ज़िक्र करें तो आप-हम सभी जानते हैं की अगर मोनिका पर अबू सलेम की नज़रें इनायत ना होती तो ये कुवारी/विवाहित/तलाकशुदा कन्या (जो भी टाइटल इन्हे पसंद हो ये चुन सकती हैं) का बोरिया बिस्तर अभिनय जगत से कब का बंध चुका था॥ मगर आज ये एक के बाद एक रियलिटी शो में ठुमके लगा रही हैं और एक सफल और जाना पहचाना चेहरा होने का भरपूर आनंद ले रही हैं॥

सफलता के इस महामंत्र के प्रचारकों में अभिनेता ही नही नेता भी काफी बाज़ी मार रहे हैं॥ मुंबई धमाके के शहीदों पर उंगली उठा के समाचार जगत का ध्यान उन धमाकों से हटा के अपनी और खींचने वाले ऐ.आर अंतुले को शायद उनके पड़ोसी या मौजूदा सरकार के कुछ एक गिने-चुने लोग ही जानते होंगे मगर अंतुले ने "अपनी उंगली टेढी कर सफलता का ऐसा घी निकला" की बिना कुछ किए वो अपने समाज के मसीहा के रूप में पूजे जाने लगे॥ विवादित चेहरों का ज़िक्र हो अर्जुन सिंह पीछे रह जायें तो ये उनके साथ अन्याय होगा॥ दूसरी दुनिया से बुलावे का इंतज़ार कर रहे अर्जुन सिंह जब भी अपना नाम सुर्खियों में देखने को बेताब होते हैं बस आरक्षण के ज़हर में डूबा एक तीर युवाओं के दिल में उतार देते हैं॥ नतीजा वील चेयर पर बैठे इस अपाहिज नेता की कुर्सी पर आज भी दीमक नही लगा॥ अस्पताल के चक्कर काटते हुए भी अपने आस-पास जर्नलिस्टों का हुजूम कैसे एकत्रित करना है ये राज़ इनसे बेहतर शायद ही किसी को पता हो॥

और अब आखिर में बात करते हैं गाँधी खानदान के सबसे छोटे चिराग यानि वरुण गाँधी की॥ वरुण के विवादित भाषणों ने शर शैय्या पर पड़ी भारतीय जनता पार्टीको जैसे संजीवनी बूटी सुंघा दी है॥ रातों रात हासिल हुयी इस सफलता ने राहुल गाँधी के प्रधानमंत्री बनने के सपने के रंग ज़रूर कुछ फीके कर दिए होंगे॥ बेचारे राहुल गाँधी जोकि आम आदमी का दिल और वोट जितने केलिए कभी मजदूरों के साथ मिटटी ढोहते दिखाई देते हैं तो कभी कोई और झुनझुना पकडे आम आदमी को अपना हाथ पकडाने की पुरजोर कोशिश करते नजर आते हैं॥ पर सफलता है की एक बेवफा माशूका की तरह बड़े भाई का हाथ छोड़ छोटे भाई का दामन थामती दिखाई दे रही है॥

जो भी हो मेरी आम जनता और खास तौर पे देश के युवाओं से येही गुजारिश है की बजुर्गों कीबनाई कहावत "मेहनत ही सफलता की कुंजी है" इस पर अमल करना न छोडें॥ वरना देश में हर घर में एक संभावना अपने भाई-पिता या माँ को मुह तोड़ जवाब देती नजर आएगी, हर घर में एक राहुल महाजन अपनी पत्नी को पिटता दिखाई देगा, हर गली चोराहे पे एक राखी सावंत जिस्म की नुमाइश करती दिखाई देगी॥ शादी के इश्तिहार में एक अदद अंडर वर्ल्ड से जुड़े पति की फरमाइश की जायेगी॥ हर नेता अन्तुले के नक्शे क़दमों पे चल के शहीदों की चिता पर राजनीती की रोटियां सकेगा और चुनावों में हर पार्टी धर्म के नाम पर जनता को उनकी हिफाज़त के सब्ज़ बाग़दिखाती नजर आयेगी॥ क्यायही है आपके सपनो का भारत??

गुरुवार, 26 मार्च 2009

सुरेखा सिकरी : इस चिराग तले अँधेरा कहाँ..

