शनिवार, 24 सितंबर 2016

Uri Attack, भारत की pseudo secular रुदालियाँ और पाकिस्तानी कलाकार

पाकिस्तानी कलाकारों को बैन करने पर बवाल करने वालों की हालत देख लगता है कि झूठी वाह-वाही पाने की चाहत कैसे लोगों के आत्म-सम्मान तक को जंग लगा देती है|
#UriAttack के शहीदों की चिता की राख ठण्डी न हुई थी कि हमें hypocrite पाकिस्तानी कलाकार अच्छे लगने लगे, कोई बड़ी बात नहीं कि उन शहीदों की अन्तिम क्रिया पूरी होने तक हमें नवाज़ शरीफ़ भी एक मजबूर, बेबस प्रधानमंत्री लगने लगे, फिर उन 18 शहीदों की बरसी होते-होते हम फिर से आतंकवादी हाफिज़ सईद के नाम के साथ "जी" लगाना शुरू कर दें, और साथ ही हमारी बरखाओं और अरुन्धतियों के नाम फिर से खुल्लम-खुल्ला पाकिस्तानी आतंकवादियों के दुआ-सलाम और न्योते आने शुरू हो जाये...
क्योंकि हम Secular हैं - वाह-वाह वाह-वाह, क्योंकि बुरहान वानी एक ग़रीब स्कूल मास्टर का अमनपसन्द बेटा था - वाह-वाह वाह-वाह, क्योंकि चंद पाकिस्तानी कलाकारों के #ParisAttack पर घड़ियाली आंसू बहाने और #UriAttack पर मुरदापरस्त चुप्पी के बावजूद हम उन्हें सिर-आँखों पर बैठाते रहेंगे - वाह-वाह वाह-वाह... #सैनिक तो एक शहीद होगा, हज़ार मिल जायेंगे पर #पाकिस्तानी_कलाकार ................... वाह-वाह वाह-वाह.......
अरे-अरे मुझे अपनी बात तो पूरी करने दो पहले ही "वाह-वाह वाह-वाह" शुरू कर दी............ वाह-वाह वाह-वाह, वाह-वाह वाह-वाह
और अब जाते-जाते आज की खरी-खरी - 
हम उस देश के वासी हैं जिस देश में दुर्गा पूजा बैन पर चुप्पी और पाकिस्तानी कलाकारों के बैन पर बवाल होता है

गुरुवार, 25 अगस्त 2016

अपने बच्चों को जहन्नुम क्यों भेजना चाहते हैं कश्मीर के अलगाववादी?

कश्मीर एक बार फिर जल रहा है मगर देखा जाये तो धरती का ये स्वर्ग सन 47 से ही जल रहा है फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि इस बार आतंकी बुरहान वानी की मौत के बाद कश्मीर धधकने लगा है| हालाँकि कुछ कश्मीरी ऐसे हैं जो इन अलगाववादी नेताओं के एक इशारे पर सड़कों पर उतर आते हैं लेकिन अधिकतर कश्मीरी इन अलगाववादी नेताओं द्वारा जारी कैलेंडर को मानने के लिये मज़बूर हैं|