बहुत प्रसिद्ध कहावत है की चिराग तले अँधेरा होता है॥ मगर इस कहावत के भावार्थ को बदल के दिखाया है ६४ साल की दादीसा यानि सुरेखा सिकरी ने॥ सुरेखा और अभिनय मानो एक ही सिक्के के दो पहलु हैं॥ यही कारण है की सुरेखा को जब जहाँ जिस किरदार में भी देखा तो लगा की मानो यही असली सुरेखा हैं॥ टेलिविज़न पर तमस, सात फेरे या फिर बनेगी अपनी बात जैसे आधा दर्ज़न से भी भी ज़यादा धारावाहिकों में अपनी अदाकारी से दर्शको का मन मोह लेने वाली सुरेखा ने बड़े परदे पर भी अपने अभिनय और मौजूदगी से अच्छे-अच्छे कलाकारों के पसीने छुडाये हैं .. ज़ुबेदा, मम्मो, सलीम लंगडे पे मत रो आदि चाहे जिस फ़िल्म का नाम लीजिये और उसी वक्त सुरेखा यानि एक पर्फ़ेक्शिनिस्ट की ही छवि दिमाग में साकार होगी॥ कमाल की बात ये है की इस हरफनमौला, जिंदादिल कलाकार कीपारिवारिक पृष्ठभूमि में दूर-दूर तक किसी का भी अभिनय से कोई वास्ता नही रहा॥ फिर भी अपने काम के साथ इमानदार रहने की आदत ने सुरेखा को अभिनय की उस बुलंदी पर पहुँचा दिया है जहाँ छोटे-बड़े परदे का फरक ख़तम हो जाता है॥

सुरेखा की मौजूदगी मानो एक चैलेन्ज है हर कलाकार के लिए॥ यही कारण है की उनके बहुचर्चित धारावाहिक बालिका वधु के हर किरदार के अभिनय में हफ्ते-दर-हफ्ते ऐसा निखार आ रहा है की देखने वाले भी दांतों तले ऊँगली दबाते हैं और ये कहने पर मजबूर हो जाते हैं की जब छोटे परदे पर ही अपनी अभिनय क्षमता को दिखाने का इतना बेहतरीन मौका मिल रहा हो किसी को तो कोई बड़े परदे की तरफ़ क्यों जाए॥ मौजूदा दौर में यूँ तो बालिका वधु का हर किरदार अपनी भूमिका के साथ न्याय कर रहा है पर पिछले कुछ एपिसोड से भैरों (अनूप सोनी) और सुगना (विभा आनंद) कई जगह सुरेखा सिकरी यानि दादी सा को भी अपने अभिनय से टक्कर दे रहे हैं॥ कारण साफ़ है के सुरेखा के रूप में उनके सामने अभिनय के इतने ऊँचे मापदंड खड़े हो जाते हैं की अपनी मौजूदगी के एहसास को बनाये रखने के लिए हर किसी को मेहनत करनी पड़ रही है॥ मगर मेहनत का गुड जितना ज़यादा डाला जा रहा है देखने वालों को स्वाद भी उतना ही ज़्यादा आ रहा है॥ अभिनय, निर्देशन, सिनेमाटोग्राफी चाहे जिस कोण से देखें ये सफलता के मामले में ये धारावाहिक नित नई बुलंदियों को छू रहा है॥ ये सब देख के तो यही लगता है की सुरेखा जैसे दिए की विशाल लो के आस-पास टिमटिमाते हर दिए के होसले बुलंद हो रहे हैं तभी तो दूरदर्शन और अन्य कई निजी चैनलों द्वारा खोटे सिक्के की तरह ठुकराए जा चुके इस सीरियल की उड़ान ने टेलिविज़न के इतिहास को बदल के रख दिया॥

मंगलवार, 24 मार्च 2009

हिन्दी में ब्लॉग : आख़िर क्यों ??