ये अलगाववादी नेता कश्मीरी जनता (अधिकतर बेरोज़गार युवा जो अच्छे-बुरे को समझने के मामले में अभी अनुभवहीन है) को बेवकूफ़ बनाने के लिये कहते हैं कि हम आज़ादी की लड़ाई लड़ रहे हैं, इसमें मारे जाने वालों को जन्नत नसीब होगी. और बदकिस्मती से इन मतलबपरस्त नेताओं के कहने में आकार कश्मीरी आवाम शहर बंद कर देते हैपत्थर बरसाने लगता है जबकि तस्वीर का दूसरा पहलु यह है कि इन अलगाववादियों के अपने बच्चे और नाते-रिश्तेदार कोई भी कश्मीर में नहीं विदेशों में रहते हैं और वो भी तमाम सुख-सुविधाओं के साथ| इनमें से कुछ एक के परिवार मलेशियाब्रिटेन, कनाडा और अमेरिका में हैं तो कुछ के बच्चे दिल्लीमुम्बई या बेंगलुरु में रहकर या तो ऊँची तालीम हासिल कर रहे हैं या फिर किसी अच्छी नौकरी में सेटल्ड हैंअगर कश्मीर आ खून-ख़राबा आज़ादी की लड़ाई है तो ये अलगाववादी अपने बच्चों को इस नेक काम में आगे क्यों नहीं खड़ा करते| ये बात तो पक्की है कि शिक्षा, नौकरी यहाँ तक कि बस या ट्रेन में ये अलगाववादी नेता किसी ज़रूरतमन्द कश्मीरी को अपनी सीट नहीं देंगे फिर जन्नत की बुकिंग करते समय ये अपनों के लिये वहाँ पहले रिज़र्ववेशन क्यों नहीं करवाते, दूसरों के बच्चों को बन्दूक उठाने के लिये क्यों उकसाते हैं?
जैसे ही अलगाववादी नेताओं के बच्चे होश सँभालते हैं तू ये लोग उन्हें कश्मीर से बाहर भेज देते हैं| न तो कभी इनके बच्चे किसी प्रदर्शन में शामिल होते दिखाई देते हैं और न ही पथराव करने वालों की भीड़ का हिस्सा बनते हैं और न ही इनके आतंक के रास्ते पर चलने की शिक्षा दी जाती है| वर्ष 20082010 के दंगों में भी कुछ ऐसा ही मंज़र देखने में आया था और इस बार भी इन अलगाववादी नेताओं के बच्चे-रिश्तेदार अख़बार में छप रही तस्वीरों और सुर्ख़ियों से नदारद हैं| कई बार तो ऐसा भी देखने में आया है कि इन नेताओं के बच्चे उस दौरान कश्मीर में आए लेकिन उन्हें फ़ौरन वापस भेज दिया गया| अब सवाल  ये उठता है कि आखिर अपने बच्चों को इस जिहाद में शामिल क्यों नहीं करते ये मतलबपरस्ततो क्या अपने बच्चों को जहन्नुम भेजना चाहते हैं ये अलगाववादी? इन सवालों के जवाब कश्मीरी अवाम को ही ढूंढने होंगे वरना कश्मीर ऊपर की जन्नत का तो पता नहीं लेकिन धरती की जन्नत "कश्मीर" के नाम पर सरे ऐश-ओ-आराम और सुख ये अलगाववादी और इनके बच्चे भोगते रहेंगे और कश्मीर की अवाम को मिलेगी तो सिर्फ़ ग़रीबी, भुखमरी और एक खोखला और झूठा आश्वासन कि मरने के बाद ख़ुदा तुम्हारे बच्चों को जन्नत अता फरमाएंगे

गुरुवार, 18 अगस्त 2016

ओल्ड-बोल्ड and ब्यूटीफुल...


हिंदी फिल्मों में सबसे बोल्ड एंड ब्यूटीफुल हिरोइन्स की अगर लिस्ट बनायीं जाये तो उस लिस्ट में आप सबसे पहले किसका नाम लिखेंगे? सन्नी लिओनी को अगर एक तरफ रख कर सोचें तो "डर्टी पिक्चर" की खुबसूरत विद्या बालन का या फिर बोंगशैल बिपाशा बासु का या हो सकता है कि आप इस लिस्ट की शुरुआत हरियाणवी बाला मल्लिका शेरावत के नाम से करें. लेकिन फिल्मों के इतिहासकरों को अगर ये लिस्ट बनानी पड़े तो वो इस लिस्ट की शुरुआत हिंदी फिल्मों की सबसे पहली बोल्डबेबाकबिंदास हीरोइन देविका रानी के नामसे करेंगे. नोबल पुरस्कार से सम्मानित कविश्री रविन्द्रनाथ टैगोर की भतीजी देविका अपने युग से कहीं आगे की सोच रखने वाली एक्टर थीं. हिंदी फिल्मों की पहली स्वप्न सुंदरी और ड्रैगन लेडी कहलाने वाली देविका ने 1933 में बनी फिल्म कर्मा” में कीसिंग” सीन देकर जैसे ज़माने की नीव हिला के रख दी थीये वो दौर था जिस जब भारत की महिलायें घर की चारदीवारी के भीतर भी घूंघट में मुँह छुपाये रहती थीं.पद्मश्री और दादा साहेब फाल्के अवार्डधारी देविका और उनके पति हिमांशु राय के बीच फिल्माए गए इस चार मिनट लंबे किसिंग सीन को आज भी इन्डियन फिल्म हिस्ट्री में सबसे लंबे कीसिंग सीन का दर्जा हासिल है।


देविका की देखा-देखी ट्रेजेडी-क्वीनमीनाकुमारी ने भी फिल्म फुटपाथमें उस ज़माने के हिसाब से काफी बोल्ड सीन दिए, उसके बाद फिल्म आवारामें नर्गिस, "दिल्ली का ठग" में नूतनफिल्म "अपराध" में मुमताज़ और "एन इवेनिंग इन पेरिस" में शर्मीला टैगोर ने टू-पीस बिकनी की मशाल जला के ना जाने कितने महिला मुक्ति मोर्चे वालों की नींद हराम कर दी थी. ये उस दौर की नारियों का दुस्साहस था जब फिल्मों में हीरोइन का काम किसी डेली सोप्स की फीमेल प्रोटेगोनिसट की तरह ६ गज़ लंबी साड़ी के पल्लू से आंसू पोंछने से ज़्यादा कुछ नहीं होता था.
लेकिन आज रील और रियल लाइफ दोनों जगह हालत बदल चुके हैं. आज जबकि रियल लाइफ में भी लड़कियों का फिज़िकल एक्स्पोज़रस्टेटस सिम्बल या मोर्डनिज्म का सीनोंनीम बन चुका है तो ऐसे में फ़िल्मी अप्सराओं का कम कपड़ों में दिखाई देने पर ना तो किसी महिला मुक्ति मोर्चे के पेट में दर्द होता है और ना ही फिल्म क्रिटिक ही अब इस बात पर कोई खास तवज्जो देते हैं. लेकिन इन बदले हालत में नई पौध की हीरोइनो के सामने सबसे बड़ी चुनौती है रातों रात लोकप्रिय बनाने का कोई खासा-म्-खास फोर्मुला ढूंडना. क्योंकि अगर लोकप्रियता हासिल करने के सपने को महज़ एक्टिंग और टेलेंट के भरोसे छोड़ा गाया तो एक ना एक दिन खुद को यही समझाना पड़ेगा कि बालिके ना नौ मन तेल होगा और ना राधा नाचेगी”.

शनिवार, 25 जनवरी 2014

अपने बच्चों का भी नाम रोशन किया इन्होने..

"बधाई हो कुल का चिरा पैदा हुआ है".... "अरे आपका बच्चा तो बड़ा समझदार है ये ज़रूर माँ-बाप का नाम रोशन करेगा"..... ऐसे जुमले और बधाइयाँ अपने भी सुनी और दी होंगी॥ मगर क्या ये बातें हमेशा सच होती हैं॥ क्या सिर्फ़ बच्चे ही माँ-बाप का नाम रोशन करते हैं?? अगर ये बात आपको सही लगती है तो ज़रा इन् नामों पर गौर फरमाइए महात्मा गाँधी, किरण बेदी, लाल बहादुर शास्त्री, हेमा मालिनी, राजेंद्र कुमार, देव आनंद, डिम्पल कपाडिया और राजेश खन्ना॥ उदहारण देने के लिए नाम और भी हैं जोकि इस बात को सिरे से नकारते हैं की सिर्फ़ बच्चे ही माता-पिता नाम रोशन करते हैं॥ जबकि तस्वीर का दूसरा पहलु ये भी कहता है की कुछ माता-पिता भी गुंणों की ऐसी पारसमणि लेकर पैदा होते हैं जिसकी चमक आने वाली कई पुश्तों का नाम रोशन करती है॥

चलिए बात शुरू करते हैं राष्ट्र पिता महात्मा गाँधी से, जिनके बारे में मैं दावे के साथ कह सकती हूँ की दुनिया भर में शायद ही कोई ऐसा बदकिस्मत देश हो जिसके लोगों ने अहिंसा के इस पुजारी का नाम न सुना हो॥ और ये बात भी मैं दावे के साथ कह सकती हूँ की अपने ही देश में शायद चंद ही ऐसे खुशकिस्मत लोग होंगे जिन्होंने बापू के चारों बेटों के नाम सुने होंगे॥ हीरालाल, मणिलाल, रामदास और सबसे छोटा देवदास, ये वो नाम हैं जो तभी चमकते हैं जब इनके साथ मोहनदास गाँधी लिखा हो॥ जी हाँ ये चारों हमारे राष्ट्र पिता की संतानों के नाम हैं॥