ये नया हिन्दी ब्लॉग शुरू करते वक्त ही मेरे दिमाग में ये बात उठी थी की मुझे इस सवाल का जवाब कई बार देना होगा॥ हिन्दी में एक ब्लॉग क्या शुरू कर दिया मानो ये एक सवाल जी का जंजाल बन गया है॥ कुछ टिपण्णयों पर ग़ौर फरमाइए--क्या फायदा ऐसी भाषा में ब्लॉग लिखने का जिसे पढ्नेवाला ही कोई न हो?? या फिर लगता है दिल्ली की याद कुछ ज़्यादा ही सताने लगी है??
मैंने भी सोच रखा था कि मेरा जवाब इसी ब्लॉग पर मिलेगा सबको॥ तो सवाल है कि आख़िर हिन्दी में ब्लॉग क्यों?? सबसे पहली बात मैंने भारत यानि हिंदुस्तान में जन्म लिया है और बचपन से ही मुझे सिखाया गया कि हिन्दी मेरी मातृभाषा है॥ आजभी हिंदुस्तान के करीब ७०% लोगों केलिए हिन्दी ही आपसी बोलचाल का एकमात्र ज़रिया है॥ अब अगर मेरा मन किया कि मैं अगर बचे हुए ३०% लोगों कि श्रेणी में ख़ुद को रखते हुए बाकि ७०% हिन्दी जनमानस का साथ निभाती रहूँ तो इसमें आख़िर बुरा क्या है??
जैसा कि श्रीमान वरिष्ठ बच्चन साहब, सीधी सरल भाषा में बिग "बी" यानि अमिताभ बच्चन के बारे में भी मैंने सुना है की वो यदा-कदा अपना ब्लॉग हिन्दी में भी लिखते हैं॥ इस बात को मीडिया ने फुटबाल की तरह उछाला॥ वो भी ये कहते हुए कि मातृभाषा को सम्मान और पहचान देने वालों में अगर अमिताभ सरीखे प्रसिद्द व्यक्ति का योगदान होगा तभी लोगों के मन में अपनी मातृभाषा के प्रति लगाव उजागर होगा॥ पर जैसे ही वो लगाव मेरे मन में उजागर हुआ तो कई लोगों का हाज़मा ख़राब हो गया॥ दरअसल मीडिया से एक चूक हो गई क्योंकि उन्होंने बच्चन साहब के हिन्दी में ब्लॉग लिखने कि ख़बर का प्रचार ग़लत तरीके से किया क्योंकि यदि बात को कुछ इस तरीके से कहा जाता के बिग "बी" न सिर्फ़ हिन्दी में ब्लॉग लिखते हैं बल्कि वो हिन्दी के ब्लॉग पढ़ते भी हैं तो शायद हिन्दी बोलने -लिखने-समझने में अपँग जनमानस को मेरा हिन्दी में ब्लॉग लिखना यूँ नागवार न होता और उनके मन में ये न उठते कि क्या फायदा ऐसी भाषा में ब्लॉग लिखने का जिसे पढ्नेवाला ही कोई न हो?? जो भी हो अब जब लिखना शुरू किया ही है तो इतना ख्याल मुझे भी रखना होगा कि मेरा ये खुमार महज़ एक हिन्दी बचाओ सप्ताह या हिन्दी पखवाडा बनके न रह जाए॥
हिन्दी भाषा के जानकारों के लिए मेरा इतना ही निवेदन है कि भाषा में गलतियाँ हों तो कृपया अपने मन की शान्ति भंग न किजिगा क्योंकि कई बार तकनीकी जानकारी के आभाव के कारण भी न होने वाली गलतियाँ हो जाती हैं॥ तो कृपया शान्ति का दान दें॥

गुरुवार, 19 मार्च 2009

बहु पिट चुकी अब बेटी की बारी..


देखिये सभी महिला मंडल और महिला अधिकार समितियों से मेरी गुजारिश है कि सिर्फ़ टाइट्ल पढके मेरे खिलाफ नारे लगाने से पहले पूरी बात जान लें.. ये वो पिटाई नहीं जहाँ लाठी, थप्पड़ या जूतों से पिटाई की जाए ये टीआरपी के जूतों से होने वाली पिटाई है॥ जहाँ न तो किसी के आंसू निकले हैं ना ही खून.. पर प्रोड्यूसर और चैनल को घटा होने पे दोनों खून के आंसू ज़रूर रोते हैं..