चलिए आगे बढ़ते हैं और बात करते हैं "जय जवान जय किसान" का अमर नारा देने वाले भारत के तीसरे प्रधानमंत्री यानि श्री लाल बहादुर शास्त्री जी की॥ जिनका नाम सुनके आज भी हम सबकी आंखे आदर से झुक जाती हैं उनके सुपुत्र अनिल और सुनील शास्त्री॥ देशवासियों को इनसे मुखातिब होने का मौका शास्त्री जी की पुण्य तिथि पर ही मिलता होगा॥ इसके बाद बात करते हैं भारत की प्रथम महिला आईपीएस अधिकारी डॉ किरण बेदी॥ जिन्हें मिली सफलता और अवार्ड्स की लिस्ट बनाने बैठो तो ये एक लेख भी कम पड़ जाएगा॥ आज किरण को देश का हर बच्चा, जवान जानता है मगर उनकी सुपुत्री साइना का नाम बच्चे तो छोडिये शायद बड़े भी नही जानते होंगे॥

चलिए अब थोडी सी करवट लेते हैं और देखते हैं की फ़िल्म इंडस्ट्री के दिग्गजों मैं से किस-किस ने अपने नौनिहालों का नाम रोशन किया है॥ सबसे पहले मुझे नाम याद आ रहा है ड्रीम गर्ल हेमा मालिनी का॥ जिनकी बड़ी बेटी ईशा देओल के कपडे ज़्यादा छोटे हैं या उनकी फिल्मों की बॉक्स ऑफिस कोल्लेक्शन ये कहना ज़रा मुश्किल काम है॥ जबकि वहीँ दूसरी तरफ़ हेमा हैं की उम्र में ६० का आंकडा छूने के बावजूद भी अपने दर्शकों के सपनो में आना नही छोड़ा उन्होंने॥ देव आनंद साहब के साहबजादे सुनील आनंद को शायद राशन कार्ड दफ्तर या पासपोर्ट ऑफिस के लोग भी नहीं पहचानते होंगे॥ डिम्पल और राजेश खन्ना की बेटियाँ ट्विंकल और रिंकी खन्नाको भी वि.आई.पी का दर्जा पाने के लिए अपने माता-पिता के ही नाम का सहारा है॥ इस कड़ी में एक और ख़ास नाम मैं ज़रूर लेना चाहूंगी वो है अपने ज़माने में "जुबली कुमार" के नाम से मशहूर रहे राजेंद्र कुमार॥ जिनके सुपत्र कुमार गौरव ने पिता से उलट दिशा में जाके बतौर सुपर फ्लॉप हीरो इतिहास रचा॥ ऐसे ही मनोज कुमार, माला सिन्हा, वैजन्ती माला, राज कुमार, प्रेम नाथ, महमूद और प्राण॥ ऐसे कितने ही नाम हैं जिन्होंने अपने बच्चों के पैदा होने पर "कुल का चिराग पैदा हुआ है" ये बधाइयाँ तो बहुत बटोरी होंगी मगर उस वक़त शायद उन्हें भी इस बात का अनुमान नही होगा की आने वाली कई पुश्तों के नाम को अपने से ज़यादा उनके नाम की रोशनी का इस्तेमाल करना पड़ेगा॥ शायद किसी ने सच ही कहा है.....

किस्मत बनानेवाले तुने कमी न की, अब किसको क्या मिला मुकद्दर की बात है......

खो गया सुर हमारा-तुम्हारा..

पिछले दिनों एक बहुत ही लोकप्रिय देश भक्ति गीत का रीमेक किया गया। जिसे बनाने और उसके प्रचार में पैसे की धारा को बेरोक-टोक बहाया गया। वो गीत था “मिले सुर मेरा तुम्हारा”। इस बार इस गीत में फ्यूज़न संगीत, खेल और फिल्म जगत के बेहतरीन सितारे और एक से एक ख़ूबसूरत पर्यटन स्थलों की नुमाइश के बावजूद पुरानी पीढ़ी ने इस गीत को देख के कहा कि ओल्ड इज गोल्ड और नयी पीढ़ी केलिए ये गीत आया राम गया राम से ज़यादा कुछ साबित नहीं हुआ। यानि हर एक मसाले का प्रयोग करके भी पकवान फीका रहा।
यही हाल वर्तमान दौर में बनी देशभक्ति की फिल्मों का भी है।देशभक्ति की फिल्मों की जो सौगात मनोज कुमार ने दी वैसा उपहार कई राज कुमार संतोषी, गुड्डू धनोआ या अनिल शर्मा जैसे फिल्म इंडस्ट्री के दिग्गज मिलके भी के भी नहीं दे पाए। मुझे याद है २००२ में शहीद भगत सिंह की कहानी पर एकसाथ करीब आधा दर्जन फिल्में बनी थी और वो सभी फिल्में मिलकर छ दिन भी लोगों के दिल में भगत सिंह या देश के प्रति कोई भावना पैदा नहीं कर सकी थीं।
आखिर ये देशभक्ति या देशप्रेम क्या होता है?? जिस तरह प्यार, गुस्सा, लोभ, अहंकार, दुश्मनी ये गुण, अवगुण या भावनाए इंसान को उसके असली व्यक्तित्व से ऊपर उठाने या निचे गिराने का कारण होती हैं उसी तरह देशभक्ति अथवा देशप्रेम भी एक ऐसी भावना है जो २३ साल के युवक भगत सिंह को सपने देखने और घर बसाने की उम्र में देश पर कुर्बान होने के लिए प्रेरित करती है. जो मोहन दास को वकालत छोड़ के महात्मा गाँधी बनने का जूनून देती है। जो झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई को उसके दूध पीते बच्चे को पीठ पर बांध के युद्ध के मैदान में देश के दुश्मनो के दांत खट्टे करने की हिम्मत देती है। मगर आज वो देशभक्ति की भावना, वो देश केलिए कुछ भी कर गुजरने का जूनून जैसे पारी कथा की तरह काल्पनिक या मिथ्या लगता है।
वर्तमान दौर में “वन्दे मातरम” गीत सुनके कितने लोगों पर सरफरोशी का जूनून सवार होता है या फिर "जन गन मन" की ध्वनि हम में से कितनो की रगों में देश के प्रति आदर, सम्मान की भावना का संचार करती है?? चलो एक बार को मान लेते हैं की इन पुराने गीतों या राष्ट्रीय गीत के बोलों का अर्थ समझ पाने में नयी पीढ़ी सक्षम नहीं इसलिए इन गीतों का उन् पर उतना गहरा प्रभाव नहीं पड़ता लेकिन दुःख तब होता है जब देश भक्ति पर बनी नयी फिल्में और गीत भी देश कि भक्ति भावना को झकझोरने में असफल रहते हैं।
आज की हकीकत ये है कि किसी ज़माने में युवाओं के देशभक्ति जज़बे को ललकारने वाला गीत “ये देश है वीर जवानों का” आजकल लोगों को देश भक्ति केलिए कम और भंगड़ा करने केलिए ज़यादा प्रेरित करता है।
फिल्म हकीकत का अमर गीत “कर चले हम फ़िदा” को सुनके शायद ही किसी का देश पर फ़िदा होने को दिल करता हो। मनोज कुमार कि फिल्म भगत सिंह का यादगार गीत “सरफरोशी कि तमन्ना अब हमारे दिल में है अब गणतंत्र दिवस या स्वतन्त्रता दिवस के अवसर पर बार-बार लगातार बजके भी लोगों को देश के प्रति उनके फ़र्ज़ की याद नहीं दिला पाता।
क्या आजके कहानीकारों, गीतकारों की कलम देशभक्ति के जज़बे से नावाकिफ है या वर्तमान निर्देशको कि सोच देशप्रेम कि भावना से अपरिचित है?? या फिर शायद अब हम सभी लोग अपने देश के प्रति उदासीन हो गए हैं।
आज देश १९४७ से पहले की समस्याओं से कहीं अधिक गंभीर और जटिल समस्याओं से जूझ रहा है लेकिन देशप्रेम की जगह कुर्सी प्रेम, देश भक्ति कि जगह माया यानि रुपया भक्ति और देश की एकता की जगह राजनितिक पार्टी एकता के नारों ने ले ली है। टेलिविज़न और रेडिओ आपसी प्रतिस्पर्द्धा के चलते दर्शकों व् श्रोतओ की खोयी नब्ज़ ढून्ढने का दुसाहस नहीं कर पाते।
मिडिया बिकाऊ, नेता बिकाऊ, कुर्सी बिकाऊ पर क्या देश भक्ति की भावना भी बिकाऊ है?? बिकने वाली हर चीज़ तो पैसा लगाके खरीदी जा सकती है न?? लेकिन पैसे में अगर इतनी ताकत होती तो करोड़ों रुपये की लागत से बना गीत “मिले सुर मेरा तुम्हारा” का रीमक फ्लॉप क्यों हो गया??