चलो अब मुद्दे की बात पे आते हैं की ये टीआरपी की पिटाई आखिर कौन सी पिटाई है॥ तो सुनिए क्योंकि सास भी कभी बहु थी, छोटी बहु, बड़ी बहु, मंझली बहु, तीन बहुरानियाँ वगैहरा-वगैहरा यानि इधर-उधर और दुनिया भर की बहुओं की जामात ने पुरे आठ तक साल हम लोगों के ड्राइंग रूम पे हुकूमत की॥ और वो भी एक २०" के डिब्बे के बलबूते पे॥ २०" का डिब्बा अरे वही इडिअट बक्सा, अपना टेलिविज़न॥
आखिरकार ये सरकार कभी न कभी तो गिरनी ही थी न॥ तो जी देश ने अपनी "एकता" दिखाई और बहुओं की टीआरपी गिरा के कर दी उनकी जम के पिटाई॥ पर हम सीरियल बनाने वाले भी कहाँ चुप बैठने वाले हैं॥ बस एक हुकूमत का तख्ता जनता ने पलटा तो हमने दूसरी को ला बिठाया लोगों के घरों में॥ अब ये दूसरी कौन ? नही जी हम यहाँ दूसरी बीवी या बहु की बात नही कर रहे ये दूसरी हैं टेलिविज़न पर नई सरकार बनानेवाली बेटियाँ.. ना आना इस देस लाडो, मेरे घर आई एक नन्ही परी, लाडली, अगले जन्म मोहे बिटिया ही कीजो.. इस सरकार के प्रमुख सदस्य हैं॥ और सदस्य भीआते रहेंगे॥ और कुछ सालों तक इस सरकार की हुकूमत सलामत रहेगी॥ अब सरकारें तो बदल गई पर परदे के पीछे की हकीकत वही की वही है..आज भी मेल कलाकारों से ज़्यादा फिमेल कलाकारोंको देसी घी में चुपडी और तड़का मार रोज़ी-रोटी मिल रही है.. क्योंकि बहु का किरदार हो या बेटी का निभाना तो किसी फेमेल कलाकार को ही पड़ेगा न.. यानि संसद में महिलाओं को 33% आरक्षण मिले या न मिले पर टेलिविज़न की सरकार की बागडोर महिलों के ही हाथ रहेगी.. वो तो गनीमत है के नेताओं का धयान इस तरफ़ नही गया वरना मायावती कीकोशिश होती के दलित कलाकारों को आरक्षण दो, राज ठाकरे मराठी कलाकारों को काम देने वाले निर्माताओं को ही फ़िल्म सिटी में शूटिंग करने देते॥ और अगर सभी राजनितिक दलों में किसी बात पे "एकता" होती तो वो ये के महिला कलाकारों की सीटें कम हो .. अगर ऐसा होता तो इन बहु-बेटियों का क्या होता ?? फिर शायद कुछ इस तरह के सीरियल दिखाई देते क्योंकि ससुर भी कभी दामाद था, बाल-दामाद, फिर आना इस देस लाडेसर, अगले जन्म मोहे छोरा ही कीजो॥
जो भी हो टीआरपी के जूतों से पिटाई तो इनकी भी होती.. वैसे ही जैसे बहुओं की हुई और देखना है की बेटियोंकी पिटाई कितने साल बाद होगी और फिर उसके बाद क्या?? फिर से बहुए या अगली बार कुछ और?? ज़रा सोचिये ..

बुधवार, 18 मार्च 2009

ये क्या जगह है दोस्तों..


नई दिल्ली का मंडी हाउस.. पता नही आप में से कितने लोग इस जगह के नाम से वाकिफ होंगे?? खैर जो लोग इस जगह को जानते हैं और जो नहीं जानते उनके लिए भी एक सवाल है की इस जगह का नाम मंडी हाउस क्यों और किसने रखा?? जबकि यकीन मानिये कि इस जगह का किसी भी चीज़ की मंडी यानि बाज़ार से कोई लेना-देना नही है.. बस एक सर्कल है जोकि छ: अलग-अलग दिशों की तरफ़ लोगों की ज़िन्दगी को ले जाता है.. मैंने भी इस सर्कल के अनगिनत चक्कर लगाये हैं.. कभी जल्दी में किसी काम से और कभी बस यूहीं आराम से॥

हाँ कुछ सरकारी दफ्तर ज़रूर हैं यहाँ पर इतने नहीं कि इस जगह का नाम मंडी हाउस रख दिया जाए.. एक वो दफ्तर भी है जिसका मीडिया में होने के बावजूद भी दर्शन करने को कभी मेरा मन नहीं करता यानि दूरदर्शन.. और कुछ औडिटोरिअम्स भी हैं॥

अरे हाँ नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा में ज़रूर हर साल भाजी-तरकारी के हिसाब कलाकारों की नई मंडी तैयार की जाती है.. जिनमेसे कितनो को खरीदार मिलते हैं इसका लेखा तो राम जी के पास शायद हो..

और हाँ एक और जगह है हिमांचल भवन.. मैंने सुना है की हिमांचल में एक मशहूर जगह है मंडी.. पर हिमाचल भवन बनने से काफी साल पहले ही इस जगह का नाम मंडी हाउस रख दिया गया था.. खैर जी मेरे सवाल का जवाब मिलते-मिलते रह गया की इस जगह का नाम मंडी हाउस क्यों रखा गया??

बड़ा कठिन प्रशन है और जहाँ तक मुझे लगता है की अगर आज की तारीख में बीरबल या तेनालीरामा जिंदा होते तो वो भी इस गुत्थी को नही सुलझा पते.. जो भी हो है बड़ी अच्छी जगह.. कार में बैठ के सर्कल के तरफ़ चक्कर लगते हुए आइस-क्रीम का मज़ा लो तो ज़िन्दगी इन छ: दिशाओं को छोड़ सातवी दिशा की तरफ़ निकल पड़ती है..