वो कागज़ की कश्ती वो बारिश का पानी..

आजकल दो प्राइम चेनल्स पर बच्चो का डांस मुकाबला चल रहा है और तीसरा इस चूहा दौड़ में शामिल होने की तैयारी कर रहा है या यूँ कहें कि तीसरे की नक़ल करके पहले दो चैनल्स ने बच्चो को अपनी उँगलियों पर नचा के टीआरपी के खेल का मज़ा उठाने की तैयारी की है।
खैर पहले, दूसरे और तीसरे की गिनती से निकल कर मुद्दे की बात करते हैं। पता नहीं आप में से कितने लोगों ने इस बात को नोटिस किया है कि बच्चो के इन मुकाबलों में कई बच्चे अपनी उम्र से से कहीं ज़यादा मच्योर अदाएं और मेकअप कर के कैमरे के सामने आ रहे हैं। डांस कम्पीटीशन में जीतने केलिए क्या तिकडम लगानी है ये समझ इतने छोटे बच्चो में तो हो नहीं सकती। और जहाँ तक मैं जानती हूँ कोई भी चैनल या प्रोडक्शन हॉउस भी अभिवाकों पर ये दबाव नहीं डालता के वो अपने बच्चो को बच्चा कम और मल्लिका शेरावत ज्यादा बना के आडिशन केलिए लायें। साथ ही सोने पे सुहागा कहावत को चरित्रार्थ करते हुए उन्हें अश्लील अदाओं से जजेस को रिझाने की सीख भी दी जाती है। आखिर क्यों पैसे और पब्लिसिटी के भूखे कुछ लोग अपने बच्चो के मासूम बचपन की अपने अधूरे सपनो पर बलि चढा रहे हैं।
मात्र ६ साल की बच्ची “ज़रा ज़रा टाच मी, जरा ज़रा किस मी” गाने पर कटरीना को भी मात देने वाली अदाएं दिखाए तो उसके लिए किसे दोषी माना जाये?? बात सिर्फ अदाओं तक ही सिमित रहती तो बवाल मचाने की कोई ज़रूरत नहीं थी पर अदाओं के साथ साथ बच्चो के खासतौर पर लड़कियों के कपड़ों पर जिस बेरहमी से कैंची चली होती है उससे देख के मलायका, कटरीना और प्रियंका जैसी अभिनेत्रियाँ भी पानी भारती दिखाई देती हैं। और उस पे तुर्रा ये कि अगर इन बच्चो को रिजेक्ट किया जाये तो अभिवावक हाथ जोड़ने, आंसू बहाने से लेकर प्रोडक्शन वालों के हाथ पैर तोड़ने तक की धमकियों/कोशिशों तक से परहेज़ नहीं करते।
फिर भी अगर नियम, कानून और डांस की तकनिकी बरीकिओं में खामियां निकालकर ऐसे लोगों को रवाना कर भी दिया जाये तो ये लोग आसानी से हार नहीं मानते। या तो ये लोग अपने बच्चे का हाथ थामे एक के बाद दुसरे शो में ऑडिशन फार्म भरते दिखाई देंगे या फिर उसी कार्यक्रम के अगले सीज़न में हिस्सा लेने लिए ताबड़तोड़ तयारी में लग जाते हैं।
क्या इन लोगों के मन में एक बार भी ये नहीं आता कि ये मासूम बचपन एक बार अगर हाथ से फिसल जाये तो फिर कभी, किसी भी सूरत में लौट के नहीं आता। कितनी निर्ममता के ये लोग अपने बच्चों को बचपन कि देहलीज़ लांघने से पहले ही जवानी के गलियारे में ले आते हैं। उनकी टीन एज यानि किशोरावस्था उनसे छीन ली जाती है।
माँ बाप के अधूरे मगर अदृशय सपनो को कब बच्चे अपना सपना समझ बैठते हैं ये उन्हें भी पता नहीं चलता। ऐसे में ये बच्चे भी चाहते हैं कि वे जल्दी से बड़े हो जाएँ और वही सब करें जो वे बड़ों को करता देखते हैं। वैसे भी आजकल बच्चे उम्र और शारीरिक बनावट के लिहाज से भले ही किशोर लगते हों किन्तु मानसिक रूप से वह समय से पहले ही जबरदस्ती जवान बना दिये जाते हैं। ऐसे में जिन बच्चों की ज़िन्दगी में किशोरावस्था के लिए कोई वक़्त, एहसास और ज़रूरत तक बाकि नहीं रहती क्या वो बच्चे सचमुच के बड़े होने पर इस ग़ज़ल के मायने उसी शिद्दत के साथ समझ पाएंगे जिस शिद्दत और रूमानियत के साथ श्री जगजीत सिंह ने इसे गया और हम सब अपने बचपन की याद में अक्सर गुनगुनाने लगते हैं - -
ये दौलत भी ले लो ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन वो कागज़ कि कश्ती वो बारिश का पानी

मुंबई : मायानगरी की माया..


भारत की वाव्सयिक नगरी "मुंबई" जिसके बारे में कहा जाता है की ये शहर कभी सोता नही है॥ और ये बात वाकई सच है॥ इसी शहर को कुछ लोग मायानगरी भी कहते हैं॥ क्योंकि ये वो नगर है जहाँ आसमान के तारे ज़मीन पे नज़र आते हैं॥ हालाँकि शूटिंग वगरह के सिलसिले में ये सितारे ज्यादातर विदोशों में की शिरकत करते हैं मगर उनके स्थाई पतों पर इस मायानगरी की ही छाप होती है॥
खैर हम बात कर रहे थे मायानगरी की माया की॥ सच में साहब यूँ तो अपने काम के सिलसिले में मैं देश के कई छोटे बड़े शहरों में घूम चुकी हूँ मगर इस शहर में मैंने वो सब देखा जो अपनेआप में अजीबोगरीब मिसाल है॥ मुंबई की लाइफ लाइन कही जाने वाली लोकल ट्रेन को ही लीजिये॥ आम दिनों में अगर आप लोकल ट्रेन में सफर करेंगे तो अपनी-अपनी ज़िन्दगी की चक्की में पिसते लोग इतने स्वार्थी हो जायेंगे की ४ लोगों के बैठने की सीट पे आपको ३ लोग बैठे मिलेंगे और लाख मिन्नतें करने पर भी उनमें से कोई तिनका भर भी खिसकने को तैयार नही होगा॥ मानो के ट्रेनकी ये एक सीट ही उनकी आन-बान-और शान की पहचान हो॥ वैसे चाहे यही लोग अपनी सारी ज़िन्दगी एक 8x10 के फ्लैट में ६ और लोगों के साथ गुजार देते हैं॥ और फिर यही लोग आतंकी धमाकों में लहूलुहान हुयी मुंबई के हर अपने-बेगाने के ग़म में इस कदर शरीक हो जाते हैं के जैसे अपनी की उंगली से जुडा नाखून हो॥
खैर इस चर्चा को तो इंसानी फितरत कह के भी दरकिनार किया जा सकता है॥ मगर इस मायावी नगरी की माया के असली पहलु पर गौर फरमाइए॥
मुंबई का पुराना नाम बॉम्बे था ये तो हम सभी जानते हैं मगर बॉम्बे नाम क्यों और किसने रखा ?? क्या सोच के रखा ये कोई नही जनता॥ क्योंकि जब इस शहर का नामकरण बतौर बॉम्बे हुआ उस वक्त ना तो यहाँ बम्ब फटते थे और नही यहाँ कोई "बे" यानि खाडी ही हुआ करती थी थी॥
बात यहाँ ख़तम नही होती यहाँ से तो असली किस्सा शुरू होता है॥ मुंबई में एक बहुत ही मशहूर जगह है चर्च गेट॥ यकीं जानिए की यहाँ दूर-दूर तक न तो कोई चर्च है और न ही कोई ऐसा अनोखा गेट के जिसके नाम से इस जगह का ही नाम चर्च गेट रख दिया जाए॥ बस ये एक लोकल ट्रेनों के ठहरने और प्रस्थान करने का प्रमुख रेलवे स्टेशन है॥
और अब वो जगह जिसे लोग अँधेरी के नाम से बुलाते हैं॥ काफी महंगी जगह है साहब तो ज़ाहिर सी बात है यहाँ रात में भी गाड़ियों और बिल्डिंगों की रोशनी से दिन का ही भ्रम होने लगता है फ़िर इसका नाम अँधेरी क्यों??
इसके बाद ज़िक्र करते हैं बांद्रा नाम की जगह का ॥ शहर की सबसे महेंगी जगहों में से एक इस जगह पर कई नामी-गिरामी फिल्मी हस्तियां भी रहती हैं॥ अपने किंग खान का "मन्नत" भी यहीं है॥ पर साहब बन्दर कोई नही रहता या दीखता यहाँ फ़िर बांद्रा नाम रखने की क्या वजह हो सकती है??
एक और जगह है यहाँ लोअर परेल॥ अब लोअर का हिन्दी में मतलब होता है सामान्य से कुछ निचे मगर हैरत की बात है की ये जगह का धरातल बिल्कुल सामान्य है निचे नही..
यहाँ माँ लक्ष्मी का एक पौराणिक मन्दिर है जिसकी बहुत मान्यता है॥ इस मन्दिर को महालक्ष्मी के नाम से जाना जाता है और मज़ेदार बात ये है की ये मन्दिर है उस जगह नही बना हुआ जिस जगह को लोग महालक्ष्मी के नाम से जानते हैं बल्कि ये मन्दिर हाजी अली में है॥
"लोहार चाल" में कोई लोहार या उनके पुश्ते नही रहे कभी..
लोह्खंडवाला मार्केट वो जगह है जहाँ न तो कभी लोहे का कारोबार हुआ न ही इस वयवसाय से जुड़े लोग ही रहे यहाँ..
भिन्डी बाज़ार में शायद भिन्डी को छोड़ के बाकि सब मिल जाएगा..
जैसे दिल्ली में पराठें वाली गली, किनारी बाज़ार वगैरा में आपको इनके नामों से सम्बंधित चीजों की भरमार मिलेगी मगर यहाँ अंजीर वाडी या मिर्ची गली में कोई भी अंजीर या मिर्ची बेचता हुआ दिखाई नही देगा..
है ना अजीब शहर॥ अपनी ही धुन में सड़कें नापते लोगों की ज़िन्दगी में ९.२०, ७.५० जैसे टाइम बहुत मायने रखते हैं क्योंकि ये टाइम उनकी मंजिल तक पहुँचने वाली ट्रेन के आने का पैगाम लाते हैं..
अपने घर से ज़्यादा लोगों का वक्त ट्रेन, बस, ऑटो रिक्शा के सफर में बीत जाता है..
स्कूल फ्रेंड, कॉलेज फ्रेंड की तरह एक और बिरादरी होती है यहाँ दोस्तों की "ट्रेन फ्रेंड"॥
मुंबई में ही आपको चाइनीज डोसा खाने को मिलेगा, मुंबई में ही आप जैन चिकेन आर्डर करने की जुर्रत कर सकते हैं॥ और मेरा विश्वास कीजिये आज तक किसी धार्मिक संस्था ने इस बात पर बवाल नही मचाया॥ "इसे कहते हैं डेमोक्रेसी सर जी"
फ़िर मिलते हैं ब्रेक के बाद॥